चित्रलेखा उपन्यास की कथावस्तु - उपन्यास 'चित्रलेखा' ने भगवतीचरण वर्मा जी को एक उपन्यासकार के रूप में प्रतिष्ठित किया है। यह उपन्यास पाप और पुण्य की सम
चित्रलेखा उपन्यास की कथावस्तु - Chitralekha Upanyas ki Kathavastu
चित्रलेखा उपन्यास की कथावस्तु - उपन्यास 'चित्रलेखा' ने भगवतीचरण वर्मा जी को एक उपन्यासकार के रूप में प्रतिष्ठित किया है। यह उपन्यास पाप और पुण्य की समस्या पर आधारित है। चित्रलेखा की कथा वहाँ से प्रारंभ होती है जब महाप्रभु रत्नाम्बर अपने दो शिष्य श्वेतांक और विशालदेव को यह पता लगाने के लिए कहते हैं कि पाप क्या है? तथा पुण्य किसे कहेंगे? रत्नाम्बर दोनों से कहता है कि तुम्हें संसार में ये ढूंढना होगा, जिसके लिए तुम्हें दो लोगों की सहायता की आवश्यकता होगी। एक योगी है जिसका नाम कुमारगिरी ही बहना होगा। महाप्रभु रत्नाम्बर ने विशालदेव और श्वेतांक के रुचियों को देखते हुए श्वेतांक को बीजगुप्त के पास और विशालदेव को योगी कुमारगिरी के पास भेज दिया। रत्नाम्बर उनके जाने से पहले उनसे कहता है कि हम एक वर्ष बाद फिर यहीं मिलेंगे, अब तुम दोनों जाओ और अपना अनुभव प्राप्त करो। किन्तु ध्यान रहे इस तुम स्वयं न डूब जाना। रत्नाम्बर के आदेशानुसार श्वेतांक और विशालदेव अपने-अपने मार्ग पर चलने को तैयार हो जाते है। चलने से पूर्व रत्नाम्बर उन दोनों को संबोधित करते हुए संक्षेप में बताता है कि कुमारगिरी योगी है, उसका दावा है कि उसने संसार की समस्त वासनाओं पर विजय पा ली है, उसे संसार से विरक्ति है। संसार उसका साधन है और स्वर्ग उसका लक्ष्य है, विशालदेव ! वही तुम्हारा गुरु होगा। इसके विपरित बीजगुप्त भोगी है; उसके हृदय में यौवन की उमंग है और आंखों की लाली। उसकी विशाल अट्टालिकाओं में सारा सुख है। वैभव और उल्लास की तरंगों में वह केलि करता है, ऐश्वर्य की उसके पास कमी नहीं है। आमोद-प्रमोद ही उसके जीवन का साधन और लक्ष्य भी है। श्वेतांक ! उसी बीजगुप्त का तुम्हें सेवक बनना है। महाप्रभु की आज्ञा मानकर दोनों निकल पड़ते है।
'चित्रलेखा इस उपन्यास की प्रमुख नायिका है जो अठारह वर्ष की आयु में विधवा हो गई थी। फिर उसे कृष्णादित्य नामक युवक से प्रेम हो गया और वह गर्भवती हो गई, जिससे दोनों का छिपा प्रेम संसार के सामने आ गया । त्याज्य और भर्त्सना ने कृष्णादित्य को आत्महत्या करने पर मजबूर कर दिया। इसके बाद चित्रलेखा को एक नर्तकी ने आश्रय दिया । जहाँ उसे एक पुत्र हुआ, जो पैदा होते ही संसार छोड़कर चला गया। चित्रलेखा वहीं नर्तकी का कार्य करने लगी। वह इतनी सुंदर और आकर्षक थी कि पाटलीपुत्र