कफन कहानी की भाषा शैली
'कफ़न' प्रेमचंद की अन्तिम कहानी है, इसमें प्रेमचंद की अंतिम कहानी कफन के साथ अन्य १३ कहानियाँ संकलित हैं। कफ़न कहानी प्रेमचंद की अन्य कहानियों से एकदम भिन्न है। कफन कहानी की भाषा शैली सरल, सहज, अभिव्यक्तिपूर्ण और मुहावरेदार है।
"कफन" कहानी में प्रेमचन्द की भाषा में बहुत से परिवर्तन देखने को मिले। भाषा पूर्ण रूप से परिस्थिति के अनुकूल है। लोक भाषा के शब्दों के साथ-साथ उर्दू के शब्दों का प्रयोग भी कहानी में हुआ है। जैसे फ़िजा (वातावरण), गर्क (डूबा हुआ), जज़ब (निमग्न), मुतलक ( तनिक भी ), तकल्लुफ़ात (आदर-सत्कार) आदि।
घीसू बीस साल पहले खाई दावत का ब्यान करता है तो भाषा की सटीकता का आभास होता है। बोला—'वह भोज नहीं भूलता। तब से फिर उस तरह का खाना और भरपेट नहीं मिला। लड़कीवालों ने सबकों पूड़ियाँ खिलायी थीं। सबको। छोटे-बड़े सबने पूड़ियाँ खायी और असली घी की चटनी, रायता, तीन तरह के सूखे साग, एक रसेदार तरकारी, दही, चटनी, मिठाई ।