Samaj aur Vyakti Nibandh ki Summary and Question Answer : मित्रों आज के लेख में हमने महादेवी वर्मा की सुप्रसिद्ध निबंध समाज और व्यक्ति का सारांश प्रस्तुत किया है। इस लेख के अंतर्गत हम समाज और व्यक्ति का सारांश तथा प्रश्नोत्तर (Samaj aur Vyakti Nibandh Question Answer) और इस निबंध के महत्वपूर्ण बिंदुओं (Important Points) के बारे में जानेंगे।
समाज और व्यक्ति निबंध का सारांश
महादेवी वर्मा द्वारा लिखित 'समाज और व्यक्ति' निबंध 'श्रृंखला की कड़ियाँ' से लिया गया है। श्रृंखला की कड़ियाँ 'चाँद' पत्रिका में समय-समय पर महादेवी द्वारा लिखे गए विभिन्न निबंधों का संग्रह है। इसमें मुख्य रूप से भारतीय नारी की समस्याओं को उठाया गया है। 'समाज और व्यक्ति', में लेखिका ने समाज और व्यक्ति का गंभीर विवेचन किया है। यह एक विचारात्मक और शोधपरक निबंध है। समाज कैसे बना? उसमें किस प्रकार और कैसे परिवर्तन हुए? कैसे व्यक्ति की आवश्यकताएँ समाज को विकसित करती चली गई और समाज व्यक्ति को बनाता चला गया। दोनों में संबंध क्या है? वर्चस्व का जन्म कैसे हुआ? सामाजिक नियम और दंड-विधान क्यों बने? मनुष्य समाज से अलग रह सकता है कि नहीं? इन सभी सवालों पर गहन चिंतन किया गया है। वे समाज को एक ऐसी संस्था मानती हैं जिसमें समान आचरण और व्यवहार करने वाले मनुष्य परस्पर विश्वास और सहानुभूतिपूर्ण जीवन जीते हैं। परस्पर सह-अस्तित्व की भावना ही वास्तविक सामाजिक संवेदना है। इसी में सामाजिक कल्याण संभव है। अगर प्रत्येक व्यक्ति सामाजिक विकास की व्याख्या अपने-अपने ढंग से करने लगे तो वह पशु श्रेणी में आ जाएगा।
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समूहों में जीवनयापन करने की पद्धति नैसर्गिक रूप से पशुओं से मिलती है जबकि मनुष्यों ने इसे अपने विवेक से अर्जित किया है। समाज एक ऐसा रक्षा कवच है जो अपनी संरचना में मनुष्य के विकास का कार्य करने वाला प्रमुख कारक बन गया। मनुष्य की समाज से पृथक सत्ता संभव नहीं है। व्यक्ति और समाज के सरोकार पारस्परिक हैं। समाज जहाँ व्यक्ति के व्यवहार को नियंत्रित करता है वहीं उसकी क्षमताओं की स्वाभाविक प्रगति की पहलकदमी भी करता है। जैसे-जैसे व्यक्ति का मानसिक विकास होता गया वैसे-वैसे उसमें नैतिकता की उत्पत्ति हुई जिससे समाज सिर्फ समूह न रहकर एक संस्था में परिवर्तित हो गया और लौकिक सुविधाओं को प्राप्त कर मानसिक विकास के पथ पर अग्रसर हो गया। आत्मरक्षा की भावना ने एकता के सूत्र में बंधने को बाध्य किया। परस्पर सहानुभूति और सद्भाव ने एक दूसरे की आवश्यकताओं को समझने की शक्ति दी। जातिगत विशेषताओं की रक्षा ने विशेष नियम और दंड-विध पान को जन्म दिया। मनुष्य को स्वभाव से ही अज्ञात का भय था अतः अज्ञात कर्ता का निर्माण किया। सामाजिक नियमों और बंधनों के कारण मनुष्य परतंत्र है, किंतु यह व्यक्ति की रक्षा के लिए ही बने हैं।
