Hindi Essay on "Sikh Dharma", "सिख धर्म पर निबंध" for Students for Class 5, 6, 7, 8, 9 and 10. सिख धर्म सिख धर्म का उदय हिन्दू धर्म की बुराइयों को दूर
Hindi Essay on "Sikh Dharma", "सिख धर्म पर निबंध" for Students for Class 5, 6, 7, 8, 9 and 10
सिख धर्म पर निबंध for Class 5, 6, 7
सिख धर्म सिख धर्म का उदय हिन्दू धर्म की बुराइयों को दूर करने के लिये हुआ। सिख धर्म के संस्थापक गुरु नानक देव थे। गुरु नानक देव ने हिन्दू धर्म में व्यापत अन्धविश्वासों का विरोध किया है। उन्होंने हिन्दू तथा मुसलमानों में कोई भेद नहीं किया है। सिख धर्म की शिक्षायें हमको गुरु ग्रन्थ साहब नामक पुस्तक में देखने को मिलती है जिसकी रचना 1604 में गुरु अर्जुन देव ने की थी। गुरु अर्जुन देव सिखों के गुरु थे। उन्होंने आने वाले अनुयायियों को कोई कठिनाई न हो इस उद्देश्य से प्रथम चार गुरुओं के उपदेशों, आदेशों एवं प्रवचनों का संकलन किया है जिसे आदि ग्रन्थ कहा जाता है। सिखों के दसवें गुरु गोविन्द सिंह ने 1705 में गुरु ग्रन्थ साहिब को एक नया रूप दिया गुरु ग्रन्थ साहिब सिखों का पवित्र ग्रन्थ है जिसकी उपस्थिति प्रत्येक धामिक संस्कार एवं उत्सव में आवश्यक मानी जाती है।
विश्व के लगभग २५० लाख लोग सिख धर्म का पालन करते हैं। हिन्दु, मुस्लिम, बौद्ध, और ईसाई धर्म के पालकों के बाद, सिख धर्म दुनिया का पांचवा बड़ा धर्म है, जिसका जन्म भारत देश के पंजाब प्रान्त में हुआ। सिखों का मानना है कि भक्ति भाव, सच्चाई भरा जीवन, और मानवता की सेवा से किसी भी मनुष्य को परमेश्वर की प्राप्ति हो सकती है।
धर्मपुस्तक - गुरु ग्रन्थ साहिब गुरु ग्रन्थ साहिब भक्ति के दोहों, छन्दों, और शबद-कीर्तन से बंधा हुआ ऐसा ग्रन्थ है जो हमें भगवान के करीब लाने के लिए ज़रूरी नैतिक जीवन का पाठ पढ़ाता है। इसमें सिख गुरुओं की रचनाओं के अलावा, कई संतों व भक्तों की रचनाएँ भी शामिल हैं, जो कीर्तन संगीत के साथ गायी जाती हैं। सिखों के पांचवें गुरु ने खुद इस सार्वभौमिक ग्रन्थ के संकलन की देखरेख की, और ये पावन काम 1604 में पूरा हुआ।
सिख गुरु - सिख गुरु मानवता का उद्धार करने और परमेश्वर की भक्ति का प्रसार करने वाले संत थे। सिखों के दस गुरु हैं, जिनमें से पहले गुरु, बाबा नानक का जन्म 1469 में हुआ। अपने जीवनकाल में गुरु नानक ने आपसी सद्भाव, मानवों के बीच समानता, ईश्वर के लिए प्रेम, और रूढ़ियों और अंधविश्वासों से मुक्ति का सन्देश फैलाया। इस पथ को आगे बढ़ाने, उनके इस सन्देश को और फ़ैलाने, और सिख धर्म को एकजुट करने का काम बाकी नौ गुरुओं ने किया। किसी व्यक्ति को उत्तराधिकारी चुनने के बजाय, दसवें गुरु ने धर्म का अधिकार दो वस्तुओं में निहित किया: गुरु ग्रन्थ साहिब (सिखों की धर्मपुस्तक), और गुरु खालसा पंथ (दीक्षित सिखों की कौम)। गुरु खालसा पंथ १६९९ में दसवें गुरु ने खालसा पंथ की स्थापना की।
खालसा पंथ - सिखों की मूलभूत सिद्धांतों, सेवा और परिश्रम, और आध्यात्मिकता के संभाल की ज़िम्मेदारी निभाता है। इससे समाज की सेवा, पीड़ितों की हिफाज़त, और सारी सिख कौम की अगुआई की उम्मीद की जाती है। खालसा पंथ की पहचान सिख धर्म की आस्था के प्रतीकों से होती है।