का जनसमुदाय उसके कदमों पर लेटा करता था, परंतु उसने अपने संयम के तेज से अपनी कान्ति को बनाए रखा। एक दिन वह अपने पेशे के अनुसार अपना नृत्य प्रस्तुत कर रही थी, उसी समय बीजगुप्त भी उसका नृत्य देखने आया था। बीजगुप्त पाटलीपुत्र के सुंदर पुरुषों में से एक है। बीजगुप्त सामंत है, वह अपने विशाल अट्टालिकाओं में भोग - गिलास, मदिरापान और नर्तकियों के नृत्य में मग्न रहता है। नृत्य करती चित्रलेखा की दृष्टि उस पर पड़ी। उसे लगा कि कृष्णादित्य, बीजगुप्त के रूप में स्वर्ग से यहां आ गया है, तभी बीजगुप्त की आंखें भी चित्रलेखा से मिल गयी। बीजगुप्त, चित्रलेखा पर मोहित हो गया, और उसने चित्रलेखा से अकेले मिलने का प्रस्ताव रखा। चित्रलेखा ने कहा मैं वैश्या नहीं हूं, केवल एक नर्तकी हूं और मेरा संबंध व्यक्ति से नहीं है मैं समुदाय में आती हूं। यह सुनकर बीजगुप्त उदास हो गया। वह स्वयं तो बेचैन था ही साथ ही साथ चित्रलेखा के हृदय में भी वही बेचैनी उत्पन्न कर गया। धीरे-धीरे दोनों को एक दूसरे से प्रेम हो गया। चित्रलेखा और बीजगुप्त मादकता और भोग-विलास में लिप्त हो गये और इसे ही संसार का सुख समझने लगे।
एक दिन दोनों केलिगृह में मादकता और उन्माद में खोये थे उसी समय वहाँ रत्नाम्बर और श्वेतांक ने प्रवेश किया। वे थोड़ी देर रुके और उन्होंने कहा कि- “पाटलीपुत्र की सर्वसुंदरी और पवित्र नर्तकी अर्धरात्रि के समय बीजगुप्त के केलिगृह में! आश्चर्य होता है । "
बीजगुप्त ने महाप्रभु रत्नाम्बर के आने का कारण पूछा तो उन्होंने बताया कि मेरे शिष्य ने आज मुझसे प्रश्न पूछा कि पाप क्या है ? जिसका उत्तर देने में मैं असमर्थ हूं। इसका पता लगाने के लिए ब्रह्मचारी की कुटी उपयुक्त साधन नहीं है। इसलिए मैं तुम्हारी सहायता गुरु दक्षिणा के रूप में लेना चाहता हूं। संसार के भोग विलास में ही तुम्हारा सही परीक्षण हो सकेगा इसलिए मैं चाहता हूं कि तुम श्वेतांक को सेवक के रूप में स्वीकार करो और याद रखना यह तुम्हारा गुरु भाई भी हो सकता है। बीजगुप्त ने रत्नाम्बर की आज्ञा शिरोधार्य की, रत्नाम्बर चला गया। बीजगुप्त, चित्रलेखा का श्वेतांक से परिचय कराते हुए कहता है ध्यान रखो तुम मेरे सेवक हो और चित्रलेखा मेरी पत्नी के समान है तो यह तुम्हारी स्वामिनी हुई।
