सभ्यता का विकास संस्कृति का हास पर निबंध Culture and Civilization in Hindi
किसी समाज,
राज्य अथवा राष्ट्र या संस्थान की मूल पहचान वहां प्रचलित नियमों और वहां के
लोगों द्वारा किये जा रहे उन नियमों के पालन से होती है। हमारे पूर्वज जो पूर्व में
झुण्डों में रहे फिर उन्होनें समाज जैसी इकाइयों का गठन कर उसमें रहने वाले
लोगों के लिए कुछ नियम एवं कानूनों का निर्माण किया जिसका पालन करना उन्होंने
बाध्यकारी समझा और इस प्रकार हमें हमारे पूर्वजों से सभ्यता व संस्कृति जैसी
विरासतें नियमों और कानूनस्वरूप प्राप्त हुई, किसी सुगठित,
सुशासित व सज्जन व्यक्तियों से परिपूर्ण समाज हमें हमारे पूर्वजों की बनायी गयी
नियमों व कानूनों की प्रणालियों के फलस्वरूप ही प्राप्त हुआ है,
उन्होंने उन विशिष्ट नियमों का गठन कर उनका सख्ती से पालन किया जिसे आज हम
आधुनिक काल में हमारी संस्कृति की संज्ञा देते हैं।
सभ्यता व संस्कृति
दोनों परस्पर एक-दूसरे से संबद्ध है। यदि समाज में प्राचीन काल से चली आ रही
विचारधाराओं का पालन आज वैज्ञानिकता के समीकरण स्वरूप समाज में पालन किया जाता है
तो यह निश्चित है कि वह समाज अन्य देशों, राज्यो अथवा समाज की विकसित प्रणाली के समय
असफल अथवा अविकसित घोषित होता है, क्योंकि पूर्वकाल में बनाये गये नियम व कानून
एवं प्रचलित प्रणालियां उस काल की उपलब्धता के अनुसार ही थीं वे आज के वैज्ञानिक युग
से एकदम अनभिज्ञ थीं। अत: अंशत: यह कहा जा सकता है कि विकास की ओर बढ़ते हुए हमारी
संस्कृति कहीं न कहीं ह्रास का ग्रास बनती जा रही है।
सभ्यता व संस्कृति
प्राय: मात्र किसी समाज अथवा राष्ट्र की ही नहीं अपितु किसी भी क्षेत्र व संस्थान
की भी हो सकती है। उदाहरणस्वरूप यदि हम किसी सामाजिक सेवा में संस्थान की सभ्यता
व संस्कृति का अवलोकन करें तो हमें ज्ञात होगा कि वहां के लोगों द्वारा किया जा
रहा व्यवहार उतना ही सामान्य एवं जमीनी धरातल से जुड़ा होता है जितना कि उस संस्था
द्वारा लाभन्वित व्यक्ति विशेष का अपने स्वयं के परिवेश से,
जबकि किसी औद्योगिकी इकाई का अवलोकन करें तो हमें प्राप्त होगा कि वहां का मशीनीकरण
वहां कार्यरत लोगों पर भी हावी रहता है, अत: इस प्रकार वहां दोनों ही संस्थानों की
संस्कृति एवं स्भ्यता अलग-अलग ही नहीं अपितु आकाश व धरती के मध्य की दूरी सी
प्रतीत होती है।
पूर्व में प्रचलित मान्यताओं
व विचारधाराओं का पालन करने वाला समाज अथवा संस्थान अविकसित की श्रेणी में गिना
जाता है। जबकि समयानुसार प्रचलित मान्यताओं को स्वीकार करना एवं उसके अनुकूल
आचरण करना प्रगतिशील एवं विकसित होने की निशानी समझे जाते हैं। अत: इन नवीन
विचारधाराओं के रंग में स्वयं को ढालने की प्रक्रिया में संस्कृति का ह्यास ही
होता है। यदि हम वैश्विक परिवेश में देखते हैं तो हमें यह दृष्टिपात होता है कि
वैश्वीकरण ने लोगों एवं विभिन्न समाज में प्रचलित मान्यताओं और सभ्यता का
