वैश्वीकरण के नकारात्मक प्रभाव पर निबंध Vaishvikaran ke Nakaratmak Prabhav
वैश्वीकरण एक आधी सच्चाई और अधूरी अवधारणा है। इसके कई नकारात्मक प्रभाव भी है। आधी सच्चाई इस अर्थ में कि इसके घटित होने की प्रक्रिया जितनी तेज और सुनियोजित
है, पूरी दुनिया के पैमाने पर इसकी अमलदारी को लेकर बहुत सारे सवाल खड़े हो
रहे हैं जिनके समुचित जवाब तलाशे बगैर यह प्रक्रिया खतरनाक मोड़ ले सकती है। दूसरी
तरफ, यह एक सर्वथा आधुनिक अवधारणा है जिसे कभी भी मध्यकालीन
अंदाज में ‘अंतिम सत्य’ मानकर नहीं
चला जा सकता। आइए अध्ययन की सुविधा के लिए हम पहले इस आधी-अधूरी सच्चाई के
विभिन्न पहलुओं पर क्रमवार चर्चा करें। फिर विचार व विचारधारा की कसौटी पर इस
अवधारणा मात्र की शक्ति व सीमा को चिन्हित करने का प्रयास करें।
(क) सामाजिक
आधार
सामाजिक और समाजशास्त्रीय दायरे में इस पर नजर
डाली जाये तो कहा जा सकता है कि दुनिया के किसी खास राष्ट्र या क्षेत्र में उत्पादित
होने वाले वस्तु (माल) व उसके प्रतिरूपों तथा सूचना का प्रवाह अन्य राष्ट्रों
और क्षेत्रों की तरफ होने की प्रक्रिया वैश्वीकरण की पहली प्रत्यक्ष सच्चाई है।
प्रमुख उपकरण जो विकसित हुए हैं, वे हैं- अंतराष्ट्रीय व
बहुराष्ट्रीय कंपनियां, उपग्रह दूरसंचार सेवा और सबसे
अद्यतन इंटरनेट। सर्वाधिक चर्चित उत्पाद हैं : एमटीवी, कोका
कोला जैसे नरम पेय, मैकडोनाल्ड के त्वरित खाद्य (फास्ट
फूड) रेस्तरां, नाइक जूते और डिज्नी फिल्में। आमतौर पर
तर्क यह दिया जाता है कि वैश्वीकरण की इस प्रक्रिया के जरिये राष्ट्रों और व्यक्तियों
के बीच के सांस्कृतिक अंतरों को कम किया जा रहा है या बिल्कुल समाप्त करके एक
एकल वैश्विक संस्कृति का निर्माण करने की दिशा मे हम बढ़ रहे हैं। किंतु देखा यह
भी जा रहा है कि वस्तुओं और सुचनाओं का वर्चस्वकारी प्रवाह प्राय: पश्चिमी अथवा
पश्चिमी ढर्रे के औद्योगीकृत राष्ट्रों की तरु से विकासशील राष्ट्रों की ओर ही
हो रहा है। कुछ पर्यवक्षकों का मानना है कि वैश्वीकरण एक मात्र समझौताविहीन सांस्कृतिक
साम्राज्यवाद है जो पारस्परिक जीवन शैलियों की कोई इज्जत नहीं करता और उन्हें
उखाड़ फेंकने पर आमादा है। क्योंकि यह व्यक्तियों को पश्चिमी उत्पादों और पश्चिमी
उपभोक्ता समाजों की संवदेनशीलताओं को अपनाने के लिए उत्प्रेरित करता है। वहीं
कुछ भिन्न मत रखने वाले पर्यवेक्षकों के मुताबिक स्थिति उतनी निराशाजनक नहीं है।
क्योंकि पश्चिमी उत्पादों से जुड़ी सांस्कृतिक अर्थवत्ताओं, शैलियों, स्वरूपों और विभिन्न राष्ट्रों की
विविधतापूर्ण संस्कृतियों को तरजीह देते हुए भी आखिरकार विकासशील राष्ट्रों की
स्थानीय विशेषताओं, अबोहवा और जरूरतों को ही आधार बनाया
जाता है। श्रम और संसाधन की स्थानीय रंगत बनी रहती है।
(ख) आर्थिक आधार
आर्थिक स्तर पर वैश्वीकरण की इस प्रक्रिया में
पश्चिमी शैली के पूंजीवाद को उपलब्धियों को विकासशील राष्ट्रों के लगातार बड़