आस्था के प्रतीक - ककार
सिख अपनी आस्था के पांच प्रतीक पहन के सिख होने का धर्म निभाते हैं। ये सिख सिद्धांतों – मान, न्याय, और प्रेम का चिन्ह हैं। वे हैं:
1. केश - अकर्तित केश, जो आदमी पगड़ी में संभालते हैं, और औरतें, जिनके लिए पगड़ी पहनना ज़रूरी नहीं, आमतौर पर चुन्नी से ढकती हैं।
2. कंघा - यह एक छोटी कंघी है, जो आमतौर पर बालों में रखी जाती है।
3. कछेरा - यह एक जांघिया रूपी वस्त्र है।
4. कृपाण - यह एक कटार है, जो कंधे पर पट्टी से पहनी जाती है।
5. कड़ा- यह एक कंगन है, जो सीधे हाथ में पहना जाता है।
गुरुद्वारा - गुरुद्वारा सिखों की शिक्षा और उपासना का स्थान है, जहां गुरु ग्रन्थ साहिब की स्थापना की जाती है। किसी भी पृष्ठभूमि के लोग यहाँ आश्रय और आराम पाने के लिए आ सकते हैं, और लंगर-घर में सबके लिए खाने का मुफ्त इंतज़ाम किया। जाता है। चूंकि सिख धर्म का कोई पुरोहित समाज नहीं है, संगत का कोई भी आदमी या औरत यहाँ कीर्तन, पाठ, इत्यादि का संचालन कर सकता है।
- सबका रचनाकार एक है, चाहे वो किसी भी धर्म के हों। सबको अपने धर्म और विश्वासों को पालन करने का पूरा अधिकार है।
- हर इंसान विधाता की नज़र में बराबर है। सिख धर्म में आदमियों और औरतों को धार्मिक और राजनितिक अधिकार समान रूप से मिलते हैं।
- तीन दैनिक सिद्धांत सिखों के लिए ज़रूरी हैं: (1) कड़ी मेहनत और ईमानदारी से काम करो, (2) अपनी संपत्ति को हमेशा अपने से निर्धन और निर्बल के साथ बांटो, (3) और सदा ईश्वर को याद करो।
- सिख धर्म एक न्यायपूर्ण समाज में विश्वास रखता है। सब सिखों को मानवता के भले के लिए काम करना चाहिए।
- सिख धर्म में कोई पुरोहित नहीं हैं। हर इंसान अपने बल पे अपने सृजक को पा सकता है।।
- सिख धर्म देवी-देवताओं, मूर्ति-पूजा, अंधविश्वास, और अंधे रिवाज़ों को नहीं मानता।
- सिख धर्म के हिसाब से सभी दिवस, समय, और स्थान एक जैसे हैं; इन में से कोई ज़्यादा या कम पवित्र नहीं है।
सिख धर्म पर निबंध for Class 8, 9 and 10
सिख शब्द पाली शब्द शिखा से लिया गया है। इस शब्द की उत्पत्ति संस्कृत शब्द शिष्य भी लगती है। शिखा का अर्थ चोटी एवं शिष्य का अर्थ विद्यार्थी होता है। सिख दस गुरुओं के शिष्य होते हैं। सिखों के प्रथम गुरु गुरु नानक (1469-1539) थे। उनके अंतिम गम गुरु गोबिन्द सिंह (1666-1708)। सिख उसको कहा जाता है जो दस गुरुओं एवं गरू गोबिन्द साहिब में आस्था रखता हो। गुरुग्रंथ साहिब सिखों का धर्मग्रंथ है। इसकी रचना सिखों के पांचवें गुरु अर्जुन देव द्वारा 1604 ई. में किया गया था। सिख पंथ हिन्दू धर्म के वैष्णव संप्रदाय की एक प्रशाखा है। इसका संबंध भक्ति संप्रदाय से है। गुरु नानक पंजाब की भक्ति परंपरा के प्रधान प्रवक्ता थे।
गुरु नानक के पिता तालवांडी ग्राम के राजस्व अधिकारी थे। यह ग्राम लाहौर शहर से 40 मील की दूरी पर स्थित है। वे खत्री जाति से आते थे। खत्री अपने आपको क्षत्रिय कहते हैं। 29 वर्ष की अवस्था में गुरु नानक को रहस्यवादी अनुभव हुआ जिसके परिणामस्वरूप उन्होंने घोषणा की कि न तो कोई हिन्दू है और न ही कोई मुसलमान। उन्होंने अपने अनुयायियों के बीच प्रचलित सभी प्रकार के विभेदों को समाप्त किया। उन्होंने अनेक यात्राएँ की तथा जहां कहीं भी गए मानव समानता का उपदेश लोगों को दिया। पंजाब के गाँवों के लोग उन्हें सभी धर्मों के राजा कहते हैं तथा याद करते हैं। हिन्दू उन्हें गुरु तथा मुसलमान उन्हें संत मानते हैं।