बहुत ही शीघ्रता से आदान-प्रदान कर उस समाज में प्रचलित संस्कृति को
आधुनिकीकरण अथवा परिवर्तित करने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया है,
जिसका परिणाम आज प्रत्यक्ष रूप से परिलक्षित होता है। हमारे आधुनिक समाज में छात्र-छात्राओं,
बालक-बालिकाओं एवं परिवारों में किये जा रहे बदलाव और व्यवहारगत परिवर्तन इस बात
का द्योतक है कि भारत जैसा एक सांस्कृतिक विरासत से भरापूरा देश भी पाश्चात्य
सभ्यता से प्रभावित हुए बिना इतर नहीं रहा है। भारतीय सभ्यता में जहां माता-पिता
अथवा संबंधों की ही प्रधानता थी, में आज एकल परिवारें की संख्या का
दिन-प्रतिदिन बढ़ता जाना एवं वृद्धा आश्रमों का दिन-प्रतिदिन विकसित होते जाना यह
संकेत देता है कि आज आधुनिक समाज में भारत किस प्रकार विकिसत हो रहा है तथा उसके
नैतिक मूल्य जिनके बारे में यह कहा जाता था कि वचनबद्धता तथा चारित्रिक उत्थान
ही सर्वोपरि है आज का समाज इन गुणों से किस प्रकार परिपूर्ण हो रहा है तथा कहां
इनका ह्रास हो रहा है, संस्कृति का पतन व उत्थान तथा उसके परिणामस्वरूप
प्रचलित सभ्यता पूर्ण रूप से तकनीकी विकास से जुड़ी हुई है। आज छात्र अथवा भविष्य
निर्माणकर्ता कहे जाने वाले शिक्षक पूर्णत: इन्टरनेट जैसी प्रणालियों पर निर्भर है।
आज के युवा नैतिक मूल्यों को विकसित करने वाली दादा-दादी की कहानियां एवं रामायण
जैसी ग्रन्थों का श्रवण करने व कराने की बजाय इन्टरनेट आधारित ‘रोबोट
द्वारा युद्ध जीतने की प्रणालियों एवं मतिभ्रष्ट करने वाले कार्यक्रमों को देखकर
उनमें स्वयं को ढालने पर जोर दे रहे हैं, जिससे सभ्यता विकसित हो रही है किन्तु संस्कृति
का विलुप्तीकरण होता जा रहा है। आधुनिक सभ्यता ‘लिविंग रिलेशनशिप’
मात्र पैसा एवं स्वार्थसिद्धि’ प्रलोभन तथा मात्र व्यापार पर आधारित हो चुकी
है, जिसकी संस्कृति को अर्जित करने वाले समाज में सज्जन पुरुष,
सज्जनता, मानवता, नैतिक मूल्यों चारित्रिक गुणों के नितांत अभाव
मात्र के अतिरिक्त कुछ प्राप्त होने वाला नहीं है।
अत: यह अत्यंत आवश्यक
है कि यदि सभ्यता एवं संस्कृति दोनों को समन्वित करते हुए समाज,
राज्य, राष्ट्र अथवा संस्थान का विकास किया जाए तो
निश्चित तौर पर वैश्वीकरण का अर्थ वसुधैव कुटुम्बकम् में परिणित हो सकता है।
एवंम् विधवा विवाह, सती प्रथा का अंत,
बाल विवाह का अंत एवं आधुनिक समय में प्राप्त समस्त वैज्ञानिक सुविधाएं जिन्होंने
मानव विकास में योगदान दिया है, सभ्यता एवं संस्कृति के समुचित तथा समन्वित विकास
का ही परिणाम हैं। अत: यह आवश्यक है कि हम अपने आने वाले समाज को सांस्कृतिक
विरासत के रूप मं उच्च नैतिक मूल्य तथा सर्वोश्रेष्ठ सभ्यता को प्रदान करने वाले
आचरण का कटिबद्धता से पालन करें, जिससे हमारी संस्कृति व सभ्यता दोनों ही
विकसित हो सकें।
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