होते समूहों के साथ साझा किया जाता है। इसके मूल स्त्रोत शीतयुद्धोत्तर दुनिया
में अपेक्षाकृत अधिक उन्मुक्त लोकतांत्रिक प्रणाली की राज्य व्यवस्थाओं के
विस्तार में ढंढे जा सकते हैं जब लातीनी अमरीका, पूर्वी
यूरोप, दक्षिण अफ्रीका और सुदूरपूर्व तथा दुनिया के उन तमाम
अछूते इलाकों तक में उन्मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था की पैठ होने लगी। इस नयी
विश्व अर्थव्यवस्था के अंतर्गत कमतर व्यापार प्रतिबंध,
विनिमय नियंत्रणों की समाप्ति, लागत पूंजी का उन्मुक्त
प्रवाह और सार्वजनिक क्षेत्र को क्रमश: निरस्त करके उसकी जगह निजी क्षेत्र के
वर्चस्व की स्थापना यानी निजीकरण कुछ स्पष्ट लक्षित की जाने वाली परिघटनाएं
हैं। नतीजे के तौर पर औद्योगिक लोकतांत्रिक राष्ट्रों से बड़े पैमाने पर पूंजी
विकासशील राष्ट्रों में स्थानांतरित होती है। अकेले 1996 में निजी पूंजी का यह
प्रवाह 250 खरब डालर तक पहुंच गया था। वित्तीय सेवाओं के नये तेजी से बढ़ते बाजार
क्षेत्र में सर्वाधिक लाभ की स्थिति में अमरीकी निवेशकर्ता बैंक जे. पी. मॉर्गन
एवं मेरिल लिंच जैसी वैश्विक वित्तीय संस्थाएं हैं। लेकिन इसके साथ ही साथ कुछ
विकासशील राष्ट्र भी लाभान्वित हुए हैं। विशेषतया सुदूर पूर्व और लातीनी अमरीका
के देशों की अर्थव्यवस्था में तेजी से सुधार हुआ है और फिर आगे चल कर पूर्वी
यूरोप में भी। तथापि इस वैश्वीकरण के कुछ बड़े ही नकारात्मक प्रभाव हुए हैं। जैसे कि
तमाम विकासशील राष्ट्रों में भ्रष्ट्राचार का ग्राफ तेजी से बढ़ा है, धनी व गरीब के बीच की खाई भी चिंताजनक रूप से चौड़ी होती गयी है और वित्तीय
अस्थिरता के दौर भी खूब आये हैं। मैक्सिको इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। जिसकी
अर्थव्यवस्था के ध्वस्त होने पर क्लिंटन प्रशासन को भी झटका लगा था और वित्तीय
इतिहास मे सबसे बड़ा बचाव ऑपरेशन करना पड़ा था।
वैश्वीकरण के आर्थिक पहलू पर विचार करते हुए
हमारा ध्यान अनायास ही अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व व्यापार संगठन जैसी
अंतराष्ट्रीय संस्थाओं पर जाता है। ये दोनों ही संस्थाएं बड़े औद्योगिक राष्ट्रों
के पक्ष में मुख्य रूप से उन्हीं के निवेश के बूते खड़ी की गयी हैं जो विकासशील
राष्ट्रों की तरफ आर्थिक प्रवाह को उन्हीं की शर्तों पर नियंत्रित करती हैं और
यहां तक कि लाभार्थी मुल्कों पर बड़ी ही क्रूर शर्तें थोपती हैं। इतना ही नहीं
विकासशील राष्ट्रों की तरह-तरह से घेराबंदी करके ये शक्तिशाली देश उन पर जबरन ये
प्रवाह कर्ज के रूप में लादते हैं। दरअसल धनी देशों के निवेशकर्ता इस नयी वैश्विक
बाजार व्यवस्था के तहत अपना धन अपने देश की जगह कहीं और निवेश करने लगे हैं, खास करके उन विकासशील देशों में जहां उन्हें ज्यादा मुनाफा होता है।
इसलिए कि वहां कच्चा माल बहुतायत में उपलब्ध है और श्रम शक्ति भी बहुत सस्ती
है। इंटरनेट और कम्प्यूटर के जरिये सेवा क्षेत्र तक में यह विस्तार देखा जा