गुरु नानक हिन्दू धर्म के अनेक परंपरागत विश्वासों को स्वीकार किए, लेकिन अछूत प्रथा को अस्वीकार करते हुए उस पर जमकर प्रहार किए। गुरु नानक के सिख धर्म से संबंधित विश्वास निम्नलिखित थे
- ईश्वर पिता, स्वामी, प्रेमी तथा सभी प्रकार के उपहारों का महान दाता है।
- ईश्वर निराकार एवं निर्गुण है।
- रब, रहिम, गोबिन्द, मुरारी, हरि इत्यादि ईश्वर के अनेक नाम हैं।
- ईश्वर ओंकार, सतकरतार सही सृष्टिकर्ता तथा सतनाम (सत्य नाम) हैं।
- सिख धर्म का धार्मिक संकेत ओंम है।
व्यवहारिक रूप में समानता स्थापित करने के लिए गुरु नानक द्वारा निःशुल्क लंगर (भोजनालय) की स्थापना की गयी थी। इस लंगर में उनके सभी जाति के अनुयायी साथ बैठकर भोजन ग्रहण करते थे। लंगर सिख पंथ में प्रधान स्थान रखता है। लंगर के अतिरिक्त गरु में अटूट श्रद्धा सिख पंथ का मूल है। कोई भी व्यक्ति गुरु के बिना मोक्ष नहीं प्राप्त कर सकता है। लेकिन गुरु आदर का तात्पर्य गुरु पूजा से नहीं है। सिख पंथ ईश्वर एवं गुरु में स्पष्ट रूप से अंतर मानता है। एक गुरु ईश्वर का अवतार नहीं होता है। वह अपने आपको ईश्वर का दास एवं सेवक समझता है।
सिखों के सभी दस गुरु निम्नलिखित हैं - 1. गुरु नानक (1469-1539) 2. गुरु अंगद (1504-1552) 3. अमरदास (1479-1574) 4. रामदास (1534-1581) 5. गुरु अर्जुन (1563-1606) 6. हरगोविन्द (1595-1664) 7. हरराय (1630-1661) 8. हरकिशन (1656-1664) 9. तेज बहादुर (1621-1675) 10. गुरु गोबिन्द सिंह (1666-1708)
गुरु नानक ने ज्ञानोदय हेतु तपस्या एवं शरीर को कष्ट देने को अस्वीकार किया। उन्होंने साधु एवं तप के स्थान पर गृहस्थ आश्रम को प्रचारित प्रसारित किया। उन्होंने अपने अनुयायियों को पवित्र व्यक्ति की संगति में रहने का सुझाव दिया। उनका कहना था कि एक व्यक्ति को ईश्वर का नाम बारंबार लेना चाहिए तथा भजन-कीर्तन में भाग लेना चाहिए। भजन-कीर्तन के माध्यम से एक व्यक्ति मोक्ष प्राप्त कर सकता है।
सिख धर्म के अनुयायी हमारे देश में कुल जनसंख्या के दो प्रतिशत भाग निर्मित करते हैं। इस धर्म के अनुयायी मुख्यतः पंजाब में केन्द्रित हैं। लेकिन प्रायः हमारे देश के सभी महानगरों एवं नगरों में इस धर्म के अनुयायी तथा धार्मिक संकेत (गुरुद्वारा) पाए जाते हैं। इस संप्रदाय के लोग विदेशों में भी अच्छी संख्या में पाए जाते हैं। सिख तथा हिन्दू के बीच विवाह भी संपन्न होता है। लेकिन वे लोग अपनी पृथक पहचान बनाए रखते हैं। लंगर तथा गुरुद्वारा नामक संस्थाएँ इस धर्म को जीवित रखने में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान देती हैं। आजकल सिखों द्वारा अपना राजनीतिक संगठन भी बना लिया गया है। उदाहरण के लिए गुरुद्वारा प्रबंधक समिति एवं अकाली दल। गांव देहात के सिख कई इकाइयों में बंटे होते हैं जो जाति के समान होती हैं। गरुद्वारा में सभी सिखों का प्रवेश मान्य है। लेकिन शादी में वे लोग सामाजिक निषेधों का पालन आवश्यक करते हैं।
सिख धर्म पर निबंध for Class 11 and 12
