लक्ष्मी का स्वागत एकांकी का सारांश - Lakshmi ka Swagat Ekanki ka Saransh
‘लक्ष्मी का स्वागत’ एकांकी उपेंद्रनाथ ‘अश्क’ द्वारा लिखित सामाजिक विद्रूपताओं पर चोट करने वाली एक सशक्त रचना है। इस एकांकी की कथावस्तु पारिवारिक होते हुए भी दूषित सामाजिक मान्यताओं और परंपराओं की ओर संकेत करती है और आज के मनुष्य की धन-लोलुपता, स्वार्थ-भावना, हृदयहीनता तथा क्रूरता का यथार्थ रूप प्रस्तुत करती है। लक्ष्मी का स्वागत एकांकी का सारांश निम्नवत है– जिला जालंधर के इलाके में मध्यम श्रेणी के मकान के दालान में सुबह के नौ-दस बजे बाहर मूसलाधार वर्षा हो रही है। मध्यम श्रेणी परिवार का सदस्य रौशन अपने पुत्र अरुण की बढ़ती बीमारी से बहुत दु:खी है। वह बार-बार अपने पुत्र की नाजुक स्थिति को देखकर घबरा जाता है। उसकी पत्नी सरला का देहांत एक माह पूर्व हो चुका है। उसके दु:ख को वह भूल भी नहीं पाता कि उसका पुत्र डीफ्थीरिया (गले का संक्रामक रोग) से पीड़ित हो गया। उसकी स्थिति प्रतिक्षण बिगड़ती जा रही है। वह अपने भाई भाषी को डॉक्टर को लेने भेजता है। उसका मित्र सुरेंद्र उसे हिम्मत बँधाता है परंतु बाहर के मौसम को देखकर उसका मन डरा हुआ है। वह सुरेंद्र से कहता है कि -‘‘मेरा दिल डर रहा है सुरेंद्र, कहीं अपनी मां की तरह अरुण भी मुझे धोखा न दे जाएगा?’’ डॉक्टर आकर बताता है कि अरुण की हालत बहुत खराब है। वह इंजेक्शन दे देता है और गले में पंद्रह-पंद्रह मिनट बाद दवाई की दो चार बूँदे डालते रहने की सलाह देता है। वह रौशन को भगवान पर भरोसा रखने को कहता है। इसी बीच सियालकोट के व्यापारी रौशन के लिए रिश्ता लेकर आते हैं। रौशन की माँ आकर उससे मिलने के लिए कहती है। वह रौशन के मित्र सुरेंद्र से उसे समझाने को कहती है कि वह रौशन को समझाकर ले आए। परंतु सुरेंद्र अरुण की बीमारी के कारण अपनी असमर्थता जताता है। पुत्र-प्रेम में रौशन पागल-सा हो जाता है और अपनी माँ को रिश्ते वालों को वापस लौटा देने को कहता है। रौशन की माँ पुनर्विवाह का समर्थन करते हएु उसे रामप्रसाद व उसके पिता का उदाहरण देती है। तभी रौशन का पिता आता है और अरुण की बीमारी को बहानेबाजी बताता है क्योंकि रौशन सियालकोट वालों से नहीं मिलना चाहता और रौशन को आवाज लगाकर सियालकोट वालों से मिलने को कहता है। रौशन के इंकार पर वह शगुन लेने को कहता है कि मै घर आई लक्ष्मी का निरादर नहीं कर सकता।
रौशन का पिता उसकी माँ से कहता है कि मैंने पता लगा लिया है कि सियालकोट में इनकी बड़ी भारी फर्म है और इनके यहाँ हजारों का लेन-देन है। रौशन के पिता शगुन लेने चले जाते हैं और सुरेंद्र रौशन की माँ से दीये का प्रबंध करने को कहता है क्योंकि अरुण संसार से जा रहा है। फानूस टूटकर गिर जाता है। अंत में रौशन के पिता शगुन लेकर माँ को बधाई देने आते हैं। इसी समय अरुण संसार से विदा लेता है और रौशन मृत बालक का शव लिए आता है। रौशन के पिता के हाथ से हुक्का गिर जाता है और माँ चीख मारकर धम्म से सिर थामे बैठ जाती है। सुरेंद्र के संवाद-‘‘ माँजी, जाकर दाने लाओ और दीये का प्रबंध करो’’ के साथ एकांकी का समापन होता है।
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