सकता है। भाड़े पर ऐसी सेवाएं प्रदान करने के मामले में इस समय भारत अग्रणी है।
लेकिन दूसरी तरफ वस्तुओं और पूंजी का प्रवाह जिस हद तक बढ़ा है उस हद तक श्रम शक्ति
यानी लोगों की आवाजाही नहीं बढ़ी है। धनी औद्योगिक राष्ट्र अपनी वीजा नीति के
जरिए अपनी राष्ट्रीय सीमाओं के बड़ी चालाकी से अभेद्य बनाये रखते हैं ताकि इन
विकासशील देशों के नागरिक आकर उनके नागरिकों के नौकरी-धंधे न हथिया लें जबकि कुशल
प्रतिभाओं को तरह-तरह की अतिरिक्त सुविधाएं और प्रलोभन देकर अपने यहां उनका भरपूर
दोहन और इस्तेमाल करने से नहीं चूकते। यह दोहरी नीति कुछ वैसी है जैसे कि मुक्त
व्यापार के नाम पर विकासशील देशों को तो उनके उत्पादकों-व्यापारियों को मिलने
वाला संरक्षण प्राप्त करने पर मजबूर करते हैं, खुद अपने
यहां तरह-तरह के संरक्षण पूरी बेशर्मी से बनाये रखते हैं। चीन-जापान जैसे कुछ भिन्न
पृष्ठभूमि वाले बड़े राष्ट्र भले ही इन धनी औद्योगिक पश्चिमी राष्ट्रों के
साथ कुछ हद तक अपनी शर्तों पर व्यापार करने में सक्षम हों,
पर वास्तव में विकासशील देशों की यह हैसयित नहीं है कि अपने को उनका चारागाह बनने
से बचा सकें। ऐसे मे उन कुछेक अर्थशास्त्रियों के मत विचारणीय लगते हैं जिन्होंने
आर्थिक वैश्वीकरण को विश्वका पुन: उपनिवेशीकरण कहा है।
(ग) राजनीतिक
आधार
वैश्वीकरण का राजनीतिक स्वरूप सर्वाधिक विडम्बनापूर्ण
है। मुक्त बाजार और व्यापार की इस निर्बाध प्रक्रिया में संलग्न राष्ट्रों की
सरकारों की भूमिका क्या हो, यह अहम प्रश्न है। एक तरफ
राष्ट्र-राज्य की सीमाओंका अतिक्रमण जरूरी है तो दूसरी तरफ इनकी अपनी
संप्रभुताएं हैं। समाजवादी राज्यों के अभेद्य किले तो ढह ही गये अब कल्याणकारी
राज्य की अवधारणा भी पुरानी पड़ गयी है। इस वैश्वीकृत दुनिया में न्यूनतम हस्तक्षेपकारी
राज्य चाहिए जो मुख्यत: इस मुक्त व्यापार में प्रबंधक की भूमिका निभाये और उसके लिए मार्ग प्रशस्त करे। अपनी
जमीन पर कुछेक औपचारिक कामों तक अपने को सीमित रखें, जैसे
कानून और व्यवस्था को बनाये रखना और अपने नागरिकों की सुरक्षा करना। यहां तक कि
उन नागरिकों के जीवन की सामाजिक-आर्थिक प्राथमिकताएं बाजार तक करेगा और उसकी
शर्तों के प्रति उनकी सीधी जवाब देही भी होगी। पूरी दुनिया में बहुराष्ट्रीय निगम
अपने पैर पसार चुके हैं और राष्ट्र-राज्य की संप्रभुताएं उनके अधिकार क्षेत्र
में दखल नहीं दे सकती। लोक कल्याणकारी राज्यों के जिम्मे जो काम होते थे अपने
नागरिकों को संरक्षण और प्रोत्साहन देने के, उनसे हाथ खींच
लेना अब उनकी मजबूरी है। परमाणु-अप्रसार का मामला हो,
आतंकवाद से निपटने की चुनौती हो, चाहे विदेश नीति और राजनय
की अपनी क्षेत्रीय प्राथमिकताएं, हमने देखा है कि भारत जैसा
विशाल संप्रभु लोकतंत्र भी अब उतना दृढ़ नहीं रह गया है। अत्याधुनिक प्रौद्योगिकी
और सूचना-संचार के जो नये संसाधन राज्य को सहज ही हसिल हो गये हैं उनका उपयोग