भारतीय धार्मिक विचारधाराओं में सिख धर्म का पवित्र एवं अनुपम स्थान है। गुरु नानक देव सिख धर्म के प्रथम गुरु एवं संस्थापक हैं। उन्होंने तत्कालीन भारतीय समाज में व्याप्त कुप्रथाओं, अन्धविश्वासों, रूढियों और पाखण्डों को दूर करते हुए जनसाधारण के मध्य एक उदारवादी धार्मिक विचारधारा को विकसित किया। उन्होंने प्रेम, सेवा, परोपकार, भ्रातृत्वभाव तथा परिश्रम की दृढ नींव पर आधारित सिख धर्म की स्थापना की। इस धर्म का विकास हिन्दू धर्म से हुआ है। जिस प्रकार जैन धर्म और बोद्ध धर्म हिन्दु धर्म की देन है। सिख धर्म धार्मिक परम्पराओं में समन्वय का एक अद्भुत उदाहरण है। मध्य युग में इस्लाम धर्म के सम्पर्क में आने पर हिन्दू धर्म में समन्वय की एक नवीन प्रवृति का जन्म हुआ। हिन्दू धर्म एवं इस्लाम धर्म में समन्वय स्थापित करने के प्रयास के परिणामस्वरूप सिख धर्म का उद्भव हुआ।
'सिख' शब्द की उत्पत्ति शिष्य शब्द से हुई। प्रत्येक सिख स्वयं को एक शिष्य के रूप में स्वीकार करता है। शिष्य शब्द गुरु के बिना निर्रथक है। यही कारण है कि सिख धर्म में गुरू का स्थान केन्द्रिय है। गुरु महान पथ प्रदर्शक है। गुरु की शिक्षा के द्वारा ही ईश्वरीय ज्ञान सम्भव है। सच्चे गुरू के अभाव में मनुष्य ईश्वरीय ज्ञान के लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकता। उचित मार्गदर्शन के अभाव में वह अज्ञान ग्रस्त रहता है। गुरु ज्ञान के द्वारा ही शिष्य को यह ज्ञात होता है कि ईश्वर ही परमसत्ता सर्वव्यापी एवं सर्वज्ञ है। जो व्यक्ति शिष्य के रूप में गुरु के साथ तादात्म्य सम्बन्ध स्थापित करता है, वह खालसा कहलाता है। खालसा गुरु का अंश है। गुरु की महत्ता की व्याख्या करते हुए सिख धर्म में कहा गया है कि " गुरु शिव है। गुरू ब्रह्मा एवं विष्णु है। गुरु ही पार्वती, सरस्वती एवं लक्ष्मी है।"
सिख धर्म में गुरू शिष्य परम्परा को अत्यन्त महत्वपूर्ण माना गया है। गुरु आध्यात्मिक जीवन के प्रमुख पथ प्रदर्शक है। गुरु शिष्य को उसके सामान्य स्तर से उठाकर उसे ईश्वरीय ज्ञान कराता है। गुरू पूर्णत्व का प्रतीक है। सभी सिख गुरुओ को पूर्ण माना गया है। गुरु नानक देव के अनुसार प्रत्येक मनुष्य गलती कर सकता है, केवल गुरु और ईश्वर ही इससे उपर हैं। यद्यपि गुरू पूर्णतः पाप से रहित होता है, किन्तु उसकी प्रकृति सामान्य मनुष्य जैसी होती है। गुरू आध्यात्मिक साधना के द्वारा अपनी स्वाभाविक मानवीय दुर्बलताओं पर विजय प्राप्त करता है। शिष्य गुरु को आदर्श स्वरूप मानकर उसका अनुसरण करता है। गुरु की शिक्षाओं के अनुसरण से शिष्य में परिवर्तन ही नहीं होता, अपितु यह गुरु से ओत-प्रोत हो जाता है। गुरुसे संयुक्त होकर शिष्य अनन्त शक्ति से युक्त हो जाता है, तब वह गुरु का मूर्तरूप अथवा 'खालसा' कहताता है। गुरु के अनुसार "खालसा मेरा ही दूसरा रूप है, उसी में मेरा अस्तित्व है। इस प्रकार गुरु के साथ तादात्म्य सम्बन्ध शिष्य के अनन्त शक्ति को जाग्रत करता है।