प्रारंभ से ही अपने को सुखी बनाने के लिए मानव जाति प्रकृति से निरंतर संघर्ष करती रही है। अगर प्रकृति मनुष्य को सहयोग नहीं देती तो मानवता की अद्भुत कहानी नहीं लिखी जा सकती थी। व्यक्ति प्रकृति से सामाजिक प्रापी है अतः व्यक्ति का जितना अंश धर्म, शिक्षा आदि सामाजिक संस्थाओं के संपर्क में आता है, उतना ही वह समाज द्वारा शासित होता है। अगर समाज मनुष्यों का समूह मात्र नहीं है, तो मनुष्य भी केवल क्रियाओं का समूह नहीं है। दोनों के पीछे सामूहिक और व्यक्तिगत सुख-दुख की प्रेरणा है। इसी पर समाज चलता है।
किसी भी व्यक्ति के जीवन में अर्थ का अत्यंत महत्त्व है। लौकिक सुख इसी से संभव है। प्रत्येक व्यक्ति की अपनी मानसिक और शारीरिक क्षमता होती है फिर भी वे समाज के लिए बराबर के उपयोगी हैं। ऐसे समाज को लक्ष्य-प्रष्ट कहना चाहिए जो बिना परिश्रम वाले को सारी सुविधाएं उपलब्ध कराता है और परिश्रम करने वाले भूखे रहते हैं। किसी भी सामंजस्यपूर्ण समाज में परिश्रम और सुख की विषमता संभव नहीं है, क्योंकि यह स्थिति उस समझौते के एकदम विपरीत है जिसके द्वारा मनुष्य ने मनुष्य को सहयोग देना स्वीकार किया था। अर्थ के समान स्त्री-पुरुष संबंध भी समाज के लिए महत्त्वपूर्ण हैं क्योंकि गृह का आधार लेकर समाज का निर्माण हुआ।
आज हमारे समाज में अनेक विद्रूपताएँ आ गई है। धर्म को आधार बनाकर नियमों को व्यक्ति पर लादने की पछि ने व्यक्ति को परतंत्रता का बोध कराया। आज समाज का अर्थ जाति विशेष या संप्रदाय विशेष से लिया जाता है ।प्रत्येक समाज में विचारों की भिन्नता होती है, जो समाज को बनाने में अहम् भूमिका अदा करती है। पाश्चात्य संस्कृति ने हमें युद्ध की चुनौती न देकर मित्रता का हाथ बढ़ाया और हमारे दृष्टिकोण को बदल दिया, जिसमें शरीर अभारतीय और आत्मा भारतीय होकर रह गई।
निष्कर्षतः समाज में विषम अर्थ विभाजन और स्त्री की स्थिति समाज की नींव को खोखला कर रही है। इसकी जिम्मेदारी समाज के साथ-साथ शासन पर भी है। शक्ति से शासन किया जा सकता है, समाज का निर्माण नहीं।
Samaj aur Vyakti Nibandh ke Question Answer - समाज और व्यक्ति के प्रश्न उत्तर
(क) 'मनुष्य को समूह.......................आदिम युग की भावना सन्निहित है।'
प्रश्न-1 मनुष्य को समूह में रहने की प्रेरणा किस से प्राप्त हुई?
उत्तर- मनुष्य को समूह बनाकर रहने की प्रेरणा पशुओं से प्राप्त हुई। परंतु मूलभूत अंतर यह है कि मानव का क्रमिक विकास विवेक और तर्क पर आधारित है। मनुष्य के विकास में अंधप्रवृत्ति मात्र नहीं, बल्कि मानसिक विकास से जुड़ी हुई है। इस समूह ने विकास क्रम में एक समाज का रूप ले लिया जिसके कुछ अपने नियम और नैतिकता थी। इस तरह से पशु से प्रेरित मनुष्य ने अपने को पशु जगत से सर्वथा अलग कर लिया।
प्रश्न-2 विकास क्रम में मनुष्य का प्रारंभिक ध्येय क्या था?
उत्तर- मनुष्य अपने ज्ञान और तर्क के आधार पर समूह से समाज और फिर एक संस्था में बदल गया। नियम और नैतिकता का जन्म हुआ। संस्था के रूप में परिवर्तित होने के साथ ही उसमें रहने वाले लोगों को लौकिक सुविधाएँ प्रदान करना आरंभिक आवश्यकता बन गई। इस आवश्यकता ने मनुष्य को विकास के पथ पर अग्रसर कर दिया। प्रारंभिक आवश्यकता जीवन जीने की मूलभूत चीजें रहीं होंगी और जैसे-जैसे आवश्यकताएँ बढ़ी नई-नई चीज़ों का विकास होता गया।
प्रश्न-3 सामाजिक भावना का विकास कैसे हुआ?
