सुंदरी का चरित्र-चित्रण - Sundari Ka Charitra Chitran

सुंदरी का चरित्र-चित्रण: सुंदरी 'लहरों के राजहंस' नाटक की नायिका और नाटक के नायक नंद की पत्नी है। वह प्रवत्ति मार्ग का प्रतिनिधित्व करने वाली प्रतीकात

सुंदरी का चरित्र-चित्रण - Sundari Ka Charitra Chitran

सुंदरी 'लहरों के राजहंस' नाटक की नायिका और नाटक के नायक नंद की पत्नी है। वह प्रवत्ति मार्ग का प्रतिनिधित्व करने वाली प्रतीकात्मक पात्रा है। सुंदरी गौतम बुद्ध के निवृत्ति मार्ग में आस्था नहीं रखती वरन् उसके विपरीत भौतिक देह-सुख भोग को ही अपना अभीष्ट मानती है और देवी यशोधरा से स्वभावतः ईर्ष्या करती है। अतः सुंदरी के चरित्र पर विस्तार से चर्चा करना अपेक्षित है।

भोगवाद की प्रतीक सुन्दरी

राकेश जी ने सुंदरी के चरित्र को प्रवत्ति मार्गी दर्शन के प्रतीकात्मक रूप में उभारा है। वह जीवन के भौतिक सुख भोग को ही जीवन का सबसे बड़ा सुख और अभीष्ट मानती है। वह अपनी कामेच्छाओं का स्थगन स्वीकार नहीं कर सकती। उसे पता है कि देवी यशोधरा कल प्रातः गौतम बुद्ध के निवृत्ति मार्ग में दीक्षा ग्रहण करेगी, इसलिए वह उससे पूर्व की रात्रि में कामोत्सव का आयोजन करती है। वह अपनी भोगवृत्ति को उजागर स्वयं ही करती है-

"रात बीतने दे, फिर अपने मन से पूछना। रात भर नगरवधू चन्द्रिका के चरणों की गति से इस कक्ष की हवा कांपती रहेगी। हवा कांपती रहेगी, और डुलती रहेगी मदिरा उसकी आँखों से, उसके एक-एक अंग की गोराई से कपिलवस्तु के राजपुरुष रात भर उस मदिरा में और अन्यान्यमणि मदिराओं में डूबते-उतराते रहेंगे। तू देखेगी और विश्वास नहीं कर सकेगी। जो नही देखें, वे तो कल्पना भी नहीं कर पायेंगे।"

एक ओर तो कपिलवस्तु के राजपुरूष, राजकर्मचारी और जन-सामान्य सांसारिकता से विमुख होकर गौतम बुद्ध के निर्वाण मार्ग में दीक्षा ग्रहण कर रहे हैं, दूसरी ओर भोग की प्रतीक प्रवृति मार्गी सुंदरी कामोत्सव का आयोजन करती है जिसमें रात्रि के अंतिम पहर तक भोजन, आपानक नृत्य चलेगा। इसका उजागर करता हुआ श्यामाँग कहता है-

"पिछले वसंत में आम कैसे बौराये थे! पेड़ों की डालियाँ अपने आप हाथों पर झुक आती थीं...... परन्तु तब यहाँ कामोत्सव का आयोजन नहीं किया गया । आयोजन किया गया है इस बार ....... जब आम के वक्षों ने भिक्षुओं का वेश धारण कर रखा है। ...... कल प्रातः देवी यशोधरा भिक्षुणी के रूप में दीक्षा ग्रहण करेंगी और यहाँ ..... यहाँ रात भर, न त्य होगा, अपानक चलेगा ।

सुंदरी भोगवाद में विश्वास रखती है तभी तो वह शशांक नामक राजसेवक को पुराने रस और आसव मिलाकर कई प्रकार के नए सम्मिश्रण बनाने के लिए आदेश देती है। वह गौतम बुद्ध के निवत्ति मार्ग की अपेक्षा अपने प्रवत्ति मार्ग को, उसके द ष्टिकोण को श्रेष्ठ मानती है। इसीलिए तो वह गौतम बुद्ध पर आरोप लगाती है-

"कहना चाहने की बात नहीं, अलका! मैं तुझे एक छोटी-सी सच्चाई बतला रही हूँ। लोग कहते हैं कि गौतम बुद्ध ने बोध प्राप्त किया है। कामनाओं को जीता है। पर मैं कहती हूँ कि कामनाओं को जीता जाए, यह भी क्या मन की एक कामना नहीं है? और ऐसी कामना किसी के मन में क्यों जागती है?"