केलि-भवन में चित्रलेखा के मादक सौंदर्य को देखकर श्वेतांक की आंखें चौंधियाँ गई। श्वेतांक ने जब बीजगुप्त के कहने पर चित्रलेखा को मदिरा का पात्र थमाया तो उसका हाथ नर्तकी (चित्रलेखा) के हाथ से स्पर्श हो गया जिससे श्वेतांक का पूरा शरीर काँप गया। उसी दिन बीजगुप्त ने श्वेतांक से चित्रलेखा को उसके भवन तक छोड़ आने का आदेश दिया। धीरे-धीरे यह श्वेतांक का रोज का ही कार्य बन गया। दूसरी ओर कुमारगिरि जो कि योगी है। उसका क्षेत्र संयम और नियम है, उसका मानना है कि संयम और नियम से पाप दूर रहता है। फिर भी वह अपने आचार्य रत्नाम्बर के कहने पर विशालदेव को पाप का पता लगाने के लिए शिष्य के रूप में स्वीकार कर लेता है। विशाल देव अपने गुरु कुमारगिरि के बताए गए सिध्दांत, नियम और संयम के साथ तपस्या करने लगता है।
एक दिन सम्राट चंद्रगुप्त के महल में किसी उत्सव का आयोजन होता है, जहां अनेक गणमान्य उपस्थित होते हैं । उसी उत्सव में योगी कुमारगिरी और चित्रलेखा भी उपस्थित निमंत्रित होते हैं। जब नृत्य का आयोजन प्रारंभ होता है तो चित्रलेखा अपना नृत्य प्रस्तुत करती है, जिसका आकर्षक देखकर सब मोहित हो उठते हैं। चित्रलेखा जब नृत्य करना प्रारंभ करती है तो उसकी दृष्टि कुमागिरि की ओर जाती है, वह उन्हें देखकर उनकी ओर आकृष्ट होती है, तभी कुमारगिरि की दृष्टि चित्रलेखा से मिल जाती है।
सम्राट की सभा में महामंत्री चाणक्य द्वारा तर्क-वितर्क होता है। जिसमें कुमारगिरी अपने योग और साधना को समूह के समक्ष सिध्द करते हैं। तभी चित्रलेखा कुमारगिरी के योग और संयम को समूह के समक्ष पलटकर लोगों में उसके प्रति संशय उत्पन्न कर देती है। जिससे कुमारगिरी आहत हो जाता है और चित्रलेखा कुमारगिरी पर पूरी तरह से मोहित हो जाती है। पाटलीपुत्र के एक वयोवृध्द सामंत हैं- आर्यश्रेष्ठ मृत्युंजय। उनकी इकलौती कन्या है- यशोधरा जिसका विवाह वह अपने ही समान महान सामंत बीजगुप्त से करना चाहते थे। बीजगुप्त उस नगर का सुंदर और महान सामंत है । यही जानकर मृत्युंजय ने यशोधरा के साथ उसके विवाह का प्रस्ताव रखा। लेकिन बीजगुप्त चित्रलेखा के प्रेम में पड़े होने के नाते इस प्रस्ताव से इनकार कर दिया। उसने कहा है कि वह केवल एक ही स्त्री से प्रेम करता है वह है चित्रलेखा।
जब यह बात चित्रलेखा को पता चली तो उसने बीजगुप्त का विवाह यशोधरा से करवाने का निश्चय कर लिया और मन ही मन कुमारगिरी के आश्रम जाकर रहने का विचार बना लिया। किंतु इस समय वह बीजगुप्त को त्यागने और स्वयं कुमारगिरि के आश्रम में जाकर रहने के परिणामों से बिलकुल अपरिचित थी। उसने बीजगुप्त से यशोधरा के साथ विवाह की बात की तथा उससे यह भी कहा कि यशोधरा से विवाह करने में ही तुम्हारा भला हो सकेगा और तुम्हारा वंश बढ़ाने के लिए तुम्हे उत्तराधिकार मिल सकेगा। रहा मेरा प्रश्न ? तो मैंने कुमारगिरी के आश्रय में जाने का निर्णय लिया है। बीजगुप्त ने चित्रलेखा से कहा मैं केवल तुमसे प्रेम करता हूं। किसी और की कल्पना और प्रेम मैं नहीं कर सकता। बीजगुप्त की इन बातों को चित्रलेखा ने अनदेखा कर दिया।