उत्तर- आदिम युग का मनुष्य समूह में रहते हुए भी पारस्परिक स्वार्थ और उसकी समस्याओं से अपरिचित रहा होगा। इसी की क्रोड में सामाजिक भावना का विकास निहित है। स्वार्थ ने जहाँ समाज के अपने हित को जन्म दिया वहीं समस्याओं ने उन्हें एकता के सूत्र में बांधा। आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए दूसरे क्षेत्रों की तलाश ने परस्पर जोड़ने का कार्य किया। इस तरह परस्पर सहयोग से सामाजिक भावना का विकास हुआ।
प्रश्न-4 'एकता के सूत्र में बांधकर अपने आप को सबल बना सका' - कथन का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर- समाज ऐसे व्यक्तियों का समूह है जिन्होंने व्यक्तिगत स्वार्थों की सार्वजनिक रक्षा और अपने विषम आचरणों में अपने लिए कुछ नियम तय किए होंगे। सामाजिक आवश्यकता उन्हें नए क्षेत्रों की ओर ले गई जहाँ पर उन्हें अपनी शक्तियों के दृढ़तर संगठन की आवश्यकता का ज्ञान हुआ। एक साथ रहने के कारण परस्पर सहानुभूति और सद्भव का जन्म हुआ। इन सबने आत्मरक्षा की परस्पर भावना को जन्म दिया। यह तभी संभव हुआ जब वे एकता के सूत्र में बंधे। इस मूल मंत्र को मानव ने प्रारंभ में सीख लिया था।
प्रश्न-5 सामाजिकता का प्रासाद किन आधारों पर निर्मित हुआ?
उत्तर- स्थान विशेष की जलवायु तथा वातावरण के अनुरूप एक जाति रंग-रूप और स्वभाव में दूसरे से भिन्न रही है। प्रत्येक में आत्मरक्षा के साथ-साथ जातिगत विशेषताओं की रक्षा की भावना भी बढ़ी, जिससे जीवन संबंधी नियम विस्तृत और जटिल होने लगे। दंड-विधान का प्रावधान भी हुआ। इसके साथ पारलौकिक सुख-दुख की भावना भी बंध गई। मनुष्य स्वभाव से अज्ञात के प्रति भयभीत रहता था अतः अज्ञात कर्ता का निर्माण भी किया। इसके प्रभाव से मानवीय आचरण का जन्म हुआ। इस प्रकार लौकिक सुविधा की नींव पर नैतिक उपकरणों से धार्मिकता का रंग देकर हमारी सामाजिकता का भवन निर्मित हुआ।
(ख) 'व्यक्ति और समाज का संबंध..................................न संभव है और न वांछनीय।'
प्रश्न-1 व्यक्ति और समाज के संबंध को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर- व्यक्ति और समाज का अन्योन्याश्रित संबंध है इसलिए व्यक्ति के बिना समाज को उपस्थिति असंभव है। समाज का निर्माण व्यक्ति के स्वत्वों की रक्षा के लिए हुआ है और समाज की रक्षा के लिए व्यक्ति की आवश्यकता पड़ती है। इसलिए दोनों के बिना एक दूसरे का अस्तित्व नहीं है। सामाजिक प्राणी होने के नाते मनुष्य समाज में स्वतंत्र और परतंत्र दोनों ही है। परंतु समाज के विकास के लिए वह स्वतंत्र है। लेकिन जब मनुष्य अपनी सामाजिक उपयोगिता भूल जाता है तो समाज की क्षति होती है। विकास में बाधा पड़ जाती है।
प्रश्न-2 क्रांति किन परिस्थितियों में जन्म लेती है? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर- जैसा कि हम जानते हैं मनुष्य जाति का बर्बरता की स्थिति से निकलकर मानवीय गुणों तथा कला कौशल की वृद्धि करते हुए सभ्य और सुसंस्कृत होते जाना ही विकास है। लेकिन जहाँ समानता है वहाँ विषमता भी जन्म लेती है क्योंकि मनुष्य स्वभावतः भिन्न-भिन्न प्रकृति के होते हैं, इसलिए आचरण में विषमता अवश्य होगी। विषमता के केंद्र में स्वार्थ भावना निहित होती है जब इस विषमता की मात्रा सामंजस्य की मात्रा के समान या उससे अधिक हो जाती है तब सामाजिक प्रगति दुर्गति में बदल जाती है। इस विषमता का चरम सीमा पर पहुँच जाना ही क्रांति को जन्म देता है और एक नई समाज व्यवस्था का जन्म होता है। इसलिए परिवर्तन के लिए सामाजिक विषमता का होना भी जरूरी है।