सिख धर्म के प्रमुख गुरु - सिख धर्म के दस गुरुओं में से गुरु नानक देव प्रथम गुरु हैं। गुरु नानक देव ने अपने अयोग्य पुत्रों के स्थान पर श्री अंगद को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया। अंगद ने नानक को ईश्वर तुल्य माना है। गुरु अंगद के बाद क्रमशः गुरु अमरदास, गुरु रामदास, गुरु अर्जुनदेव, गुरु हरगोविन्द सिंह, गुरु हरराय, गुरु हरकिशन सिंह, गुरु तेग बहादुर सिंह तथा गुरु गोविन्द सिंह सिखों के प्रमुख गुरु हैं। इन्होने सिख धर्म के प्रचार प्रसार का कार्य किया। सिख धर्म के दसवें एवं अन्तिम गुरु गोविन्द सिंह ने 'खालसा पंथ' की स्थापना की। गुरु गोविन्द सिंह ने मृत्यु के पूर्व कहा-'मेरे बाद कोई सिख गुरु नहीं होगा। सिर्फ 'ग्रन्थ साहिब ही गुरू होंगे।
गुरु ग्रन्थ साहिब - 'गुरु ग्रन्थ साहिब' सिख धर्म का प्रमुख धर्म ग्रन्थ है। इसको सिख धर्म में अत्यन्त पवित्र माना गया है। इसमे सिख धर्म के प्रमुख गुरुओं की आध्यात्मिक वाणियाँ संग्रहित है। सिखों के पांचवे अर्जुन देव ने इस ग्रन्थ को संकलित कर इसे सुव्यवस्थित रूप प्रदान किया। इस ग्रन्थ में ईश्वरीय अनुभूति के लिए विभिन्न पवित्र उपदेश विद्यमान है। प्रत्येक सिख इस ग्रन्थ को ईश्वर तुल्य मानता है। सिख धर्म में गुरु ग्रन्थ साहिब की उपासना की जाती है।
सिख धर्म के पांच चिन्ह - सिखों के दसवें गुरु गोविन्द सिंह जी ने सिखों को एकजुट करके एक नई शक्ति को जन्म दिया। उन्होने खालसा पंथ की स्थापना की। सिखों को सैनिक वेश में दीक्षित किया। प्रत्येक परिस्थति मे सदैव तत्पर रहने के लिये उन्होंने सिखों के लिये पांच ककार अनिवार्य घोषित किये, जिन्हें धारण करना प्रत्येक सिख अपना गौरव मानता है। ये इस प्रकार हैं - केश, कंघा, कच्छा, कडा, और कृपाण।
सिख धर्म में ईश्वर का स्वरूप - सिख धर्म एकेश्वरवादी धार्मिक विचारधारा है। इसमें ईश्वर को परमतत्व के रूप में स्वीकार किया गया है। यह अनेकेश्वरवाद को अस्वीकार करता है। गुरु नानक देव के अनुसार –"ईश्वर सिर्फ एक है जिसका नाम सत्य है । वह सृष्टा, भय और शत्रु भावना से शून्य है। वह अमर, अजन्मा, महान और दयालु है। जिस प्रकार उपनिष्दों और कुरान में ईश्वर की एकता पर विशेष बल दिया जाता है, उसी प्रकार सिख धर्म भी ईश्वर की एकता में विश्वास करता है। सिख धर्म सगुण और निर्गुण दोनो ही प्रकार के ईश्वर का समर्थन करता है, किन्तु अवतारवाद का समर्थन नहीं करता। ईश्वर एक ऐसा परमतत्व है, जिसे प्रेम, श्रद्धा और आत्मसमर्पण के द्वारा अनुभव किया जा सकता है। ईश्वरीय तत्व की अनुभूति करना मानवीय जीवन का चरम लक्ष्य है।
सिख धर्म में ईश्वर को सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञ माना गया है। ईश्वर सर्वव्यापी है। जिस प्रकार आत्मा सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त है, उसी प्रकार ईश्वर विश्व की प्रत्येक वस्तु में विद्यमान है। गुरु नानक देव का कथन है-"ईश्वर प्रत्येक वस्तु में व्याप्त है। वह प्रत्येक हृदय में निवास करता है। यद्यपि वह प्रत्येक वस्तु में व्याप्त है, फिर भी वह प्रत्येक वस्तु से पृथक है। जिस प्रकार खुशबू फूल में व्याप्त है तथा प्रतिबिम्ब शीशे में निहित है, उसी प्रकार ईश्वर विश्व की प्रत्येक वस्तु में अन्तर्भूत है। इसलिए ईश्वर को सर्वत्र व्याप्त मानते हुए उसे अपने हृदय के अन्दर खोजना चाहिए। गुरु नानकदेव ने स्वयं ईश्वर की सर्वव्यापकता की व्याख्या करते हुए कहा-"उस एक के सम्बन्ध