चित्रलेखा के कुमारगिरी के आश्रम में जाने के बाद बीजगुप्त पाटलीपुत्र में न रह पाया। उसने मृत्युंजय की पुत्री के साथ विवाह का प्रस्ताव भी ठुकरा दिया। उसे सारी बातें उसे परेशान करने लगीं। उसने मृत्युंजय के भवन जाकर क्षमा मांगने का निर्णय लिया और श्वेतांक से सन्देश भिजवाया। श्वेतांक मृत्युंजय के महल संदेश लेकर पहुंचा तो वहां उनकी पुत्री यशोधरा मिली उस समय उसके पिता महल में अनुपस्थित थे। श्वेतांक की दृष्टि यशोधरा की दृष्टि से मिली। यशोधरा सुंदर और आकर्षक थी। उसे देखकर श्वेतांक उसकी और आकर्षित होने लगा। उसी समय यशोधरा के पिता मृत्युंजय वहां आये। मृत्युंजय ने श्वेतांक से आने का कारण पूछा तो श्वेतांक ने बताया कि बीजगुप्त आपसे क्षमा-याचना चाहते हैं। श्वेतांक ने यह भी बताया कि बीजगुप्त कुछ समय के लिए पाटलीपुत्र से बाहर काशी जा रहे हैं। (क्योंकि बीजगुप्त इन सारी दुविधाओं से निकलकर अपना कुछ समय एकांत में व्यतीत करना चाहते हैं।) यशोधरा ने अपने पिता से कहा- "क्यों ना हम भी काशी भ्रमण के लिए जाएँ।” पिताजी मैंने भी काशी नहीं देखा है। मृत्युंजय ने श्वेतांक से कहा कि बीजगुप्त से कह देना कि हम भी साथ चल रहे हैं। श्वेतांक नही चाहता था कि बीजगुप्त और यशोधरा काशी यात्रा में साथ जाएँ लेकिन अपने सीमाओं के कारण वह कुछ नहीं बोल सका।
काशी में कुछ समय व्यतीत करने के बाद बीजगुप्त यशोधरा की तरफ धीरे- धीरे आकर्षित होने लगा था। लौटने पर उसने यशोधरा से विवाह करने का निर्णय लिया। उसने मन-ही-मन कहा कि चित्रलेखा ने मुझे छोड़ा है मैंने चित्रलेखा को नहीं । जब यह प्रस्ताव वह श्वेतांक द्वारा यशोधरा तक भेजवाना चाहता है तो श्वेतांक उसे बताता है कि यशोधरा से तो वह स्वयं विवाह करना चाहता है। यह जानकर बीजगुप्त क्रोधित होता है और सोचता है कि यशोधरा से विवाह वही करेगा श्वेतांक उसका अधिकारी नहीं है। लेकिन बाद में श्वेतांक के मन की पीड़ा जान कर वह स्वयं उसका प्रस्ताव लेकर मृत्युन्जय के पास जाता है और उसकी तारीफ करते हुए यशोधरा से उसके विवाह का प्रस्ताव रखता है। मृत्युन्जय श्वेतांक के पिता जी के सहपाठी थे। वह उसे अच्छी तरह जानते थे लेकिन निर्धन होने के कारण उन्होंने उससे अपनी बेटी के का विवाह करने से मना कर दिया था। बीजगुप्त की उम्र अभी अधिक नहीं है यदि उसका विचार बदल गया और उसने दूसरी शादी कर ली तो उसका खुद का पुत्र ही उसका उत्तराधिकारी बनेगा। यह पता चलते ही बीजगुप्तने अपनी सारी संपत्ति और और अपने पद श्वेतांक को दान देने की बात कह दीया। फिर, बड़े धूम- धाम से श्वेतांक और यशोधरा का विवाह संपन्न हो गया।
इधर कुमारगिरि चित्रलेखा पर पूर्ण रुप से मोहित हो जाता है। वासना की आग में धधकता उसका मन ध्यानस्थ हो ही नहीं पाता। वह चित्रलेखा के शरीर को भोगना चाहता है। चित्रलेखा उसकी भावनाओं को अच्छी तरह समझने लगती है। कुमारगिरि का योग उसे पूर्णतः आडम्बर लगने लगता है। वह इस आडम्बरी दुनिया से अब निकलना चाहती है। चित्रलेखा पुनः बीजगुप्त के पास जाना चाहती है। यह जानकर कुमारगिरि विचलित हो उठता है और चित्रलेखा से झूठ बोलता है कि अब तो बीजगुप्त का विवाह यशोधरा से हो गया। तुम वहां जाओगी तो बीजगुप्त तुम्हें वहां से निकाल देगा।
यह सब सुनकर चित्रलेखा आहत हो जाती है। कुमारगिरि उससे कहता है कि मैं तुमसे प्रेम करता हूं और तुम मेरे लिए ही तो यहां आई हो। चित्रलेखा और कुमारगिरी दोनों वासना में लीन हो जाते हैं और कुमारगिरी का संयम-नियम टूट जाता है। चित्रलेखा के मन में बीजगुप्त और यशोधरा के विवाह की बात पर विश्वास नही होता। इस सच्चाई का पता लगाने के लिए वह विशालदेव को विश्वास में लेकर उसे बीजगुप्त के घर भेजती है। जहाँ श्वेतांक उसे मिलता है और यशोधरा से अपने प्रेम की बात बताता है। उसे यह भी पता चलता है कि बीजगुप्त का प्रेम अब भी चित्रलेखा के लिए जीवित है। विशालदेव से यह जानकारी मिलते ही कुमार गिरि के प्रति उसका क्रोध भड़क उठता है और उसे धिक्कारती हुई वहाँ से निकल जाती है लेकिन बीजगुप्त के पास जाने का साहस उसे नही हो पाता है। व्यथित चित्रलेखा कुमारगिरि का आश्रम छोड़ कर अपने घर चली आती है और संयमित जीवन जीने लगती है। श्वेतांक अपने विवाह के प्रीति भोज में शामिल होने के लिए जब उसे निमंत्रण देने आता है तो उसे बीजगुप्त, यशोधरा और श्वेतांक के विवाह तथा बीजगुप्त के भिखारी के रूप में निकल जाने आदि सभी बातों का पता चलता है। उस समय वह श्वेतांक को शुभकामनायें तो देती है लेकिन प्रीतिभोज में शामिल नहीं होती है बल्कि, रात्रि में बीजगुप्त से मिलने जाती है। उस समय आधी रात बीत चुकी है। बीजगुप्त राजा से आज्ञा लेकर एक भिखारी के रूप में देश पर्यटन के लिए निकल चुका है। चित्रलेखा उससे रास्ते में मिलती है और अपने भवन पर चलने के लिए निवेदन करती है। इस समय बीजगुप्त उससे कहता है- “चलो चित्रलेखा, संसार में एक तुम्हारी ही बात मैं नहीं टाल सकता। मुझे जितना गिराना चाहो, गिराओ; पर यह वचन दे दो कि तुम मुझे कल नहीं रोकोगी।” भवन जाने पर बीजगुप्त को सभी बातें चित्रलेखा