कफन कहानी कला की विशेषताएं - प्रेमचन्द की कहानी - कला का लक्ष्य सामाजिक यथार्थवाद है। मानसरोवर की भूमिका प्रोमचन्द ने लिखा है, "वर्तमान आख्यायिका मनोव
कफन कहानी की विशेषताएं
प्रेमचन्द की कहानी "कफन" उनके उत्कर्ष काल की कहानी के संबंध में राजेन्द्र यादव ने कहा है- "यह कहानी शिल्प और वस्तु के स्तर पर प्रेमचन्द की कहानी कला का चरम विकास प्रस्तुत करती है। "कफन' कहानी को आधार बनाकर देखा जाये तो प्रेमचन्द की कहानी - कला की निम्नलिखित विशेषताएं दिखायी देती हैं-
सामाजिक यथार्थवादी कलाकार : प्रेमचन्द की कहानी - कला का लक्ष्य सामाजिक यथार्थवाद है। मानसरोवर की भूमिका प्रोमचन्द ने लिखा है, "वर्तमान आख्यायिका मनोवैज्ञानिक विश्लेषण और जीवन के यथार्थ स्वाभाविक चित्रण को अपना ध्येय समझती हैं। "कफन " कहानी में भी उन्होंने यथार्थ चित्रण की ओर विशेष बल दिया है। श्री राजेन्द्र यादव ने भी लिखा है, "अन्त की ओर उनके दृष्टिकोण में उल्लेखनीय परिवर्तन है और वह समाज के विभिन्न तबकों या वेशों के टाइप पात्र लेने की अपेक्षा वर्ग संघर्ष और मार्क्सीय दृष्टि से पात्रों का चुनाव करते हैं। यथार्थवादी कहानियों में हल देने का कोई आग्रह नहीं है !” प्रेमचन्द " कफन' में घीसू और माधव के मन की कुप्रकृतियों का चित्रण करते हैं। किन्तु इसमें उनका आक्रोश कुव्यवस्था और वर्ग विषमता की ओर अधिक है। इसलिए प्रेमचन्द लिखते हैं कि जिस समाज में रात-दिन मेहनत करने वालों की हालत उनकी हालत से कुछबहुत अच्छी न थी किसानों के मुकाबले में वे लोग जो किसानों की दुर्बलताओं से लाभ उठाना और जानते थे, कहीं ज्यादा सम्पन्न थे, वहां इस तरह की मनोवृत्ति पैदा हो जाना कोई अचरज की बात नहीं थी। हम तो कहेंगे घीसू किसानों से कहीं ज्यादा विचारवान था और किसानों के विचारशून्य समूह में शामिल होने के बदले बैठकबाजों की कुत्सित मण्डली में जा मिला था।
प्रेमचन्द यथार्थवादी कलाकार हैं और "कफन" में यह यथार्थवाद जाकर अभिव्यक्त हुआ है । जब जमीन चली जाती है तो किसान मजदूर बन जाता. है और जब मजदूरी के मिलने में भी अनिश्चय रहता है तो वह उपजीवी बन जाता है। घीसू और माधव इसी अनिश्चय की आशंका से अकर्मण्य हो गये. हैं । " कफन " कहानी, यदि देखा जाये तो बुधिया के कफन की कहानी न होकर मानवीयता और मृत नैतिक बोध की कहानी है । अतः घीसू और माधव की अकर्मण्यता व्यक्तिपरक न होकर समाजपरक है, जहां आजीविका की अनिश्चि- ता है।
सामाजिक व्यवस्था के प्रति प्रेमचन्द का विद्रोह भी निम्न पंक्तियों में स्पष्ट रूप से व्यक्त हुआ है--
"घीसू खड़ा हो गया और जैसे उल्लास की लहरों में तैरता हुआ बोला- "हां बेटा, बैकुण्ठ में जायेगी । किसी को सताया नहीं, किसी को दबाया नहीं, मरते-मरते हमारी जिंन्दगी की सबसे बड़ी लालसा पूरी कर गयी। वह न बैकुण्ठ में जायेगी तो क्या ये मोटे-मोटे लोग जायेंगे जो गरीबों को दोनों हाथों से लूटते हैं और पाप को धोने के लिए गंगा में नहाते हैं और मन्दिरों में जल चढ़ाते है।"