में विचार करो जो प्रत्येक वस्तु में व्याप्त है।'' गुरु नानक द्वारा जुपजी को प्रमुख भजन के रूप में स्वीकार किया गया है। इसे प्रतिदिन प्रातःकाल प्रार्थना के रूप में गाया जाता है। इस भजन की प्रथम पंक्ति में ईश्वर के स्वरूप की व्याख्या इस प्रकार की गई है - "परमात्मा ओंकार स्वरूप एक है। उसका नाम सत्य है, वह रचने वाला है। वह भय और वैर से रहित है। वह काल से अप्रभावित है। वह अजन्मा है। वह स्वयं प्रकाशमान है। वह गुरु की कृपा से प्राप्त होता है।"
सिख धर्म के अनुसार ईश्वर एक है, किन्तु इसके रूप अनेक है। इस धर्म में ईश्वर को विभिन्न नामों से पुकारा गया हैं। गुरु ग्रन्थ साहिब में ईश्वर को अल्लाह, खुदा, ब्रह्म परब्रह्म, हरि, राम, गोविन्द, नारायण आदि नामों से सम्बोधित किया गया है। ईश्वर को इन विभिन्न नामों से सम्बोधित कर सिख धर्म के गुरुओं ने हिन्दू एवं इस्लाम धर्म में समन्वय का प्रयास किया हैं। गुरु ग्रन्थ साहिब में ईश्वर को निराकार, आदि पुरुष, अकाल पुरुष, सत पुरुष कहा गया है। गुरु दास ने ईश्वरीय स्वरूप की व्याख्या करते हुए कहा है-"वह निरंकार, अनूठा, अदभूत एवं इन्द्रियातीत है।" ईश्वर के सगुण स्वरूप को स्वीकार करते हुए उसे ब्रह्मा, विष्णु और विश्व कहा गया है। इस प्रकार सिख धर्म ईश्वर को सगुण और निर्गुण दोनों रूपों में स्वीकार करता है। गुरू नानक देव कर्म और पुनर्जन्म दोनों में विश्वास करते हैं। गुरु नानक देव के मतानुसार पुनर्जन्म और मुक्ति दोनो ईश्वर की इच्छा पर निर्भर करते हैं। सिख धर्म में ईश्वर को कर्म नियम का संचालक माना गया है। ईश्वर मनुष्य को उसके शुभ अशुभ कर्मो के अनुसार पुण्य पाप प्रदान करता है।
मनुष्य सम्बन्धी विचार - सिख धर्म के अनुसार ईश्वर और मनुष्य में स्वामी और दास का सम्बन्ध है। ईश्वर सर्वशक्तिमान, शाश्वत और स्वतंत्र है, जबकि मनुष्य सीमित, नश्वर और ईश्वर पर आश्रित है। जब तक मनुष्य यह समझता है कि वह स्वयं सब कुछ कर सकता है, तब तक उसे शाश्वत आनन्द की प्राप्ति नहीं हो सकती है। ईश्वर की कृपा के अभाव में मनुष्य कुछ भी नहीं कर सकता है। ईश्वर ही मनुष्य को शक्ति प्रदान करता है, जिसके द्वारा वह अपने लक्ष्यों को प्राप्त कर सकता है। ईश्वर की कृपा के अभाव में मनुष्य मुक्ति का अधिकारी नहीं हो सकता। अतः मनुष्य पूर्णतः ईश्वर पर आश्रित है। गुरु गोविन्द सिंह ने ईश्वर और मनुष्य के मध्य उपास्य और उपासक का सम्बन्ध स्वीकार किया है। ईश्वर उपास्य है, जबकि मनुष्य उपासक । यद्यपि उपास्य और उपासक दो है, किन्तु इन दोनों में तादात्म्य सम्बन्ध है। जिस प्रकार समुद्र और उसकी तरंगे एक है, उसी प्रकार ईश्वर और उपासक भी स्वरूपतः एक ही हैं।
जगत सम्बन्धी विचार - सिख धर्म में जगत को नश्वर माना गया है। जगत को भ्रम के रूप में चित्रित किया गया है। गुरु नानक देव के अनुसार- "मैं किसके साथ सम्पर्क स्थापित करूँ? सारा जगत क्षणभंगुर है। ईश्वर तुझे छोड़कर सभी वस्तुएं असत्य है।" गुरु नानक ने कहा है-"विश्व के सारे व्यापार नश्वर है। ये सिर्फ चार दिनों के लिए विद्यमान है। यह संसार भ्रम है।" उन्होने स्पष्ट किया है कि ब्रह्म एक है तथा सम्पूर्ण जगत ब्रह्म की माया है। माया के द्वारा ही जगत के सभी पदार्थ उत्पन्न हुए हैं। गुरुनानक का यह विचार उपनिषदों के ऋषियों के विचारों के अनुरूप है।