बताती है। अपना दुख बताते हुए वह बीजगुप्त से कहती है कि 'मैं कुमारगिरि की वासना का साधन बन चुकी थी इसलिए तुम्हारे पास आना नहीं चाहती थी।' मुझे क्षमा कर दो। बीजगुप्त हँस पड़ता है वह चित्रलेखा से कहता है- “चित्रलेखा ! तुमने बहुत बड़ी भूल की। तुमने मुझे समझने में भ्रम किया। तुम मुझसे क्षमा मांगती हो ? चित्रलेखा ! प्रेम स्वयं एक त्याग है, विस्मृति है, तन्मयता है। प्रेम के प्रांगण में कोई अपराध ही नहीं होता, फिर क्षमा कैसी! फिर भी यदि तुम कहलाना ही चाहती हो तो मैं कहे देता हूँ।” मैं तुम्हें क्षमा करता हूं।" बीजगुप्त पुनः जब अपनी यात्रा पर जाने की बात कहता है तो चित्रलेखा अपने धन के साथ रहने का प्रस्ताव रखती है लेकिन बीजगुप्त अब वैभवपूर्ण जीवन न जीने की बात कहता है । फिर, चित्रलेखा भी अपनी सारी धनराशि दान में दे देती है और दोनों भिखारी बन कर निकल पड़ते हैं। इस समय दोनों के चेहरे अत्यंत प्रसन्न हैं।
एक वर्ष बीत जाने के बाद जब रत्नाम्बर श्वेतांक से पूछता है कि बताओ- कुमारगिरी और बीजगुप्त में पापी कौन है? तो, श्वेतांक कहता है कि बीजगुप्त त्याग की प्रतिमूर्ति हैं और देवता हैं, उनका हृदय विशाल है कि जबकि कुमारगिरि पशु है। वह अपने लिए जीवित है, संसार में उसका जीवन व्यर्थ है। वह जीवन के नियमों के प्रतिकूल चल रहा है। अपने सुख के लिए उसने संसार की बाधाओं से मुंह मोड़ लिया है। कुमारगिरि पापी है।
रत्नाम्बर यही प्रश्न विशालदेव से पूछता है - तुमने तो योग की दीक्षा भी ले ली है। तुम योगी हो गए हो। अब तुम तो बतलाओ कि कुमारगिरि और बीजगुप्त में से पापी कौन है?
विशालदेव कहता है- महाप्रभु कुमारगिरि अजित हैं। उन्होंने ममत्व को वशीभूत कर लिया है। उनकी साधना, उनका ज्ञान और उनकी शक्ति पूर्ण है। और बीजगुप्त वासना का दास है। उसका जीवन संसार के घृणित भोग-विलास में है। वह पापी है- पापमय संसार का वह मुख्य भाग है।
रत्नाम्बर विभिन्न परिस्थितियों में रह रहे अपने दोनों शिष्यों से कहता है कि- “संसार में पाप कुछ भी नहीं है, वह केवल मनुष्य के दृष्टिकोण की विषमता का दूसरा नाम है। प्रत्येक व्यक्ति एक विशेष प्रकार की मनः प्रवृत्ति लेकर उत्पन्न होता है- प्रत्येक व्यक्ति इस संसार के रंगमंच पर एक प्रवृत्ति अभिनय करने आता है। अपनी मनः से प्रेरित होकर अपने पाठ को दुहराता है- यही मनुष्य का जीवन है। जो कुछ मनुष्य करता है वह उसके स्वभाव के अनुकूल होता है और स्वभाव प्राकृतिक है। अपना स्वामी नहीं, वह परिस्थितियों का दास है- विवश है। कर्ता नहीं है, वह केवल साधन है। फिर पुण्य और पाप कैसा ?”
