भारत में जल प्रबंधन पर निबंध Water management in India
जल ही जीवन है। अर्थात जल के बिना पृथ्वी पर जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। जल, मानव जाति के लिए प्रकृति के अनमोल उपहारों में से एक है। जल या पानी एक आम
रासायनिक पदार्थ है जिसका अणु दो हाइड्रोजन परमाणु और एक ऑक्सीजन परमाणु से बना
है – H2O यह सारे प्राणियों के जीवन का आधार है। आमतौर
पर जल शब्द का प्रयोग द्रव अवस्था के लिए उपयोग में लाया जाता है पर यह ठोस अवस्था
(बर्फ) और गैसीय अवस्था (भाप) या जल वाष्प) में भी पाया जाता है। पानी जल-अत्मीय
सतहों पर तरल-क्रिस्टल के रूप में भी पाया जाता है।
पृथ्वी का लगभग 71
प्रतिशत सतह जल से आच्छदित है जो अधिकतर महासागरों और अन्य बड़े जल निकायों का
हिस्सा होता है। खारे जल के महासागरों में पृथ्वी का कुल 97 प्रतिशत,
हिमनदों और धरुवीय बर्फ चोटियों में 2.4 प्रतिशत और अन्य स्त्रोतों जैसे नदियों,
झीलों और तालाबों में 0.6 प्रतिशत जल पाया जाता है। पृथ्वी पर बर्फीली चोटियों,
हिमनद, झीलों का जल कई बार धरती पर जीवन के लिए साफ जल
उपलब्ध कराता है। शुद्ध पानी H2O स्वाद में फीका होता है जबकि सोते (झरने) के
पानी या लवणित जल (मिनरल वाटर) का स्वाद इनमें मिले खनिज लवणों के कारण होता है।
सोते (झरने) के पानी या लवणित जल की गुणवत्ता से अभिप्राय इनमें विषैले तत्वों,
प्रदूषकों और रोगाणुओं की अनुपस्थिति से होता है।
भारत में जल के उपयोग
की मात्र बहुत सीमित है। इसके अलावा, देश के किसी न किसी हिस्से में प्राय: बाढ़ और
सूखे की चुनौतियों का भी सामना करना पड़ता है। भारत में वर्षा में अत्यधिक स्थानिक
विभिन्नता पाई जाती है और वर्षा मुख्य रूप से मानसूनी मौसम संकेद्रित है। भारत
में कुछ नदियाँ, जैसे गंगा, ब्रह्मपुत्र और सिंधु
के जल ग्रहण क्षेत्र बहुत बड़े हैं। गंगा, ब्रह्मपुत्र और बराक नदियों के जलग्रहण क्षेत्र
में वर्षा अपेक्षाकृत अधिक होती है। ये नदियां देश के कुल क्षेत्र के लगभग
एक-तिहाई भाग में पाई जाती हैं जिनमें कुल धारातलीय जल संसाधनों का 60 प्रतिशत जल
पाया जाता है। दक्षिणी भारतीय नदियों, जैसे गोदावरी, कृष्णा और कावेरी में
वार्षिक जल प्रवाह का अधिकतर भाग काम में लाया जाता है,
लेकिन ऐसा ब्रह्मपुत्र और गंगा बेसिनों में अभी भी संभव नहीं हो सका है।
जल संसाधन का लगभग 46
प्रतिशत गंगा और ब्रह्मपुत्र बेसिनों में पाया जाता है। उत्तर-पश्चिमी प्रदेश और
दक्षिणी भारत के कुछ भागों के नदी बेसिनों में भौम जल का उपयोग अपेक्षाकृत अधिक
है। पंजाब, हरियाण, राजस्थान और तमिलनाडु राज्यों में भौम जल का
उपयोग बहुत अधिक है। परंतु कुछ राज्य, जैसे छत्तीसगढ़, उड़ीसा,
केरल आदि अपने भौम जल क्षमता का बहुत कम उपयोग करते हैं। गुजरात,
उत्तर प्रदेश, बिहार, त्रिपुरा और महाराष्ट्र अपने भौम जल संसाधनों
का दर से उपयोग कर रहे हैं। यदि वर्तमान प्रवृत्ति जारी रहती है तो जल के माँग की
आपूर्ति करने में कठिनाई होगी। ऐसी स्थिति विकास के लिए हानिकारक होगी और सामाजिक
उथल-पुथल और विघटनका कारण हो सकती है।
कृषि में,
जल का उपयोग मुख्य रूप से सिंचाई के लिए होता है। देश में वर्षा के स्थानिक-सामयिक
