टार्च बेचने वाले कहानी का सारांश (Torch Bechne Wala Summary in Hindi) 'टार्च बेचने वाले' हरिशंकर परसाई जी ने समाज में व्याप्त अंधविश्वासों, रूढ़ियों प
टार्च बेचने वाले कहानी का सारांश (Torch Bechne Wala Summary in Hindi)
'टार्च बेचने वाले' हरिशंकर परसाई जी ने समाज में व्याप्त अंधविश्वासों, रूढ़ियों पर कुठाराघात करने के लिए हास्य और व्यंग्य का सशक्त प्रयोग किया है। परसाई जी ने दो दोस्तों की कहानी बतायी है कि दो मित्र हैं, जिनमें से पहला टार्च बेचने का काम शुरू करता है तथा दूसरा संत की वेशभूषा धारण कर का प्रवचनकर्ता बन जाता है। पहला मित्र अपने दूसरे मित्र के धंधे में अर्जित लाभ को देखकर हैरान रह जाता है तथा स्वयं भी वही धंधा अपनाने का निश्चय करता है। लेखक ने इस रचना के माध्यम से समाज में व्याप्त अंधविश्वास तथा भोली-भाली जनता को ठगनेवाले तथाकथित धर्माचार्यों पर कड़ा प्रहार किया है।
टार्च बेचने वाले कहानी का सारांश: लेखक बहुत दिनों बाद उस व्यक्ति से मिला जो पहले चौराहे पर 'सूरज छाप' टार्च बेचा करता था। उसकी दाढ़ी बढ़ी हुई थी। तथा उसने लंबा कुरता पहना हुआ था। बदली हुई वेशभूषा का कारण पूछे जाने पर उसने बताया कि एक घटना ने उसका जीवन बदल दिया इसलिए उसने टार्च बेचने का धंधा छोड़ दिया है।
इसके बाद वह लेखक को उस घटना के विषय में बताता है। पाँच वर्ष पूर्व वह तथा उसका मित्र निराश बैठे थे। उनके सामने एक प्रश्न था - 'पैसा कैसे पैदा करें ?' इस सवाल के हल के लिए दोनों ने पैसा कमाने के लिए अलग-अलग दिशाओं में जाने का निश्चय किया तथा पाँच वर्ष बाद एक नियत स्थान पर मिलने का वादा किया।
पाँच वर्षों के दौरान पहल मित्र टार्च बेचने का काम करने लगा। वह लोगों को मैदान में इकट्ठा करता, उन्हें अँधरे का डर दिखाता और उसकी सारी टार्च हाथों हाथ बिक जाती थी। उसका धंधा खूब चलता था।
पाँच वर्ष बाद वह निश्चित स्थान पर पहुँचता है परन्तु उसे उसका मित्र नहीं मिलता। वह उसे ढूँढ़ने निकल पड़ता है। एक शाम उसे एक मैदान में मंच पर सुंदर रेशमी वस्त्रों से सजे एक भव्य पुरूष बैठे दिखाई देते हैं। मैदान में हजारों नर-नारी श्रद्धा से झुके उनके प्रवचन सुन रहे थे। संत कह रहे थे कि यह युग ही अंधकारमय है। आज मनुष्य इस अंधकार से घबरा उठा है। अंतर की आँखें ज्योतिहीन हो गई हैं। मानव-आत्मा अंधकार में घुटती है। इस प्रकार वह लोगों को डराते हैं परन्तु फिर तुरन्त उन्हें सांत्वना देते हुए अपने ‘साधना मंदिर' बुलाकर अंतर की ज्योति को जलाने का आह्वान करते हैं। लोग स्तब्ध होकर संत की बातें सुन रहे थे पर उसकी हँसी छूट रही थी।
वह उस भव्य पुरूष से मिलने उनकी कार के पास पहुँचा। उसने तो उस भव्य पुरूष को नहीं पहचाना परन्तु उस भव्य पुरूष ने उसे पहचानकर कार में बिठा लिया। संत की वेशभूषा में यह उसका मित्र ही था। बंगले पर पहुँचकर दोनों में खुलकर बातचीत हुई। वह अपने मित्र का वैभव देखकर हैरान था।
उसने संत बने अपने मित्र से पूछा कि उसने इतनी दौलत कैसे पाई, क्या वह भी टार्च बेचता है। फिर वह कहता है कि उन दोनों के प्रवचन एक जैसे ही हैं वह भी लोगों को अँधेरे का डर दिखाकर टार्च बेचता है तथा उसका संत बना मित्र भी लोगों को अँधेरे का भय दिखाता है। दूसरा मित्र उत्तर देता है कि उसकी टार्च किसी कंपनी की बनाई हुई नहीं है, वह बहुत ही सूक्ष्म है परन्तु उसकी कीमत बहुत अधिक मिल जाती है।
पहला मित्र तथाकथित संत के साथ दो दिन तक रहा। सारा रहस्य उसकी समझ में आ गया कि लोगों को डराना तथा धर्म-अध्यात्म की बातें सुनाना इस धंधे का मूलमंत्र है। वह 'सूरज छाप' टार्च की पेटी नदी में फेंक देता है ? दाढ़ी बढ़ाकर लंबा कुरता पहन लेता है। वह लेखक को बताता है कि पहले वह लोगों को बाह्य अंधकार से डराता था परन्तु अब वह उन्हें आत्मा के अंधकार का भय दिखाएगा। यानी अब भी बेचेगा तो वह टार्च ही, परन्तु कंपनी बदल रहा है।
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