परंपरागत राजनीतिक सिद्धांत से सम्बन्धित वाद-विवाद का संक्षिप्त वर्णन कीजिए। लियो स्ट्रॉस के विचार - सन् 1962 ई० में राजनीति-दर्शन महत्त्व पर बल देते ह
परंपरागत राजनीतिक सिद्धांत से सम्बन्धित वाद-विवाद का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
परंपरागत राजनीतिक सिद्धांत से सम्बन्धित वाद-विवाद
(1) लियो स्ट्रॉस के विचार - सन् 1962 ई० में राजनीति-दर्शन महत्त्व पर बल देते हए स्ट्रॉस ने यह विचार प्रस्तुत किया है कि राजनीति का नया विज्ञान ही उसके ह्रास का यथार्थ लक्षण है। इन्होंने प्रत्यक्षवादी दृष्टिकोण अपनाकर मानवीय विषयों की चुनौती की जो उपेक्षा की है, उससे पश्चिमी जगत के सामान्य राजनीतिक संकट का संकेत मिलता है। इन्होंने इस संकट को बढ़ावा भी दिया है।
स्ट्रॉस ने लिखा है कि, “राजनीति का अनुभवमूलक सिद्धांत समस्त मूल्यों की समानता की शिक्षा प्रदान करता है। यह इस बात में विश्वास नहीं करता कि कुछ विचार स्वभावतः उच्च कोटि के होते हैं तथा कुछ स्वभावतः निम्न कोटि के होते हैं। वह यह भी नही मानता है कि सभ्य मनुष्यों तथा जंगली जानवरों में कोई तात्विक अन्तर होता है। इस प्रकार यह अनजाने में स्वच्छ जल को गन्दे नाले के साथ बहा देने की भूल करता है।"
(2) सीमोर मार्टिन लिप्सेट के विचार - सन् 1960 ई० में सीमोर मार्टिन लिप्सेट ने अपनी प्रसिद्ध कृति 'पालिटिकल मैन' के अन्तर्गत यह विचार प्रस्तुत किया कि समकालीन समाज के लिये उपर्युक्त मूल्य पहले ही तय किये जा चुके हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका में उत्तम समाज की युगों प्राचीन खोज अब समाप्त हो चुकी है क्योंकि हमने उसको प्राप्त कर लिया है। वर्तमान लोकतन्त्र का सक्रिय रूप ही उस उत्तम समाज की निकटतम अभिव्यक्ति है। इस प्रकार लिप्सेट ने भी राजनीतिक सिद्धांत की सार्थकता पर प्रश्न चिह्न लगा दिया।
(3) अल्फ्रेड कॉबन के विचार - सन् 1953 ई० में अल्फ्रेड कॉबन ने 'Political Science Quartenly' में प्रकाशित अपने लेख के अन्तर्गत यह विचार प्रस्तुत किया कि समकालीन में न तो पूँजीवाद प्रणालियों में राजनीति सिद्धांत की कोई प्रासंगिकता रह गई है, न साम्यवादी प्रणालियों में। पूँजीवाद प्रणालियाँ उदार लोकतन्त्र के विचार पर आधारित है। किन्तु आज के लोकतन्त्र का एक भी सिद्धांतकर विद्यमान नहीं है। फिर, इन प्रणालियों पर एक विस्तृत अधिकारी तन्त्र तथा विशाल सैनिक-तन्त्र हावी हो गया है जिससे उनमें राजनीति सिद्धांत की कोई भूमिका नहीं रह गई है।
(4) दांते जर्मीनो के विचार - सन् 1967 ई० में प्रकाशित कृति 'बियोन्ड आइडियोलॉजी द रिवाइबल ऑफ पालिटिक्स थ्योरी' के अन्तर्गत उन्होंने यह तर्क प्रस्तुत किया है कि अधिकांश 19वीं शताब्दी तथा आरम्भिक 20वीं शताब्दी के दौरान राजनीति सिद्धांत के ह्रास के दो कारण थे
- प्रत्यक्षवाद का उदय जिसने विज्ञान के उन्माद में मूल्यों को अलग रख दिया।
