परंपरागत राजनीतिक सिद्धांत की सीमाओं का वर्णन कीजिए। परंपरागत राजनीतिक सिद्धान्त की सीमाएँ परंपरागत राजनीतिशास्त्र या परंपरागत राजनीतिक सिद्धान्त की न
परंपरागत राजनीतिक सिद्धांत की सीमाओं का वर्णन कीजिए।
शास्त्रीय राजनीतिशास्त्र की सीमाओं पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।
परंपरागत राजनीतिक सिद्धान्त की सीमाएँ
परंपरागत राजनीतिशास्त्र या परंपरागत राजनीतिक सिद्धान्त की निम्नलिखित सीमाएँ गिनाई जा सकती हैं -
1. अस्पष्ट विषय क्षेत्र - मानव जीवन के सम्पूर्ण चिन्तनात्मक पहलुओं से सम्बद्ध होने के कारण इन विचारकों को किसी भी विशेष या अनुशासन से जोड़ने में उनके वर्गीकरण की कठिनाई उत्पन्न हो जाती है। आधुनिक शब्दावली में उनके चिन्तन-क्षेत्र को अधि-अनुशासनात्मक (trans-disciplinarian) माना जा सकता है। प्लेटो, अरस्तू, रूसो, मार्क्स आदि प्रमुख विचारक लगभग सभी सामाजिक विषयों एवं विज्ञानों में महत्वपूर्ण स्थान ग्रहण किये हुए हैं। उनके समय में विभिन्न विषयों, विशेष रूप से राजनीतिक विज्ञान ने, निजी विशिष्टता, स्वायत्तता एवं पृथकत्व ग्रहण नहीं किया था। यह विषय-क्षेत्र बवचमद्ध सम्बन्धी अस्पष्टता हमें विरासत में मिली है। .
2. बाधक - मानव अस्तित्व और विश्वास के प्रथम-स्तरीय नियमों (first order principles) से सम्बन्धित होने के कारण अधिकांश पुरातन राजनीतिक 'सिद्धान्त' प्रायः बौद्धिक हैं। वे तर्क एवं निगमनात्मक निष्कर्षों पर आधारित हैं। इसी कारण, वे यथार्थ एवं व्यवहार से विलग हो गये हैं। उनके निष्कर्ष गणितीय परिमाणन, तथ्य-संग्रह, पर्यवेक्षणात्मक सत्यापन, सर्वेक्षण जैसे पद्धति-विज्ञान (methodology) की तकनीकी विधियों पर आश्रित नहीं है। कुछ अनुभववादी विचारक, जैसे मैकियावेली, हॉब्स, बेन्थम आदि अवश्य हुए हैं, लेकिन उनका अनुभववाद या यथार्थवाद राजनैतिक संस्थाओं के सम्बन्ध में आकारगत (formal), कानूनी (legal), और संस्थात्मक (institutional) रहा है। वे राजनीति को न्यायशास्त्रीय तथा कानूनी पहलुओं से ही देख पाये हैं। उनके अनुसन्धान तथा विश्लेषण की प्रमुख विधियाँ ऐतिहासिक एवं विवरणात्मक रही हैं। उनकी जाँच के मुख्य विषय राज्य, सरकार, राजनैतिक संस्थायें, राज्य के लक्ष्य (न्याय, सुरक्षा, स्वतन्त्रता, लोक-कल्याण, समानता, नैतिकता, आदि) रहे हैं। इनका अध्ययन उन्होंने एक सार्वभौम समाज-सुधारक, एक सर्वसिद्धविचारक और एक धर्म-प्रचारक (missionary) की भाँति किया।
3. विरोधी विचारधारायें - परम्परागत राज-दार्शनिकों (Political Philosophers) की आत्मनिष्ठ (subjective) विचारधारायें प्रायः परस्पर मेल नहीं खातीं, और न ही उनमें इस परस्पर विरोधी स्थिति के प्रति जागरूकता पायी जाती है। दूसरे शब्दों में, उनमें एक सामान्य राजनीतिक सिद्धान्त विकसित करने की चेष्टा नहीं पायी जाती। उनमें विभिन्न अनुशासनों से विशेषतः विकसित समाजशास्त्रों से, प्रविधियाँ और निष्कर्ष ग्रहण करने का सुझाव नहीं पाया जाता। अपनी इन स्वयंसिद्ध भावनाओं के कारण लगभग सभी विचारक एक-दूसरे से द्वीपवत् अलगाव रखते हैं; किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि प्राचीन राजनीतिक चिन्तन निरर्थक है या उसने राजनीतिक विचारों के विकास में कोई योगदान नहीं दिया है।
4. परम्परागत में मूल्य महत्वपूर्ण - संक्षेप में, परम्परागत राजविज्ञान कतिपय आदर्शों, मूल्यों और धारणाओं को सर्वोपरि मानता है। वह कतिपय संस्थाओं-राज्य, सरकार, कानून आदि के इर्द-गिर्द अपना व्यक्तिनिष्ठ अध्ययन करता है। उसमें विचारक का उद्देश्य वर्तमान संस्थाओं का समर्थन, विरोध या सुधार करना होता है। वह स्वयं एक आदर्शवादी, सुधारक या कल्पनावादी का रूप धारण कर लेता है। परिणामस्वरूप केन्द्रीय धारणाओं, पद्धतियों तथा मूल लक्ष्यों के विषय में विविधता, बहुलता और भिन्नता होने के कारण, राजविज्ञान एक ऐसा 'अनुशासन' (?) बनकर रह गया है, जिसकी कोई बौद्धिक पहचान या व्यक्तित्व नहीं है; न उसका अनुशासनों से निकट सम्बन्ध है और न ही उसके पास एक सामान्य राजनीतिक सिद्धान्त है। फिर भी, उसमें अपने आपको परम सत्य, अन्यतम तथा सर्वोपरि मानने की अहं भावना पायी जाती है।
वस्तुतः शास्त्रीय विचारक परम्परावाद का समर्थन करते समय स्वयं दार्शनिक, धार्मिक अथवा अबौद्धिक आदर्शलोकवादी (utopian) व्यक्ति बन जाते हैं। वे यह नहीं समझते कि सत्य, आदर्श या मूल्य कितना ही विशुद्ध एवं उपयोगी क्यों न हो, उसे सामाजिक स्थितियों में लाने और उतारने के लिये मानव-स्वभाव, मानव-व्यवहार तथा उसकी सीमाओं का ध्यान रखना होता है। बिना मानव-व्यवहार का अध्ययन किये किसी भी आदर्श को यथार्थ बनाने की बात सोची भी नहीं जा सकती। संस्कृति, सभ्यता, परम्परायें, परिपाटियाँ और संस्थायें मानव-व्यवहार से उत्पन्न विशिष्ट प्रतिमान हैं।
मनुष्य की आस्थायें, विचार, भावनायें, मूल्य आदि मानव-समाज में अभिव्यक्त होने पर ही विचारणीय-त्याज्य या अनुकरणीय कहे जा सकते हैं। इसका पता भी मानव के व्यवहार का अवलोकन करके ही लगाया जा सकता है। अन्यथा, वे सभी मूल्य या आस्थायें व्यक्ति तक ही सीमित रह जाती हैं।
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