परिवर्तिता के कारण सिंचाई की आवश्यकता होती है। देश के अधिकांश भाग वर्षविहीन और
सूखाग्रस्त हैं। उत्तर-पश्चिमी भारत और दक्कन का पठार इसके अंतर्गत आते हैं।
देश के अधिकांश भागों में शीत और ग्रीष्म ऋतुओं में न्युनाधिक शुष्कता पाई जाती
है इसलिए शुष्क त्रतुओं में बिना सिंचाई के खेती करना कठिन होता है। पर्याप्त
मात्र में वर्षा वाले क्षेत्र जैसे पश्चिमी बंगाल और बिहार में भी मानसून के मौसम
में वर्षा सूखे जैसी स्थिति उत्पन्न कर देती है जो कृषि के लिए हानिकारक होती
है। कुछ फसलों के लिए जल की कमी सिचांई को आवश्यक बनाती है। सिंचाई की व्यवस्था
बहुफसलीकरण को संभव बनाती है। ऐसा पाया गया है कि सिंचित भूमि की कृषि उत्पादकता
असिंचित भूमि की अपेक्षा ज्यादा होती है। दूसरे, फसलों की अधिक उपज
देने वाली किस्मों के लिए अर्द्रता आपूर्ति नियमित रूप से आवश्यक है जो केवल
विकसित सिंचाई तंत्र से ही संभव होती है। वास्तव में ऐसा इसलिए है कि देश में
कृषि विकास की हरित क्रांति की रणनीति पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अधिक सफल
हुई है।
गुजरात,
राजस्थान, महाराष्ट्र, म.प्र.,
प. बंगाल, उ.प्र. आदि राज्यों में कुओं और नलकूपों से
सिंचित क्षेत्र का भाग बहुत अधिक है। इन राज्यों में भौम जल संसाधन के अत्यधिक
उपयोग से भौम जल स्तर नीचा हो गया है। वास्तव में, कुछ राज्यों,
जैसे राजस्थान और महाराष्ट्र में अधिक जल निकालने के कारण भूमिगत जल में ‘लोराइड
का संकेंद्रण बढ़ गया है और इस वजह से पश्चिम बंगाल और बिहार के कुछ भागों में
संखिया के संकेंद्रण की वृद्धि हुई है। पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी
उत्तर प्रदेश में गहन सिंचाई से मृदा में लवणता बढ़ रही है भौम जल सिंचाई में कमी
आ रही है।
जल की प्रति व्यक्ति
उपलब्धता, जनसंख्या बढ़ने से दिन प्रतिदिन कम होती जा
रही है। उपलब्धता जल संसाधन औद्योगिक, कृषि और घरेलू निस्सरणों से प्रदूषित होता जा
रहा है और इस कारण उपयोगी जल संसाधनों की उपलब्धता और सीमिता होती जा रही है।
जल गुणवत्ता से तात्पर्य
जल की शुद्धता अथवा अनावश्यक बाहरी पदार्थों से रहित जल से है। जल से बाईं
पदार्थों, जैसे सूक्ष्म जीवों,
रासायनिक पदार्थों, औद्योगिक और अन्य अपशिष्ट पदार्थों से
प्रदूषित होता है। इस प्रकार के पदार्थ जल के गुणों में कमी लाते हैं और इसे मानव
उपयोग के योग्य नहीं रहने देते हैं। जब विषैले पदार्थ झीलों,
सरिताओं, नदियों, समुद्रों और अन्य जलाशयों में प्रवेश करते हैं
तब वे जल में घुल जाते हैं अथवा जल में निलंबित हो जाते हैं। इससे जल प्रदूषण
बढ़ता है और जल के गुणों में कमी आने से जलीय तंत्र (aquatic system) प्रभावित होते हैं। कभी-कभी प्रदूषक नीचे तक पहुँच जाते हैं
और भौम जल को प्रदूषित करते हैं। देश में गंगा और यमुना,
दो अत्यअधिक प्रदूषित नदियाँ हैं।
वैधानिक व्यवस्थाएँ,
जैसे- जल अधिनियम 1974 प्रदूषण का निवारण और नियंत्रण और पर्यावरण सुरक्षा अधिनियम
1986, प्रभावपूर्ण् 1977, जिसका उद्देश्य प्रदूषण कम करना है,
उसके भी सीमित प्रभाव हुए। जल के महत्व और जल प्रदूषण के अधिप्रभावों के बारे में
जागरूकता पैदा करने की आवश्यकता है। जन जागरूकता और भागीदारी से,