सुंदरी का यह उपर्युक्त तथ्य स्वीकार नहीं है क्योंकि अगर ऐसा होता तो कपिलवस्तु के समस्त राजपुरुष, सामान्य जन बौद्धमत में क्यों दीक्षित हो रहा है? सभी के सभी बौद्धमत को स्वीकार करने में इतना उत्साह क्यों दिखा रहे हैं? सुंदरी इसके प्रत्युत्तर में कहती हैं "इसका अर्थ इतना ही है अलका, कि बहुत दिन एक तार जीवन बिताकर लोग अपने से ऊब जाते हैं। तब जहाँ कुछ भी नवीनता दिखाई दे, वे उसी ओर उमड़ पड़ते हैं। यह उत्साह दूध फेन का उबाल है। चार दिन रहेगा, फिर शान्त हो जाएगा। "

यहीं नहीं वह गौतम बुद्ध के निव त्ति मार्ग पर व्यंग्य भी करती है। वह अलका से कहती है।

"कोई गौतम बुद्ध से कहे कि कभी कमलताल के पास आकर इनसे (राजहंसों) भी वे निर्वाण और अमरत्व की बात कहे। ये एक बार चकित द ष्टि से उनकी ओर देखेंगे, फिर कांपती हुई लहरें जिधर ले जाएंगी, उधर को तैर जाऐंगे। शायद उस दिन एक बार गौतम बुद्ध का मन नदी तट पर जाकर उपदेश देने को नहीं होगा। मैं चाहूंगी कि उस दिन....... | "

सुंदरी कामोत्सव का आयोजन करती है लेकिन कामोत्सव में निमंत्रित व्यक्तियों में से कोई भी नहीं आटा, केवल एक मैत्रेय आता है। वह भी सुन्दरी को परामर्श देता है कि कामोत्स को एक दिन के लिए स्थगित कर दिया जाए, यह सुनकर सुंदरी एकदम तमतमा उठती है, क्योंकि यह उसके प्रवृत्ति मार्ग पर निवृत्ति मार्ग की ओर से एक प्रहार था और सुंदरी पराजित होना नहीं चाहती थी, तुरन्त कहती हैं-

"कामोत्सव कामना का उत्सव है, आर्य मैत्रेय! मैं अपनी आज की कामना कल के लिए टाल रखूं। क्यों? मेरी कामना मेरे अन्तर की है। मेरे अन्तर में उसकी पूर्ति भी हो सकती है। बाहर का आयोजन उसके लिए उतना महत्व नहीं रखता जितना कुछ लोग समझ रहे हैं। "

आधुनिक अभिजात्य नारी की प्रतीक

सुंदरी आधुनिक अभिजात्य वर्ग की प्रतीक रूप में उभरी है। उसके व्यक्तित्व में राकेश जी ने आधुनिक नारी जीवन के अनेक तत्वों का समावेश हुआ है। इसी कारण वह अपने प्रत्येक सामान्य या विशेष सामयिक या असामयिक कार्य को चिरस्मरणीय बनाना चाहती है। इसीलिए वह कामोत्सव के बारे में अपने कर्मचारियों से कहती है-" हाँ, रात के अंतिम पहर तक ! भोज आपानक और नृत्य; वर्षों तक याद बनी रहनी चाहिए लोगों के मन में" । उसके दर्शन को हम चार्वाक दर्शन से प्रभावित मान सकते हैं या आधुनिक पाश्चात्य Eat, drink and mary की धारणा पर आधारित मान सकते हैं। वह अलका से कहती है....." रात भर नगरवधू चन्द्रिका के चरणों की गति से इस कथा की हवा कांपती रहेगी। हवा कांपती रहेगी और ढुलती रहेगी मदिरा, उसकी आँखों से, उसके एक-एक अंग की गौराई से ...।"