अपने नागरिकों की निगरानी और गाहे-बगाहे अनुशासन-दमन में वह भले कर ले, उन नागरिकों के कल्याणार्थ उसकी अपनी राष्ट्रीय परियोजनाओं की गुंजाइश
धीरे-धीरे समाप्त होती जा रही है। ऐसे में सामाजिक न्याय और सामाजिक समरसता को
बनाये रखने में सरकारें जो जिम्मेदारियां निभाती थीं उनसे हाथ खींच लिए जाने पर
एक हद तक असामाजिक असंतोष और असंतुलन स्वाभाविक है। इन जिम्मेदारियों से उन
बहुराष्ट्रीय निगमों का क्या लेना देना? साफ देखा जा रहा है कि आर्थिक वैश्वीकरण
से हमारी आबादी का एक बहुत ही छोटा तबका तो जरूर मालामाल हो रहा है, पर नौकरी और शिक्षा, स्वास्थ्य, साफ-सफाई जैसे जन कल्याण के मामलों में सरकार पर आश्रित रहने वाले लोग
बदहाल हो रहे हैं। सामाजिक न्याय के पक्षधर लोगों की तरफ से एक सुझाव यह आया है
कि सांस्थानिक स्तर पर एक सामाजिक सुरक्षा कवच तैयार किया जाना चाहिए ताकि
आर्थिक रूप से कमजोर तबकों को वैश्वीकरण के दुष्प्रभावों से बचाया जा सकें। यह
सुरक्षा कवच कितना उपयुक्त, किस हद तक कारगर होगा यह अपने
आज में विवाद का विषय है, पर क्या हमारी सरकारों में ऐसे
कदमों के लिए राजनीतिक इच्छा शक्ति बची रह गयी है।
(घ) सांस्कृतिक
आधार
पूर दुनिया को एक अन्मुक्त बाजार में समेटने
का सीधा प्रभाव यह हो रहा है कि तमाम राष्ट्रों की अपनी-अपनी पांरपरिक संस्कृतियां
क्षरित होने के कगार पर हैं और एक सांस्कृतिक समरूपता हर जगह हावी हो रही है। व्यापार
के लिहाज से ऐसा फायदेमंद हो सकता है लेकिन सांस्कृतिक स्वायत्ता, विविधता और बहुलता का अपना महत्व है। यह कोई अलग से उत्तम किस्म की
विश्व संस्कृति भी नहीं कही जा सकती जैसा प्राय: ‘वसुधैव
कुटुम्बकम’ के तर्ज पर ‘विश्व ग्राम’ के नये मिथक के रूप में पेश किया जाता है। सूचना-संचार के त्वरित व
गतिशील संजाल की बदौलत दुनिया बदौलता दुनिया के तमाम राष्ट्रों के बीच दुरियां मिट-सी
गयी हैं। लेकिन सिर्फ दूरियां कम होना कोई मायने नहीं रखता क्योंकि यहां तो
कोस-कोस पर नयी बानी-बोली और नये रीति-रिवाजों की विविधता सहस्राब्दियों से अपनी
महत्ता बनाए हुए है। दरअसल इस समरूपता का सीधा तात्पर्य यह है कि विश्व संस्कृति
के नाम पर पश्चिमी धनी राष्ट्रों से विकासशील राष्ट्रों की ओर हो रहा है और
पूरी तरह उन्हीं की शर्तों पर। बेशक मुनाफे की शकल में यह पूंजी कई गुना बढ़े हुए
रूप में उनके पास वापस जाती है लेकिन इससे तो उनका वर्चस्व ही पुष्ट होता है। यह
वर्चस्व वास्तव में वह सच्चाई है जिसे हम राजनीतिक भाषा में ‘सत्ता की संस्कृति’ कहते हैं। स्थानीय रंग-रेशों
से परे यह तो निरंकुश सत्ता-संस्कृति हम ताकतवर समाजों पर अपनी छाप छोड़ती है और
संसार वैसा ही दीखता है जैसा ताकतवर संस्कृतिइसे बनाना चाहती है। यह सिर्फ
वेश-भूषा या चाल-ढाल के स्तरकी बात नही है जैसा कि दुनिया के ‘मैक्डोनाल्डीकरण’ की तरफ इशारा करते हुए कही जाती
है। यह हमारे जैसे तमाम विकासशील राष्ट्रों की सांस्कृतिक धरोहरों के संकटग्रस्त