कृषिगत कार्यों तथा घरेलू और औद्योगिक विसर्जन से प्राप्त प्रदूषकों में बहुत
प्रभावशाली ढंग से कमी लाई जा सकती है।
पुन: चक्र और पुन:
उपयोग अन्य दूसरे रास्ते हैं जिनकेद्वारा अलवणीय जल की उपलब्धता को सुधारा जा
सकता है। कम गुणवत्ता के जल का उपयोग, जैसे शोधित अपशिष्ट जल,
उद्योगों के लिए एक आकर्षक विकल्प हैं। इसी तरह नगरीय क्षेत्रें में स्नान और
बर्तन धोने में प्रयुक्त जल को बागवानी के लिए उपयोग में लाया जा सकता है। वाहनों
को धोने के लिए प्रयुक्त जल का उपयोग भी बागवानी में किया जा सकता है। इससे अच्छी
गुणवत्ता वाले जल का पीने के उद्देश्य के लिए संरक्षण होगा। वर्तमान में,
पानी का पुन: चक्रण एक सीमित मात्र में किया जा रहा है। फिर भी,
पुन: चक्रण द्वारा पुन: पूर्तियोग्य जल की उपादेयता व्यापक है।
जल संभर प्रबंधान से
तात्पर्य, मुख्य रूप से, धारातलीय और भौम जल
संसाधनों के दक्ष प्रबंधन से है। इसके अंतर्गत बहते जल को रोकना और विभिन्न
विधयों, जैसे अंत: स्रवण तालाब,
पुनर्भरण, कुओं आदि के द्वारा भौम जल का संचयन और
पुनर्भरण शामिल हैं। जल संभर प्रबंधन के अंतर्गत सभी संसाधनों जैसे- भूमि,
जल, पौधो और प्राणियों और जल संभर सहित मानवीय संसाधनों के
संरक्षण, पुनरुत्पादन और विवेकपूर्ण उपयोग को सम्मिलित
किया जाता है।
केंद्र और राज्य
सरकारों ने देश में बहुत से जल-संभर विकास और प्रबंधन कार्यक्रम चलाए हैं। इनमें
से कुछ गैर सरकारी संगठनों द्वारा भी चलाए जा रहे हैं। ‘हरियाली’
केंद्र सरकार द्वारा प्रवर्तित जल-संभर विकास परियोजना है जिसका उद्देश्य ग्रामीण
जनसंख्या को पीने, सिंचाई, मत्स्य पालन और वन रोपण के लिए जल संरक्षण के
लिए योग्य बनाना है। परियोजना लोगों के सहयोग से ग्राम पंचायतों द्वारा निष्पादित
की जा रही है।
वर्षा जल संग्रहण
विभिन्न उपयोगों के लिए वर्षा के जल को रोकने और एकत्र करने की विधि है। इसका
उपयोग भूमिगत जलभृतों के पुनर्भरण के लिए भी किया जाता है। यह एक कम मूल्य और
पारिस्थितिकी अनुकूल विधा है जिसके द्वारा पानी की प्रत्येक बूँद संरक्षित करने
के लिए वर्षा जल को नलकूपों, गड्ढ़ो और कुओं में एकत्र किया जाता है वर्षा
जल संग्रहण पानी की उपलब्धता को बढ़ाता है, भूमिगत जल स्तर को नीचे जाने से रोकता है,
प्लोराइड और नाइट्रेट्स जैसे संदूषकों को कम करके अवमिश्रण भूमिगत जल की गुणवत्ता
बढ़ाता है, मृदा अपरदन और बाढ़ को रोकता है।
अलवणीय जल की घटती हुई
उपलब्धता और बढ़ती माँग से, सतत् पोषणीय विकास के लिए इस महत्वपूर्ण
जीवनदायी संसाधन के संरक्षण और प्रबंधन की आवश्यकता बढ़ गई है। विलवणीकरण द्वारा
सागर/महासागर से प्राप्त जल उपलब्धता, उसकी अधिक लागत के कारण,
नगण्य हो गई है। भारत को जल-संरक्षण के लिए तुरंत कदम उठाने हैं और प्रभावशाली
नीतियाँ और कानून बनाने हैं और कानून बनाने हैं और जल संरक्षण हेतु प्रभावीशाली
उपाय अपनाने हैं। जल बचत तकनीकी और विधायों के विकास के अतिरिक्त प्रदूषण से बचाव
के प्रयास भी करने चाहिए। जल-संभर विकास, वर्षा जल संग्रहण,
जल के पुन: चक्रण और पुन: उपयोग और लंबे समय तक जल की आपूर्ति के लिए जल के संयुक्त
उपयोग को प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है।
0 comments: