पौराणिक कथा : पौराणिक कथाओं के दो रूप होते हैं - (1) अंतरंग, ( 2 ) बहिरंग किसी जनजाति की कथाओं को सभी व्यक्ति जानते हैं। यह कथा का बहिरंग वर्ग कहलाता
पौराणिक कथा किसे कहते हैं ? पौराणिक कथा की विशेषता बताइये।
पौराणिक कथा : पौराणिक कथाओं के दो रूप होते हैं - (1) अंतरंग, ( 2 ) बहिरंग किसी जनजाति की कथाओं को सभी व्यक्ति जानते हैं। यह कथा का बहिरंग वर्ग कहलाता है। कथा का एक रूप ऐसा भी है जिसमें कथा का वास्तविक रहस्य होता है, यह अंतरंग वर्ग कहलाता है। कथा के आंतरिक रहस्य को जानने वाला वर्ग पुरोहित है। यह अपना समय विधि-विधानों तथा कथाओं को जानने में लगाता है। यही वर्ग इन विधि-विधानों के पीछे एक दैवी घटना को जोड़ता है, जिससे जनजाति की उनमें दृढ़ आस्था हो जाती है। जनता तो कथा के केवल बहिरंग रूप को ही जानती है। अंतरंग कथाओं के कथानक विधि-विधानों की पुष्टि करते हैं। इस रहस्य को साधारण जनता नहीं जानती। पुरोहित इस रहस्य को अपने उचित पात्र 'शिष्य' पर प्रकट करते हैं। यहीं पर गुरू की महत्ता प्रतिपादित होती है।
लोकवार्ता क्षेत्र में पौराणिक कथा का अत्यंत महत्व है। कुछ विद्वान इनमें लोकवार्ता तत्व नहीं मानते। डॉ. सत्येंद्र ने इस संबंध में अपने विचार प्रकट किये हैं- "कुछ विद्वानों ने धर्मगाथा को लोकवार्ताभिव्यक्ति नहीं माना। कुछ का कहना तो यह है कि धर्मगाथा का पूर्व में रूप कुछ भी रहा हो, हमारे समक्ष तो वह महान कवियों की रचना के रूप में आती है। इन विद्वानों का संकेत ईलियड तथा महाभारत जैसी रचनाओं की ओर रहता है। कुछ का विचार है कि लोकवार्ता तत्व का संबंध आदिम मानव के वर्तमान अवशेषों से होता है, किंतु धर्मगाथा तो अतीत काल से संबंध रखती है। यह भी कहा जाता है कि धर्मगाथा में आदिम मानस की अभिव्यक्ति नहीं, क्योंकि आदिम मानस का विकास कुछ निम्न क्रम से हुआ है -
1. मन - इस शब्द का प्रयोग एक रहस्यात्मक शक्ति के अर्थ में मेलेनेशियन द्वीप समूह में होता है। यह वस्तुतः आत्मा अथवा आत्मशक्ति का भी मूल सार है। कुछ विद्वान इस क्रम - विकास से सहमत नहीं। वे आत्मवतवाद याऐनिमेटिज्म से ही लोकमानस का मूल मानते हैं।
2. परा - प्रकृतिवाद - प्राकृतिक पदार्थो के श्रद्धाभयोद्रे की व्यापारों में किसी शक्ति की उद्भावना ।
3. आत्मवतवाद - आत्मवत सर्वभूतेषु मेरे जैसी बुद्धि, शक्ति, विवेक पशु-पक्षियों तथा पदार्थों में है।
4. पदार्थात्मवाद - समस्त पदार्थों में आत्मा है।
5. देववाद - देवताओं की कल्पना ।
इन विद्वानों के विचार से इस पांचवीं स्थिति पर पहुंचने पर ही धर्मगाथाओं का उदय हुआ। अतः यह मूल लोकमानस से संबद्ध नहीं ।
डॉ. सत्येंद्र उक्त मत से सहमत नहीं हैं। वे धर्मगाथा में लोकवार्ताभिव्यक्ति मानते हैं। वे धर्मगाथा को महाकाव्य से पूर्वजन्मा मानते हैं। उसी पूर्व रूप के कारण ही वे धर्मगाथाएं हैं। उनका कथन है कि धर्मागाथाओं का संबंध उतना ही वर्तमान में है जितना लोकवार्ता के आदिम अवशेषों का वर्तमान से है। उनका तर्क है कि "यदि धर्मगाथा का अतीत से संबंध है तो लोकवार्ता के आदिम अवशेषों को क्या बिना अतीत से संबंधित किये आदिम अवशेष माना जा सकता