- राजनीतिक विचारधाराओं का प्राधान्य जिनका चरम उत्कर्ष मार्क्सवाद के रूप में सामने आया, किन्तु अब स्थिति में परिवर्तन हो चुका था। अनेक समकालीन विचारकों ने राजनीति चिन्तन को एक नवीन दिशा प्रदान की थी। जिससे राजनीति सिद्धांत के पुनरुत्थान का बल प्राप्त हुआ था।
इन विचारकों में माइकेल आकशॉट हन्ना आरेन्ट, बट्री द जूवनेल, लियोस्ट्रास तथा एरिक वोएगालिन के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय थे।
(5) हर्बर्ट मार्कूजे के विचार - हर्बर्ट मार्कूजे ने राजनीति एवं समाज के अध्ययन वैज्ञानिकता की माँग को मानवीय भावनाओं के अध्ययन के लिये उपयुक्त नहीं माना है। जब सामाजिक विज्ञान की भाषा को प्राकृतिक विज्ञान की मांग के अनुरूप ढालने का प्रयत्न करते हैं तब वह यथास्थिति का समर्धन बन जाता है। इस प्रवृत्ति के अन्तर्गत वैज्ञानिक शब्दावली की परिभाषा ऐसी संक्रियाओं तथा व्यवहार के रूप में दी जाती है। जिनका निरीक्षण तथा परिमापक किया जा सकता हो। इस प्रकार वैज्ञानिक भाषा में आलोचनात्मक दृष्टि की कोई गुंजाइश नहीं रह जाती।
उदाहरणार्थ - निर्वाचन व्यवहार का निरीक्षण करते समय जब मतदान करने वालों की संख्या के आधार पर जन-सहभागिता का अनुमान लगाया जाता है। तब यह प्रश्न उठाने की आवश्यकता नहीं होती है कि निर्वाचन की वर्तमान प्रक्रिया लोकतन्त्र की भावना को कितना सार्थक करती है अथवा नहीं करती। इस प्रकार की अध्ययन-पद्धति अपना लेने पर सामाजिक विज्ञान सामाजिक अन्वेषण का साधन नहीं रह जाता, अपितु सामाजिक नियन्त्रण का साधन बन जाता है।
निष्कर्ष - सन् 1970 ई० के आरम्भ होने वाले दशक में तथा उसके पश्चात् 'राजनीतिक विज्ञान' तथा 'राजनीति दर्शन' के मध्य का यह विवाद उतना उग्र नहीं रहा।
जहाँ डेविड ईस्टन ने 'उत्तर-व्यवहारवादी क्रान्ति' के नाम पर सामाजिक मूल्य के प्रति राजनीति विज्ञान के बढ़ते हुए सरोकार का संकेत दिया है, वहाँ राजनीतिक दर्शन के सर्मथकों ने भी अपनी मान्यताओं को तथ्यों के ज्ञान के आधार पर परखने से संकोच नहीं किया है।
कार्ल पॉपर ने वैज्ञानिक पद्धति का विस्तृत निरूपण करते हुए उपयुक्त सामाजिक मूल्यों के विषय में निष्कर्ष निकालने से तनिक भी संकोच नहीं किया है।
जॉन राल्स ने न्याय के नियमों का पता लगाने के लिये अनुभवमूलक पद्धति अपनाने में अभिरुचि का परिचय दिया है।
सी० बी० मैक्फर्सन ने जोसेफ शम्पीटर तथा रॉबर्ट डहल के अनुभवमूलक दृष्टिकोण की आलोचना करने हए लोकतन्त्र आमूल-परिवर्तनवादी सिद्धांत प्रस्तुत किया है।
मार्कूजे तथा युर्गेन हेबरमास ने समकालीन पूँजीवादी की आलोचना करते हुए अनुभवमूलक निरीक्षण की गहन अर्न्तदृष्टि का परिचय दिया है। अब यह स्वीकार किया है कि गजनीतिक विज्ञान हमें सामाजिक तथा प्राकृतिक विज्ञानों के समान अपने साधनों को परिष्कृत करने में सहायता देता है। किन्तु साध्यों की तलाश हेतु हमें राजनीति-दर्शन की शरण में जाना होगा। साध्य तथा साधन परस्पर आश्रित हैं, इसलिये राजनीति-दर्शन तथा राजनीति विज्ञान परस्पर पूरक भूमिका निभाते हैं।
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