राजनीतिक सिद्धांत के पतन पर डेविड ईस्टन के विचार लिखिए। राजनीतिक सिद्धांत के पतन से क्या अभिप्राय है? राजनीतिक सिद्धांत के पतन की बात किसने उठाई? राजन
राजनीतिक सिद्धांत के पतन पर डेविड ईस्टन के विचार लिखिए।
- राजनीतिक सिद्धांत के पतन से क्या अभिप्राय है?
- राजनीतिक सिद्धांत के पतन की बात किसने उठाई?
- राजनीतिक सिद्धांत के पतन की व्याख्या कीजिए।
राजनीतिक सिद्धांत के पतन पर डेविड ईस्टन के विचार
1953 में अमरीकी राजनीति-वैज्ञानिक डेविड ईस्टन ने अपनी बहुचर्चित कृति 'द पॉलिटिकल सिस्टम : एन इनक्वायरी इनटू द स्टेट ऑफ पॉलिटिकल साइंस' (राजनीतिक प्रणाली : राजनीति विज्ञान की दशा का अन्वेषण) के अन्तर्गत राजनीतिक सिद्धांत के पतन की बात उठाई। उन्होंने यह दावा किया कि परंपरागत राजनीति-सिद्धांत कोरे चिंतन-मनन (Mere Speculation) पर आधारित है। उसमें राजनीतिक यथार्थ के गहन निरीक्षण का नितांत अभाव है। अतः राजनीति-सिद्धांत को वैज्ञानिक आधार पर स्थापित करने के लिए चिरसम्मत ग्रंथों (Classics) और राजनीतिक विचारों के इतिहास की परंपरा से मुक्त कराना जरूरी है। ईस्टन ने लिखा कि परंपरागत राजनीति-सिद्धांत उस उथल-पुथल की उपज है जो बीते युगों के इतिहास की विशेषता रही है। प्लेटो-पूर्व यूनान, पंद्रहवीं शताब्दी के इटली, सोलहवीं और सत्रहवीं शताब्दी के इंगलैंड और अठारहवीं शताब्दी के फ्रांस में ऐसी उथल-पुथल के कारण ही राजनीति-चिंतन को पनपने का अवसर मिला था। समकालीन समाज में उसकी कोई प्रासंगिकता (Relevance) नहीं है।
ईस्टन ने यह भी लिखा कि कार्ल मार्क्स और जॉन स्टुआर्ट मिल के बाद कोई महान् दार्शनिक पैदा नहीं हुआ; अतः पराश्रितों की तरह एक शताब्दी पुराने विचारों के साथ चिपके रहने से क्या फायदा। ईस्टन ने तर्क दिया कि अर्थशास्त्रवेत्ताओं और समाजवैज्ञानिकों ने तो मनुष्यों के यथार्थ व्यवहार का व्यवस्थित अध्ययन प्रस्तुत किया है, परंतु राजनीति-वैज्ञानिक इस मामले में पिछड़े रहे हैं। इन्होंने फासिज्म और कम्युनिज्म (साम्यवाद) के उदय और अस्तित्व की व्याख्या देने के लिए उपयुक्त अनुसंधान-उपकरण भी विकसित नहीं किए हैं। फिर, दूसरे विश्वयुद्ध (1939.45) के दौरान अर्थशास्त्रवेत्ताओं, समाजवैज्ञानिकों और मनोवैज्ञानिकों ने तो निर्णयन-प्रक्रिया (Decision-making Process) में सक्रिय भूमिका निभायी है, परंतु राजनीति-वैज्ञानिकों को किसी ने पूछा ही नहीं। अतः ईस्टन ने राजनीति-वैज्ञानिकों को यह सलाह दी कि उन्हें अन्य सामाजिक वैज्ञानिकों के साथ मिलकर एक व्यवहारवादी राजनीति विज्ञान (Behavioural Political Science) का निर्माण करना चाहिए ताकि उन्हें भी निर्णयन-प्रक्रिया में अपना उपयुक्त स्थान प्राप्त हो सके।
ईस्टन ने तर्क दिया कि परंपरागत राजनीति-सिद्धांत के अंतर्गत मूल्यों (Values) के निर्माण पर विशेष ध्यान दिया गया है, परंतु आधुनिक राजनीति विज्ञान में मूल्यों के विश्लेषण की कोई जरूरत नहीं है। मूल्य तो व्यक्तिगत या समूहगत अधिमान्यताओं (Individual or Group Preference) का संकेत देते हैं जो किन्हीं विशेष सामाजिक परिस्थितियों में जन्म लेती हैं, और उन्हीं परिस्थितियों के साथ जुड़ी होती हैं। समकालीन समाज अपने लिए उपयुक्त मान्यताएँ स्वयं विकसित कर लेगा; राजनीति-वैज्ञानिकों को केवल राजनीतिक व्यवहार (Political Behaviour) के क्षेत्र में कार्य-कारण सिद्धांत (Causal Theory) के निर्माण में अपना योग देना चाहिए।
कुछ भी हो, ईस्टन ने डेढ़ दशक बाद अपना दृष्टिकोण बदल दिया। 1969 में अमेरिकन पॉलिटिकल साइंस एसोसिएशन के अध्यक्षीय व्याख्यान के अंतर्गत ईस्टन ने राजनीति विज्ञान की व्यवहारवादी क्रांति को एक नया मोड़ देते हुए 'उत्तर-व्यवहारवादी क्रांति' (Postbehavioural Revolution) की घोषणा कर दी। वस्तुतः ईस्टन ने राजनीति विज्ञान को एक शद्ध विज्ञान (Pure Science) से ऊपर उठाकर अनुप्रयुक्त विज्ञान (Applied Science) का रूप देने की माँग की, और वैज्ञानिक अनुसंधान को समकालीन समाज की विकट समस्याओं के समाधान में लगाने पर बल दिया। मतलब यह है कि अब ईस्टन ने समकालीन समाज पर छाए हुए संकट को पहचाना और उसके निवारण के लिए राजनीति-सिद्धांत के पुनरुत्थान की आवश्यकता अनुभव की। .
1950 से शुरू होने वाले दशक में राजनीति-सिद्धांत के ह्रास या पतन के बारे में जो विवाद चला था, उसके संदर्भ में अनेक समकालीन विचारकों ने अपने-अपने विचार व्यक्त किए।
अल्फ्रेड कॉबन ने 1953 में ही 'पालिटिकल साइंस क्वार्टी' में प्रकाशित अपने लेख के अंतर्गत यह तर्क दिया कि समकालीन समाज में न तो पूँजीवादी प्रणालियों में राजनीति-सिद्धांत की कोई प्रासंगिकता रह गई है, न साम्यवादी प्रणालियों में। पूँजीवादी प्रणालियाँ उदार लोकतंत्र (Liberal Democracy) के विचार पर आधारित हैं, परंतु आज के युग में लोकतंत्र का एक भी सिद्धांतकार विद्यमान नहीं है। फिर, इन प्रणालियों पर एक विस्तृत अधिकारितंत्र (Bureaucracy) और विशाल सैनिक तंत्र (Military Machine) हावी हो गया है जिससे इनमें राजनीति-सिद्धांत की कोई भूमिका नहीं रह गई है। दूसरी ओर, साम्यवादी प्रणालियों में एक नये तरह के दलीय संगठन (Party Organization) और छोटे-से गुटतंत्र (Oligarchy) का वर्चस्व है। अतः इनमें भी राजनीति-सिद्धांत की कोई प्रासंगिकता नहीं रह गई है।
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