है।" तीसरा मतभेद उनका यह है कि आदिम मानस के विकास क्रम में पांचवीं स्थिति में पहुंचने पर धर्मगाथाओं के उदय की स्थिति मानी गई है। यहां मानस की सत्ता मिट चुकी थी? देववाद क्या लोकमानस की ही उद्भावना नहीं ? यह भी स्पष्ट हो गया है कि लोकवार्ता का मूल लोकमानस से संबंध अनिवार्य नहीं। लोकमानस की जो दाय रूप में स्थिति है, उसकी अभिव्यक्ति भी लोकवार्ता का एक तत्व है। धर्मागाथाओं के विन्यास में लोकमानस व्याप्त हैं ।
फ्रेजर का भी यही मत था कि लोकवार्ता का मूल - मानस मैजिक (जादू-टोना) भाव का परिणाम है। डॉ. सत्येंद्र भी इसी मत से प्रभावित हैं। अतः धर्मगाथाओं को लोकसाहित्य का अंग माना जाएगा। उसका अध्ययन भी लोकगाथा, लोकगीत और लोकनाट्य के समान आवश्यक है। अंतर केवल इतना ही है कि विकास की विविध अवस्थाओं में से गुजरती हुई ये गाथाएं धार्मिक अभिप्रायों से अधिक संबद्ध हो गई हैं।
पौराणिक कथा की विशेषता
- मानवीकरण,
- स्पष्टीकरण,
- प्रतिनिधिकरण,
- प्राचीनता अथवा पौराणिक काल,
- दार्शनिक आधार,
- विधि-विधानों का आधार
1. मानवीकरण - प्राकृतिक उपकरणों में मानवीय भावनाओं तथा क्रियाओं का आरोप मानवीकरण कहलाता है। पौराणिक कथाओं में वर्णित सूर्य, चंद्रमा, पशु, पक्षी आदि मानव के समान ही व्यवहार करते हुए दिखाए गए हैं। जब आदि मानव ने देखा कि इन पशु-पक्षियों में भी मानव से अधिक शक्ति है और उसी की तरह वे क्रियाएं करते हैं तो वह उनमें दैवी शक्ति की संभावना कर उन शक्तियों से आतंकित होने लगा। तब उसे विश्वास हुआ कि इन प्रकृति के तत्वों में भी असीम शक्ति है। वे भी मानव की तरह क्रोध-प्रेम, द्वेष - घृणा करते हैं। यही मांनवीकरण कहा जाता है।
2. स्पष्टीकरण - प्राकृतिक तत्वों की शक्ति को स्पष्ट करने के लिए पौराणिक कथाओं का जन्म हुआ। इस रहस्यमय जगत के रहस्य को समझने के लिए वह उत्सुक हुआ। वह सृष्टि की उत्पत्ति, रचना और विकास का स्पष्टीकरण जानने का प्रयत्न करने लगा। उसने देखा कि गिलहरी की पीठ पर तीन रेखाएं हैं - क्यों? सूरज, बादल आदि मानव की तरह क्रिया करते हैं। बादल क्रोध से गरजते हैं – क्यों ? इनका रहस्य स्पष्ट करने का यह प्रयत्न करता है। इस रहस्य का स्पष्टीकरण वह इन शक्तियों के मानवीकरण से करता है। इस प्रकार के स्पष्टीकरण के लिए की गई कथानक की रचना पौराणिक कथा कहलाती है।
3. प्रतिनिधिकरण - पौराणिक कथाओं में वर्णित घटनाएं अपने वर्ग के प्रतिनिधि के रूप में प्रस्तुत होती हैं। जब वहां पर किसी लोमड़ी अथवा बंदर का वर्णन आता है तो वह संसार की किसी घटना का वर्णन है। यह लोमड़ी और बंदर अपने वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं। यह प्रतिनिधिकरण भी सांसारिक घटनाओं का स्पष्टीकरण ही है। एक बार आदिकाल में कुत्ता और बिल्ली आपस में लड़ पड़े आदिकाल में उनका लड़ना ही सदैव के लिए उनके द्वेष का कारण मान लिया गया और उस द्वेष की यही कहानी बन गई। आदम और हव्वा ने एक बार पाप किया और फिर वही पाप आगे भी चलता गया। आख्यानों की इसी विचारधारा का आधार प्रतिनिधिकरण है।