सुंदरी के व्यक्तित्व में अभिजात्य वर्ग की नारी जैसा शासन भाव भी विद्यमान है। इसी कारण वह अपनी बातों को आवश्यकता से अधिक महत्त्व देती है.... " क्यों आज तक कभी हुआ है कि कपिलवस्तु के किसी राजपुरूष ने इस भवन में निमन्त्रण पाकर अपने को कृतार्थ समझा हो?" नंद कामोत्सव में भाग लेने के लिए अनेक लोगों के पास स्वयं जाता है, लेकिन कोई नहीं आता, इस बात का जब सुन्दरी को पता चलता है तो वह अत्यन्त विक्षुब्ध हो उठती है और कहती है— "मेरे उत्सव में लोग अनुरोध करने से आएं, इससे उनका न आना ही अच्छा है।" वह अत्यन्त उद्विग्न अवस्था में आर्य मैत्रेय से कहती है। "आर्य मैत्रेय यदि जाना चाहते हैं, तो इन्हें भी जाने दीजिए। कह दीजिए कि जिनके यहा०१६१ से ये होकर आए हैं, जाते हुए भी एक बार उनके यहाँ होते जाएं। उन सबसे कह दें कि मेरे यहाँ आने के लिए किसी कल की प्रतिक्षा में वे लोग न रहें। वह कल अब उनके लिए कभी नहीं आएगा, कभी नहीं......।"

देखा जाए तो यह उतावलापन सुन्दरी के व्यक्तित्व के खोखलेपन का ही द्योतक है और यह खोखलापन आधुनिक द ष्टिकोण से परखते हुए डॉ. जयदेव तनेजा का कहना है- 

"नन्द और सुन्दरी के माध्यम से राकेश ने जिस तरह औरत और मर्द के आपसी रिश्ते का रेशा - रेशा उधेड़ा है, उनके संबंधों को जैसी निर्ममता और निष्ठुरता से विश्लेषित किया है, वह आधुनिक वैज्ञानिक दष्टि का ही परिणाम या प्रमाण है। "

अनुपम सौन्दर्यशालिनी

सुन्दरी अनुपम सौन्दर्यशालिनी नारी है। उसका व्यक्तित्व अत्यन्त आकर्षक है। वह अभि- जात्यवर्गीय सौन्दर्य से युक्त है। वह शारीरिक के साथ-साथ व्यवहारिक सौन्दर्य की स्वामिनी है। नंद उसके सौन्दर्य पर मोहित एक नतमस्तक तो है ही, कुछ आतंकित भी है। उदाहरणतः

नंद: एक बात का मैं कभी निश्चय नहीं कर पाता।

सुन्दरी : किस बात का ?

नंद: कि मैं किस पर अधिक मुग्ध हूँ..... तुम्हारी सुन्दरता पर या तुम्हारी चातुरी पर ।

सुन्दरी : आप मुझे चतुर कहते हैं?

नंव: नहीं हो तुम?

सुन्दरी: (जैसे बहुत भोलेपन से ) नहीं तो।

सुन्दरी : पता है लोग क्या कहते हैं?

सुन्दरी : कहते हैं, आपका ब्याह एक यक्षिणी से हुआ है जो हर समय आपको अपने जादू से चलाती है।

नंद: इसमें झूठ क्या है?

सुन्दरी: झूठ नहीं है?