अंत में उन्हें समझाते हुए रत्नाम्बर कहता है कि- “संसार में इसीलिये पाप की परिभाषा नहीं हो सकी और न हो सकती है। हम न पाप करते हैं और न पुण्य करते हैं, हम केवल वह करते हैं जो हमें करना पड़ता।” अंत में उठते हुए उन्हीने कहा कि यह मेरा मत है, आपका मानना या न मानना आपके ऊपर निर्भर है। और दोनों शिष्यों को आशीर्वाद देते हुए वहाँ से चला जाता है।
निष्कर्ष : वास्तव में चित्रलेखा की कथावस्तु उसे करती है और उसकी अभिव्यक्ति में कवित्व झलकता है। यहाँ हम कर्म और भोग को समानांतर रूप में देख सकते हैं। इस रचना में लेखक एक तरफ कर्म पर जोर देता है तो दूसरी तरफ भोग के प्रति भी आश्वस्त दिखाई देता है।
भगवतीचरण वर्मा द्वारा लिखित उपन्यास 'चित्रलेखा' पाप और पुण्य के प्रश्न पर आधारित है। यह मानव जीवन की अच्छाइयों और बुराइयों को देखने के निजी दृष्टिकोण पर आधारित है। जहां चित्रलेखा, बीजगुप्त, कुमारगिरि और श्वेतांक एवं यशोधरा आदि अन्य पात्रों के माध्यम से लेखक यह संकेत करना चाहता है कि व्यक्ति पूर्णरूपेण परिस्थितियों का दास होता है । वह प्राकृतिक नियमों से दूर जाकर शांत नहीं रह सकता।
कहीं न कहीं सामान्य जीवन की धारा उसके मन में भी प्रवाहित होती रहती है। उसे छिपाने की कोई लाख कोशिशें कर ले, कहीं न कहीं वह ऊपर आती ही हैं। इसलिए संस्कारों के आडम्बरों की चादर के नीचे जीवन के यथार्थ को बहुत देर छिपाया नहीं जा सकता है। इसलिए उपन्यास के अंत में रत्नाम्बर कहता है कि- “संसार में पाप कुछ भी नहीं है, यह केवल मनुष्य के दृष्टिकोण का दूसरा नाम है। मनुष्य में ममत्व प्रधान है। प्रत्येक मनुष्य सुख चाहता है।केवल व्यक्तियों के सुख के केंद्र भिन्न-भिन्न हिते हैं। कुछ सुख को धन में देखते हैं, कुछ सुख को मदिरा में देखते हैं, कुछ सुख को व्यभिचार में देखते हैं, कुछ त्याग में देखते हैं- पर सुख प्रत्येक व्यक्ति चाहता है! कोई भी व्यक्ति संसार में अपनी इच्छा अनुसार वह काम न करेगा, जिसमें दुःख मिले-यही मनुष्य की मनः प्रवृत्ति है और उसके दृष्टिकोण की विषमता है।”
उपन्यासकार यह भी बताना चाहते हैं कि ऐसा नहीं कि मनुष्य जैसा दिखता है अंदर से उसका स्वभाव भी वैसा ही हो। कई बार ऐसा भी होता है कि हमारी भावनाएं कुछ और होती हैं और हम प्रदर्शन किसी और का करते हैं। यहाँ कुमार गिरि का चरित्र इसी बात की ओर संकेत करता है कि ऐसा नहीं है कि योगी के हृदय में प्रेम भावना उत्पन्न ना हो या फिर भोग-विलास में लीन रहने वाला मनुष्य योगी नहीं बन सकता। लेखक यहाँ प्रेम और वासना में भेद स्पष्ट करते हुए यह बताना चाहते हैं कि प्रेम और वासना में भेद है। जहाँ वासना पागलपन है, यह क्षणभर के लिए होती है और इसलिए पागलपन के साथ ही दूर हो जाती है, लेकिन प्रेम गंभीर है। उसका अस्तित्व शीघ्र नहीं मिटता । वह अनेकानेक झंझावातों के बाद भी स्थाई बना रहता है। सब कुछ समाप्त हो जाने के बाद भी चित्रलेखा का बीजगुप्त के प्रति प्रेम अथवा बीजगुप्त द्वारा सबकुछ त्याग देने और चित्रलेखा की सभी बातों को जान-समझ कर भी उसे स्वीकार कर लेने की घटनाएं लेखक के उक्त विचारों का ही समर्थ करती हैं। सामान्य रूप से यह देखने में आता है कि मानव निरुपाय सा परिस्थितियों के साथ उठता-गिरता रहता है या कई बार संस्कारिता का दंभ भरनेवाला व्यक्ति भी जीवन की सच्चाइयों के साथ बहता दिखाई देता है। मानव जीवन के इसी भावात्मक पक्ष को लेखक ने बड़ी बारीकी से उकेरने का कार्य इस उपन्यास में किया है। संस्कारों के आडम्बरों में जकड़ी हुई मानवीय भावनाओं को एक नवीन दृष्टि से देखने का कार्य वर्मा जी ने यहाँ किया है।
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