मनोवैज्ञानिक विश्लेषण :- प्रेमचन्द की कहानी "कफन " का आधार मनोवैज्ञानिक है इसमें घीसू और माधव के अकर्मण्य मन की गुत्थियों और उनकी भावनाओं का सजीव चित्रण किया गया है । " मानसरोवर " की भूमिका में भी प्रेमचन्द इस मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि को अंकित करते हुए लिखते हैं- " गल्प का आधार घटना नहीं, मनोवैज्ञानिक अनुभूति है । आज लेखक कोई रोचक दृश्य देखकर कहानी लिखने नहीं बैठता, उसका उद्देश्य स्थूल सौन्दर्य नहीं, वह तो ऐसी कोई प्रेरणा चाहता है, जिसमें सौन्दर्य की झलक हो और जिसके द्वारा वह पाठक की सुन्दर भावनाओं को स्पष्ट कर सके ।"
"कफन " कहानी का मनोवैज्ञानिक आधार यह अनुभूति है कि आधुनिक आर्थिक व्यवस्था में सर्वहारावर्ग कितना पतित हो सकता है । घीसू और माधव दोनों ही सदा के भूखे हैं, मेहनत करने पर भी उन्हें भरपेट रोटी नहीं मिलती, दूसरों को भी परिश्रम करके भूखे मरते देखते हैं, इससे उनमें अकर्मण्यता आती है, पर साथ ही पेट भोजन और जीभ स्वादिष्ट व्यंजन मांगती है, इसीलिये वे कफन के लिए चन्दा करके एकत्र रुपयों से पहले अपना पेट भरते हैं । तरह-तरह के स्वादिष्ट व्यंजन और शराबें पीते खाते हैं । यही नहीं, अपने कृत्य की उपयुक्तता भी सिद्ध करते हैं ।
कैसा बुरा रिवाज है कि जिसे जीते जी तन ढंकने को चिथड़ा भी न मिले उसे मरने पर नया कफन चाहिये ।"
"जब कि कफन लाश के साथ ही जल जाता है ।"
मानवीय दुर्बलताओं का चित्रण : उनके यथार्थवादी दृष्टिकोण का परिचय, इससे भी लगता है कि उन्होंने सामाजिक विषमता के साथ-साथ मानव मन की दुर्बलताओं का भी कुशलतापूर्वक चित्रण किया है । उनके चरित्र प्रतीकं न होकर यथार्थ जीवन में पाये जाने वाले चरित्र हैं - वे सच्चे चरित्र हैं, इसीलिये उनकी दुर्बलताएँ ओर कुण्ठाएँ भी सहज रूप में चित्रित हुई है। भूख मानव के उचिनानुचित के विवेक पर परदा डाल देती है। घीसू और माधव भी भूखे पात्र हैं, अतः उनके चरित्र की दुर्बलताएं उनमें बाप-बेटे में भी शक दिखाती है-
घीसू ने आलू निकालकर छीलते हुए कहा - " जाकर देख तो क्या दशा है उसकी ? चुड़ैल का फसाद होगा, और क्या ? यहां तो ओझा भी एक रुपया मांगता है ।"
माधव को भय था कि वह कोठरी में गया तो घीसू आलुओं का एक बड़ा भाग साफ कर देगा । वोला, “मुझें वहां जाते डर लगता है ।"
व्यापक जीवन का समावेश - डॉ० छविलाल त्रिपाठी ने इनके सम्बन्ध में लिखा है, ' मध्यवर्गीय जनता का चित्रण और घरेलू जीवन में मनोविज्ञान की स्थापना सर्वप्रथम प्रेमचन्द ने की। भारत गांवों में है। वहां के निवासी किसान, जमींदार, महाजन, पुलिस और पटवारी आदि सबको उन्होंने अपनी कहानियों का पात्र बनाया है ।"
"कफन" कहानी का सम्बन्ध भी ग्रामीण जीवन से है और इसमें दलितों के रहन-सहन पर विचार किया गया है, पर साथ ही ग्राम के अन्य मेहनतकश निवासियों - किसानों की भी दशा का इसमें परिचय मिलता है :
साथ ही ग्रामवासियों की प्रवृत्ति और उनकी सहृदयता व दयालुता का भी इसमें चित्रण है। यदि किसी से घृणा भी है पर वह यदि मांगने के लिये द्वार पर आ जाता है, तो देना कर्तव्य समझकर वे कुछ-न-कुछ दे ही देते हैं ।
समग्रतः प्रेमचन्द आदर्शोन्मुख सुधारवादी यथार्थवादी कहानीकार हैं, पर " कफन' में उन्होंने कोई सुधारवादी दृष्टिकोण न देकर आर्थिक विषमता से उत्पन्न विद्रोह की भावना का निर्बल रूप प्रस्तुत किया है जो मानव मन की दुर्बलताओं को भी सहज आभासित कर देता है ।
COMMENTS