नंद: यक्षिणी हो या नहीं, यह तो मैं नहीं कह सकता, पर मानवी तुम नहीं हो। ( स्थिर दष्टि से उसकी ओर देखता हुआ) ऐसा रूप मानवी का नहीं होता ।

ईर्ष्यालु नारी

सुन्दरी स्वभावतः नारीगत ईर्ष्या-भाव की शिकार है। वह देवी यशोधरा से ईर्ष्या करती है। इसी कारण वह उसी पूर्व रात्रि में कामोत्सव का आयोजन करती है जिस दिन देवी यशोधरा बौद्धमत में दीक्षा ग्रहण करती है। वह राजकुमार सिद्धार्थ के गौतम बनने के पीछे देवी यशोधरा को ही कारण मानती हुई व्यंग्यात्मक शब्दों में कहती है- "यही तो दुःख है कि आज वे राजकुमार सिद्धार्थ नहीं है । परन्तु राजकुमार सिद्धार्थ आज गौतम बुद्ध बनकर आए, इसका श्रेय भी तो देवी यशोधरा को है। नहीं?"

एक स्थल पर श्यामाँग सुन्दरी के ईर्ष्या भाव को व्यक्त करता है। "कामोत्सव का आयोजन किया गया है, इस बार जब आम के वक्षों ने भिक्षुओं का वेश धारण कर रखा है।..... कल प्रातः देवी यशोधरा भिक्षुणी के रूप में दीक्षा ग्रहण करेंगी और यहाँ ...... यहाँ रात भर न त्य होगा, आपानक चलेगा.....।"

सुन्दरी के इस ईर्ष्यालु भाव से नंद परिचित है, इसीलिए जब यशोधरा कहती है कि वह भिक्षुणी बनने से पहले अपने संबंधियों से मिलना चाहती है और मिलने के लिए नंद के पास निमंत्रण भी भेजती है। नंद सुन्दरी को बिना बताये ही यशोधरा से मिलने चला जाता है। वापिस आने पर जब वह सुन्दरी को बताता है कि वह देवी यशोधरा से मिलकर आ रहा है और तुम्हारे लिए उन्होंने आर्शीवाद भेजा है, तभी वह तमतमा उठती है और कहने लगती है-

" आत्म-वंचना की भी एक सीमा होती है। आज के दिन आशीर्वाद देंगी और मुझे ! मन में क्या सोच रही होंगी, मैं अच्छी तरह जानती हूँ उन्हीं के कारण ......।"

अतः सुन्दरी का ईष्यामत्व स्पष्ट हो जाता है।

सुन्दरी का विद्रोह एवं द्वन्द्व :

सुन्दरी का पूर्ण विश्वास था कि उसका पति नंद कभी भी उसके सौन्दर्य-पाश से मुक्त होकर बौद्ध भिक्षु नहीं बन सकता। लेकिन जब वह प्रसाधन कर रही होती है और नंद अपने हाथों में दर्पण लिए हुए होता है तो वह हिलकर गिरकर टूट जाता है, तभी वह शंकाग्रस्त होकर कहती है-" जानना चाहती हूँ कि क्या दर्पण का टूटना सचमुच अकारण ही था...... या उस समय आप कोई और बात सोच रहे थे?" इसी के साथ उसका विश्वास भी खण्डित हो जाता है, लेकिन उसे इस विश्वास के खण्डित होने का एहसास तब होता है जब वह एक ओर अपने अधूरे श्रंगार को देखती है तो दूसरी ओर अपने सम्मुख केश कर्तित नंद को देखती है। उसकी इस स्थिति के विषय में डॉ. सुरेश अवस्थी का कहना है।

"एक ओर तो नन्द के मन का यह द्वन्द्व है, और दूसरी ओर रूपगर्विता सुन्दरी के इस खण्डित विश्वास की पीड़ा कि उसमें आसक्त उसका पति कैसे उसके रूपपाश से मुक्त होकर बौद्ध भिक्षु होकर उन्हीं हाथों में भिक्षापात्र लेकर उसके पास लौटा है, जिन हाथों में उसके श्रंगार के लिए उसने दर्पण उठाया था। ...... नाटक के अन्त में जब वह नन्द के द्वारा चन्दन लेप का बिन्दु बनाए जाने पर चौंककर जाग जाती है तो उसकी द ष्टि नंद के केश कटे हुए भिक्षु-वेशी मुख पर पड़ती है । उसका मुख वितृ ष्णा से भर जाता है। "