4. प्राचीनता अथवा पौराणिक काल - पौराणिक कथाएं प्राचीन काल से प्रचलित हैं। इनका निर्माण कब हुआ ? और किसने किया ? इस संबंध में कुछ भी नहीं कहा जा सकता। यह जनजातियों में प्राचीन काल से ही मौखिक परंपरा में प्रचलित हैं। यह माना जाता है कि इन कथाओं में आने वाले व्यक्ति पौराणिक पात्र की भांति ही कार्य करते हैं। वे सृष्टि रचना से पहले भी विद्यमान थे। ये पौराणिक पात्र ही सृष्टि की रचना करते हैं। ये पात्र काल्पनिक और यथार्थ- दोनों प्रकार के होते हैं। लेकिन यह कहना नितांत असंभव है कि इनमें कौन-सा पात्र काल्पनिक है और कौनसा यथार्थ ।
5. दार्शनिक आधार - पौराणिक कथाएं मनुष्य की काल्पनिक रचना नहीं है, बल्कि इसमें सृष्टि की उत्पत्ति, रचना, विधि-विधानों पर आदिम मानव ने गहन और दार्शनिक दृष्टिकोण से विचार किया था, जो पौराणिक कथाओं का आधार है। इतना अवश्य है कि इन कथाओं में आने वाले सूर्य, पशु-पक्षी, बादल आदि पात्रों के मानवीकरण के कारण कथाएं काल्पनिक-सी लगती हैं। यह दार्शनिक दृष्टिकोण इस प्रकार कार्य करता है कि एक मनुष्य दूसरे से लड़ता है, अतः यह क्रिया प्राकृतिक उपकरणों पर भी आरोपित की गई। सूर्य और बादल आपस में लड़ते हैं। जब सूर्य अपने तीक्ष्ण वाणों से बादलों को बेधता है तब वर्षा होती है। यही दार्शनिक विचार इंद्र और वृत के युद्ध का आधार है। परंतु इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं कि इसमें कल्पना का कोई स्थान नहीं। प्रारंभ में मानवीकरण के लिए कल्पना का ही आश्रय लिया जाता है। सूर्य-चंद्र को मानव के समान क्रिया करते हुए दिखाना कल्पना का ही कार्य है। अतः इन कथाओं की रचना में दर्शन के साथ-साथ कल्पना का भी पुट है।
6. विधि-विधानों का आधार - भारतीय समाज में विधि-विधान प्राचीन काल से चले आ रहे हैं। विद्वानों का कथन है कि इन्हीं का कारण जानने के लिए पौराणिक कथाओं की उत्पत्ति हुई । विधि-विधानों में विधि और निषेध, दो बातें होती हैं। विधि का अर्थ है- यह करना है तथा निषेध का अर्थ है - यह नहीं करना है । इन विधि - निषेधों का संबंध जब पौराणिक कथा से जोड़ा जाता है तो मानव यह समझता है कि उसने मूल कारण का पता लगा लिया। परंतु आदिकालीन मानव इस कारण की खोज में अधिक दूर तक नहीं जाना चाहता । उदाहरणार्थ - होली का त्योहार क्यों मनाया जाता है ? इस पर कथा की रचना इस प्रकार हुई। एक बार शिवजी तपस्या में ऐसे मग्न हुए कि पार्वती को भूल गए। पार्वती ने कामदेव से शिवजी की तपस्या भंग करने के लिए प्रार्थना की। शिवजी के पास जाकर कामदेव ने अपने बाण छोड़े। शिवजी ने कुद्ध होकर अपना तीसरा नेत्र खोला और कामदेव को भस्म कर दिया। कामदेव को भस्म हुआ देखकर उसकी पत्नी रति विलाप करती हुई शिवजी के पास आई। शिवजी ने रति पर प्रसन्न होकर कामदेव को वर दिया कि तुम बिना शरीर के लोगों के मन में रहोगे। इसलिए कामदेव का दूसरा नाम अनंग हुआ। उसी समय से काम अनंग रहकर प्रत्येक व्यक्ति के मन को तरंगित करता रहता है। इसी उत्साह की ओर मन की तरंग की अभिव्यक्ति के लिए बसंत ऋतु में होली का पर्व मनाया जाता है। इसी प्रकार की पौराणिक कथाओं से विधि-विधानों का समाधान किया जाता हैं।
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