अशुभ की समस्या का समाधान- ईश्वरवादी धर्मो के समक्ष अशुभ की समस्या एक प्रमुख समस्या है। लगभग सभी ईश्वरवादी धर्म इस समस्या के समाधान के लिए प्रयास करते हैं। सिख धर्म में अशुभ की समस्या का समाधान अत्यन्त सरल ढंग से किया गया है। सिख धर्म के अनुसार अशुभ का कारण ईश्वर नहीं अपितु मनुष्य स्वयं है। अशुभ का प्रमुख कारण मानवीय अहंकार है। मानवीय हृदय जब अहंकार से युक्त हो जाता है, तब उसे अशुभ का सामना करना पडता है। मनुष्य का अहंकार उसे ईश्वर के समक्ष समर्पण नहीं करने देता है। जैसे ही वह ईश्वर के समक्ष समर्पण के लिए उपस्थित होता है, उसका अहंकार इसमें बाधक बन जाता है। जिसके परिणामस्वरूप वह ईश्वर से दूर हो जाता है। यही अशुभ है। यदि मनुष्य को यह ज्ञान हो जाये कि ईश्वर सर्वत्र व्याप्त है और उसके अत्यन्त निकट है, तो वह अशुभ से मुक्त हो जायेगा। ईश्वर से संयोग ही शुभ और ईश्वर से दूरी ही अशुभ है। अहंकार की अधिकता के कारण मनुष्य ईश्वर से दूर चला जाता है। अतः मनुष्य को चाहिए कि वह अपने अहंकार को परित्याग करे, अन्यथा उसे अशुभ का सामना करना होगा । अहंकार पर विजय प्राप्त कर ही मनुष्य ईश्वर की अनुभूति कर सकता है। ईश्वरीय अनुभूति और निकटता ही समस्त अशुभों का अन्त है। इस प्रकार सिख धर्म में अशुभ और शुभ की व्याख्या तर्क संगत ढंग से की गई है।
मुक्ति का मार्ग- सिख धर्म के अनुसार मुक्ति का अभिप्राय है- मनुष्य का ईश्वर से साक्षात्कार करना या ईश्वर में विलीन होना है। मुक्ति की प्राप्ति ईश्वर की कृपा के अभाव में असम्भव है। उपनिषदों में भी ऋषियों ने मुक्ति को ईश्वरीय कृपा का फल माना है । मुक्ति के लिए ईश्वर के नाम का सतत चिन्तन और उच्चारण करना अत्यन्त आवश्यक है। ईश्वर के प्रति ध्यान एवं चिन्तन के द्वारा ही मनुष्य मुक्ति का अनुभव कर सकता है। ईश्वर के प्रति श्रद्धा, भक्ति और आत्म समर्पण के द्वारा मनुष्य मुक्त हो जाता है। सिख धर्म में मुक्ति के लिए भक्ति को प्रमुख साधन माना गया है। गुरु नानक देव के कथनानुसार –"धार्मिक क्रिया कलापों के सम्पादन के द्वारा ईश्वर की प्राप्ति नहीं हो सकती। ईश्वर की प्राप्ति प्रेम और श्रद्धा के द्वारा ही सम्भव है।" गुरु ईश्वर प्राप्ति में सहायक होता है। गुरु के उपदेशों को शिरोधार्य करना वांछनीय है, क्योंकि वही मुक्ति के मार्ग का पथ प्रदर्शन कर सकता है। गुरु में ईश्वरत्व निहित है। इसलिए वह साधक और ईश्वर के मध्य कडी का कार्य करता है। जुपजी (जपजी) गुरू ग्रन्थ साहिब के प्रमुख भजन में गुरु नानक देव ने मुक्ति का वर्णन अत्यन्त सरल भाषा में किया है। गुरु नानक देव ने जुपजी में पांच सोपानों का उल्लेख किया है, जिसके द्वारा आत्मा शाश्वत आनन्द की अनुभूति करती है। ये पांच सोपान इस प्रकार है- 1. धर्म खण्ड, 2. ज्ञान खण्ड, 3. शरण खण्ड, 4. कर्म खण्ड तथा, 5. सुच-खण्ड। इन खण्डों का वर्णन निम्नानुसार है -
1. धर्म खण्ड - यह कर्तव्य और कर्म का क्षेत्र है। प्रत्येक मनुष्य को अपने कर्तव्य कर्मो का सम्पादन भली भांति करना चाहिए। यह इसलिए आवश्यक है कि प्रत्येक मनुष्य का मूल्यांकन उसके कर्मो के द्वारा ही सम्भव होता है।