नंद के कटवा कर घर आता है तो वह सुन्दरी को निहारकर सोचता है कि सुन्दरी को तुम्हारे केश चाहिए अर्थात्, सुन्दरता चाहिए जिसमें केशों का होना अनिवार्य है इसीलिए वह केश लेने के लिए वापिस गौतम बुद्ध के पास जाता है। लेकिन सुन्दरी की सोच इसके विपरीत आधुनिक नारी की-सी है। वह पुरुषवादी इस सोच के प्रति विद्रोह भावना रखती है। इसी कारण उसका अन्तर्द्वन्द्व और अधिक गहन हो उठता है और वह विद्रोहात्मक भावना को व्यक्त करती हुई कहती है-

"इतना ही तो समझ पाते हैं ये लोग....... बस इतना ही तो इनकी समझ में आ पाता है । ...... इससे कभी समझ भी नहीं पाएंगे ये ......कभी नहीं समझ पाएंगे। "

अहंनिष्ठ नारी

सुन्दरी अंहनिष्ठ नारी है। वह कामोत्सव का आयोजन करती है लेकिन मैत्रेय को छोड़कर

निमंत्रित व्यक्तियों में से कोई भी नहीं आता। मैत्रैय भी यह परामर्श देता है कि कामोत्सव को स्थगित कर दिया जाए, यह सुनते ही वह तमतमा उठती है, क्योंकि वह इसे निवृत्ति मार्ग की ओर से एक षड्यन्त्र मानती है। और कहती है- " मैं अल्पवस्थित नहीं हूँ। किसी का कोई षड्यन्त्र मुझे अत्यवस्थित नहीं कर सकता।"

मैत्रैय यह सुनकर वापिस जाना चाहता है लेकिन नंद उसे रोकने की कोशिश करता है। इसी समय सुन्दरी बड़ी उद्विग्नता से जो कहती है उससे उसकी अहं भावना ही झलकती है-

" (आपे से बाहर होकर) अपने उद्वेग का वास्तविक कारण मैं स्वयं हूँ। और किसी को यह अधिकार मैं नहीं देती कि वह मेरे उद्वेग का कारण बन सके। आर्य मैत्रेय यदि जाना चाहते हैं, तो इन्हें भी जाने दीजिए। कह दीजिए कि जिनके यहाँ से होकर आए हैं, जाते हुए भी एक बार उनके यहाँ होते जाएं। उन सबसे कह दें कि मेरे यहाँ आने के लिए किसी कल की प्रतिक्षा में वे न रहें। वह कल अब उनके लिए कभी नहीं आएगा। कभी नहीं......।"

अतः कहा जा सकता है कि लेखक के मूल उद्देश्य युगों-युगों से मानव की प्रवत्ति एवं निवृत्ति दर्शन के बीच द्वन्द्वग्रस्त चेतना को मुखरित करने में सुन्दरी एक ओर प्रवत्ति मार्ग के दर्शक का प्रतिनिधित्व करती है तो दूसरी ओर पुरुष प्रधान समाज की नारी के प्रति सोच का आधुनिक नारी के रूप में विद्रोह भी प्रकट करती है। वह अनुपम सौन्दर्य शालिनी है इसीलिए उसे अपने रूप सौन्दर्य पर गर्व है और वह राजरानी है इसलिए वह अहंनिष्ठ भी है।

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सुंदरी का चरित्र-चित्रण - Sundari Ka Charitra Chitran
सुंदरी का चरित्र-चित्रण: सुंदरी 'लहरों के राजहंस' नाटक की नायिका और नाटक के नायक नंद की पत्नी है। वह प्रवत्ति मार्ग का प्रतिनिधित्व करने वाली प्रतीकात
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