रोज़ कहानी की मूल संवेदना - Roj Kahani ki Mool Samvedna: रोज़ अज्ञेय की सर्वाधिक चर्चित कहानी है क्योंकि इसमें संबंधों की वास्तविकता का एकांत वैयक्तिक
रोज़ कहानी की मूल संवेदना - Roj Kahani ki Mool Samvedna
रोज़ कहानी की मूल संवेदना - रोज़ अज्ञेय की सर्वाधिक चर्चित कहानी है क्योंकि इसमें संबंधों की वास्तविकता का एकांत वैयक्तिक से अलग ले जाकर सामाजिक संदर्भ में देखा है। मध्यवर्ग के पारिवारिक एकरसता को जितनी मार्मिकता से यह कहानी व्यक्त कर सकी है वह उस युग की कहानियों में विरल है। कहानी का पूरा परिवेश और उस परिवेश को व्यक्त करने वाले सभी मध्यमवर्ग परिवार को एकरसता और 'बोरड़म की बड़ी जटिल सूक्ष्मता से व्यक्त करते हैं। मालती यहां रहती है, वहां एक गांव में सरकारी डिस्पेंसरी का कवार्टर है। इसमें तीन प्राणी रहते हैं और उनका बच्चा - जिसे टीटी के नाम से पुकारा जाता है। इनका जीवन निर्दिष्ट ढर्रे पर चलता है। यह जीवन ढर्रा सकारात्मक उत्साही जीवन पद्धति का सूचक नहीं है, बल्कि 'एकरस', 'उबाऊ', 'यात्रिक दिनचर्या' का पर्याय है।
यहां की डिस्पेंसरी में गैंग्रीन के मरीज आते है। "यही गैंग्रीन का हर दूसरे चौथे दिन एक केस आ जाता है।" कांटा चुभने से यह बीमारी होती है, मवाद पड़ता है और लापरवाही के रूप में यह भयानक रूप धारण कर लेती है। नतीजा रोगी की टाँग काटनी पड़ती है। डॉ० महेश्वर को रोज ऐसे ही मरीजों का साक्षात्कार करना पड़ता है।
'मालती' और 'टीटी' इस घर के स्थायी प्राणी हैं, ये घर से बाहर नहीं निकलते। निष्क्रिय प्रस्तर दीवारों की तरह मालती का जीवन ढर्रेदार यांत्रिकता युक्त व्यस्तता का परिचायक है। उसके प्रत्येक क्रियाकलाप में एक ठंडी उदासीनता और उत्साहविहीन यांत्रिकता परिलक्षित होती है। लेखक मालती के जीवन यांत्रिकता के माध्यम से आधुनिक समाज में व्यक्तियों में व्याप्त यांत्रिकता को बताना चाहता है।
मालती पति के साथ पहाड़ी गांव में आ गई है। पहाडी गांव में जीवन बड़ा जटिल है। यहां सब्जियां आसानी से नहीं मिलती, 'पंद्रह दिन हुए हैं, जो सब्जी साथ लाए थे, वही अभी बरती जा रही है। घर में नौकर की नियमित व्यवस्था नहीं। बर्तन भी खुद मांजने पड़ते हैं और पानी भी कभी वक्त पर आता नहीं। मालती का पति उसके साथ घर के काम में मदद भी नहीं करता है। चाहे मालती रात के 11 बजे या 12 बजे तक काम करती रहे। उसे बस समय पर चाय-भोजन चाहिए।
कहानी वाचक मालती के घर आता है, उसकी स्थिति देखकर परेशान होता है। घर में किताबें नहीं, अखबार भी नहीं है। वाचक देखता है जिस कागज में बांधकर कल आम आए थे, मालती उस कागज़ को बड़े गौर से पढ़ रही है। ये मालती आज पढ़ने के लिए कागज़ के एक टुकड़े के लिए तरस गई है। लेकिन जब उसके पढ़ाई के दिन थे, तब वह पढ़ती नहीं थी, उसके माता - पिता उससे तंग थे। वही उद्धत मालती आज कितनी दीन और शांत हो गई है।
मालती रोज़ वही अपने पति से मरीजों की कहानी सुनती है। मालती बिलकुल अनैच्छिक, अनुभूतिहीन, नीरस यंत्रवत और पानी के नल की टिपटिप पर उसके दिल की धड़कन चलती है। कहानी का नाम रोज़ बड़ा ही सार्थक है। महेश्वर रोज ही एक की तरह का इलाज - आपॅरेशन करते हैं, रोज वही बखान, वही मानसिक दबाव। रोज-रोज एकरस जीवन जीने से मालती यंत्र बन गई है। वह अपनी विषमताओं से और समस्याओं से कुंठित हो गई है। उसका सारा परिवेश और बाह्य क्रियाकलाप उसके अंतर्मन को गहनता से प्रभावित करके उसे तोड़ चुका है। किन्तु इस कहानी में कुंठित अहं जितना उभरता है उतनी ही मध्यम वर्ग की स्त्री की घुटन और पीड़ा भी प्रकट होती है। यह मालती एक व्यक्ति न होकर वर्ग दिखाई देने लगती है।
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