2. ज्ञान खण्ड - यह ज्ञान की अवस्था है। ज्ञान और कर्तव्य के मध्य समन्वय आवश्यक है। यदि मनुष्य ज्ञानपूर्वक कर्तव्य का सम्पादन करता है तो वह राम-कृष्ण की भांति स्थायी शान्ति अनुभव कर सकता है।
3. शरण खण्ड - ज्ञान खण्ड के पश्चात आत्म समर्पण की अवस्था है। यह आनन्द की अवस्था है। इस अवस्था में कर्तव्य पालन मानवीय स्वभाव का अंग बन जाता है और वह स्वाभाविक रूप से सम्पन्न होता है।
4. कर्म खण्ड - इस अवस्था में साधक को शक्ति और धार्मिक निष्ठा की प्राप्ति होती है। साधक मृत्यु के भय से मुक्त हो जाता है। वह जन्म मरण के चक्र से सदैव के लिए मुक्त हो जाता है।
5. सुच खण्ड - कर्म खण्ड के पश्चात आत्मा सुच खण्ड में प्रवेश करती है। यह निराकार परमात्मा का निवास स्थल है। आत्मा इस अवस्था में निरंकार सत्य का दर्शन करती है। यह सत्यानुभूति की अवस्था है। यहां साधक ईश्वर में विलीन होकर उसके स्वरूप की साक्षात अनुभूति करता है। कुछ सिख धर्म के चिन्तकों का मत है कि निर्वाण और सुच खण्ड वस्तुतः एक ही हैं। दोनों ही अवस्थाओं में व्यक्तिगत चेतना का अन्त हो जाता है और आत्मा का प्रकाश ईश्वरीय प्रकाश के साथ संयुक्त हो जाता
गुरू नानक देव के उपदेश-सिख धर्म के संस्थापक गुरु नानक देव का जन्म कार्तिक पूर्णिमा के दिन हुआ था। इस दिन को सिख धर्म के अनुयायी प्रकाश पर्व और गुरु-पर्व के रूप में मनाते है। गुरु नानक देव ने भ्रातृत्वभाव मानव-सेवा, आत्मशुद्धि, कर्तव्य, पालन और ईश्वरीय भक्ति का संदेश दिया। गुरु नानक देव के कुछ प्रमुख उपदेश निम्नानुसार है :
- 1. गुरू नानक देव ने एक ओंकार का संदेश दिया, जिसका अर्थ है कि ईश्वर एक है। ईश्वर सर्वत्र व्याप्त है। ईश्वर हम सबका पिता है, इसलिये सबके साथ प्रेमपूर्वक रहना चाहिए।
- 2. किसी भी प्रकार के लोभ को त्याग कर अपने हाथों से मेहनत कर और न्यायोचित तरीके से ईमानदारी पूर्वक धन का अर्जित करना चाहिए।
- कभी किसी का हक नहीं छिनना चाहिए अपितु मेहनत और ईमानदारी की कमाई में से भी जरूरतमंदों की सहायता करनी चाहिए।
- धन को जेब तक ही सीमित रखना चाहिए। उसे अपने हदय में स्थान नहीं देना चाहिए अन्यथा नुकसान हमारा ही होता है।
- नारी-शक्ति का सम्मान करना चाहिए। स्त्री और पुरूष एक ही परमात्मा की संताने है, अतः उन्हे भी पुरूषों के समान आदर देना चाहिए।
- तनाव मुक्त होकर अपने कर्म करना चाहिए तथा सदैव प्रसन्न रहने का अभ्यास करना चाहिए।
- संसार को जीतने से पहले स्वयं अपने विकारों और बुराईयों पर विजय प्राप्त करना अति आवश्यक है। आत्मशुद्धि ही ईश्वर साक्षात्कार का प्रमुख साधन है।
- अहंकार मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है। इसलिए अहंकार का त्याग करना चाहिए और विनम्र होकर सेवाभाव के द्वारा जीवन व्यतीत करना चाहिए।
- मनुष्य को मनुष्य के साथ प्रेमवत व्यवहार करना चाहिए। सभी मनुष्य के मध्य भ्रातृत्वभाव का विकास आवश्यक है। मनुष्यों में उच्च और निम्न का भेद करना भ्रामक है। सभी मनुष्य एक ही ईश्वर की संतान है। मानव-सेवा करना मनुष्य का परम कर्तव्य है।
- 10. सर्वशक्तिमान ईश्वर की भक्ति करने वालों को कभी किसी का भय नहीं रहता है।
COMMENTS