व विनष्ट होने का संकेत है जो पूरी मानवता के लिए खतरनाक है। हां वस्तुओं और
जीवन शैलियों की त्वरित आवाजाही की बदौलत तात्कालिक रूप से एक सांस्कृतिक
विभिन्नता के दर्शन जरूर होते हैं और परस्पर संपर्क के लाभ बेशक स्थानीय संस्कृतियों
को भी मिल रहा है। यह भी सकारात्मक बात है कि ‘रष्ट्रीय
संस्कृति’ के रूप में इन राष्ट्रों का इकहरापन टूट रहा है
और उनकीअपनी ही कुछ उपेक्षित छोटी-छोटी संस्कृतियां खुल कर सांस लेने लगी हैं।
वैश्विक पूंजी अपने तर्को-तकाजों से ऐसे सुदूर क्षेत्रों में प्रवेश कर रही हैं
जो विकास से विषमतापूर्ण मॉडलोंक के चलते उपेक्षित रहे हैं।
अंतत: कसौटी विचारधारा की
जैसा कि शुरू में ही संकेत किया गया कि “वैश्वीकरण” की यह अवधारणा अधूरी है। इसके पीछे ‘नवाउदारवाद’ की विचाराधारा है जो शीतयुद्धोत्तर
दुनिया में निरंकुश होकर अपने पांव पसार रही है। उदारवाद अपने आप में पूंजीवाद
संस्कृति का सबसे मजबूत पक्ष रहा है जिसमें हर व्यक्ति के उन्मुक्त विकास की
अनंत संभावनाओं को खोलने का संकल्प था। पारंपरिक मध्याकालीन समाजों की
राजसत्ताएं इतनी निरंकुश थीं कि बराबरी से हर व्यक्ति के अपने विकास के लिए कोई
अवकाश नहीं देती थी। पूंजीवादी उदारवाद ने उनके लिए अवकाश ही नहीं पूरा आकाश खोल
दिया। व्यापार, उद्योगीकरण, विज्ञान व
तकनीकों के निरंतर नये-नये आविष्कार इन सबने मिलकर आधुनिक खुले समाज की नींव रखी।
और मानना पड़ेगा कि मानव सभ्यता ने सिर्फ दो-तीन शताब्दियों मे और फिर तीव्र
तकनीकी विकास की बदौलत कुछेक दशकों में वे छलांगें लगा लीं जो सहस्राब्दियों तक
जमी रहने वाली सभ्यताएं नहीं हासिल कर पायी थीं। लेकिन चढा़न के बाद ढलान के दौर
भी आते हैं। नवउदारवाद का सबसे खतरनाक पहलू यह है कि वह सामुदायिक भावना का सर्वथा
तिरस्कार करता है अथवा उसे दोयम दर्जे की चीज मानता है। यह भी मानकर चलता है कि
यह दोयम दर्जे की पुछल्ली-सी चीज अपने आप ‘पैसिव’ तौर पर नत्थी होती जायेगी। यहां तक कि जो राज्य अस्थायी तौर पर ही सही, सामुदायिक संरक्षण व संवर्धन की गारंटी हुआ करते थे, वे अब व्यक्तिगत निजी व उन्मुक्त स्वतंत्रताओं के लिए मात्र प्रबंधन
की भूमिका में डाल दिए गए हैं। एक दूसरे तरह की निंरकुशता हमारी सभ्यता का आधार
बनती जा रही है। राज्य मशीनरी का काम इस निरंकुश उन्मुक्त वैयक्तिक स्वतंत्रता
के लिए संसाधन जुटाना और उनका अनुकूल प्रबंधन करना रह गया है। क्या यह समाजवादी
मॉडल के ध्वस्त होने के बाद का जलजला है। पूंजीवाद के चरम विकास के बाद उसके
रूढ़ और प्रतिक्रियावादी शक्ल रूप धारण करते जाने के संकेत है। ऐसे में क्या कोई
सुसंगत मॉडल बन पायेगा जो सभ्याता और संस्कृति के अब तक की अर्जित उपलब्धियों
को धरोहर के रूप में संजो सके तथा जो सचमुच इस नयी सहस्राब्दी में नये मनुष्य की
संकल्पना पेश कर सके। वैश्वीकरण की अवधारणा को अभी इन कसौटियों पर कसा जाना शेष
है।
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