प्रश्न-3 'मनुष्य की स्वतंत्रता कहाँ तक सीमित है? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर- व्यक्ति और समाज एक दूसरे के पूरक हैं, अलगाव असंभव है। परंतु यदि समाज का अर्थ संप्रदाय विशेष समझा जाए तो मनुष्य उससे स्वतंत्र रह सकता है क्योंकि यह स्वतंत्रता मानसिक जगत के अधिक करीब है। एक व्यक्ति अपनी विचारधारा में जितना स्वतंत्र हो सकता है उतना व्यवहार में नहीं हो सकता। मानसिक जगत का एकाकीपन व्यावहारिक जगत में संभव नहीं है। समाज का विकास सहयोग पर आधारित है ऐसे में समाज से व्यक्ति का नितांत स्वतंत्र होना किसी भी युग में संभव नहीं है।
प्रश्न-4 'समाज व्यक्ति के संपूर्ण जीवन में व्याप्त है' - इस कथन का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर- यह कथन सत्य है कि व्यक्ति समाज से अलग नहीं रह सकता परंतु यह कहना सत्य की उपेक्षा है कि समाज व्यक्ति के संपूर्ण जीवन में व्याप्त है। मनुष्य का स्वभाव अधिकांशतः शासन स्वीकार करने का नहीं है क्योंकि उसे बंधन में बाँधा नहीं जा सकता। जब वह सामाजिक संस्थाओं, धर्म, शिक्षा आदि के संपर्क में आया तो वह शासित होता चला गया। इसी से हम उसके विषय में अपनी धारणा बना लेते हैं। समाज यदि मनुष्यों का समूह मात्र नहीं है तो मनुष्य भी केवल क्रियाओं का समूह नहीं है। दोनों के पीछे सामूहिक और व्यक्तिगत इच्छा, हर्ष और दुखों की प्रेरणा है। इस तरह समाज की सत्ता दो रूपों में सामने आती है। एक के द्वारा वह अपने समाज के सदस्यों के व्यवहार और आचरणों पर शासन करता है और दूसरे के द्वारा वह उनकी स्वाभाविक प्रेरणाओं का मूल्य आंक कर उनके मानसिक विकास के लिए उपयुक्त वातावरण प्रस्तुत करता है।
प्रश्न-5 सभ्यता की परिस्थितियों में मनुष्य अपने सुख के साधन चाहता है-इस कथन को पुष्ट कीजिए।
उत्तर- अर्थ समाज का आधार स्तंभ होने के साथ-साथ मानवीय अनिवार्य आवश्यकताओं के लिए भी जरूरी है। बिना इसके जीवन की आधारभूत आवश्यकताएँ नहीं मिल सकती हैं। मानवीय समाज चाहे जिस स्थिति में हो उसे सुख-सुविधा चाहिए ही। ऐसा नहीं है कि मात्र सभ्य समाज के लोगों को ही भूख लगती है। बर्बर और सभ्य में अंतर सिर्फ इतना होता है कि एक अगर शक्ति के आधार पर सुख सुविधाएँ प्राप्त करने की कोशिश करता है तो दूसरा अपने परिश्रम से जीवन की आवश्यकताओं को प्राप्त करता है।
प्रश्न-6 समाज में सबल और दुर्बल की खाई को समाप्त करने के लिए किन-किन बातों का ध्यान रखा जाना चाहिए?
उत्तर- समाज और व्यक्ति का संबंध अन्योन्याश्रित है। विकास का संबंध एक-दूसरे से जुड़ा हुआ है परंतु सभी व्यक्तियों का शारीरिक तथा मानसिक विकास एक-सा नहीं होता और न ये सब एक जैसे कार्य के लिए उपयुक्त हो सकते हैं। फिर भी समाज के लिए उनकी उपयोगिता समान है। एक दार्शनिक, कृषक का कार्य चाहे न कर सकें, परंतु समाज को मानसिक भोजन अवश्य दे सकता है। इसी तरह कृषक और कुछ दे या न दे जीवन धारण के लिए अन्न देने की सामर्थ्य अवश्य रखता है। अतः समाज का कर्तव्य है कि वह अपनी पूर्णता के लिए सब सदस्यों को उनकी शक्ति और योग्यता के अनुसार कार्य देकर उन्हें जीवन की सुविधाएँ प्रदान करे।
(घ) जाति की वृद्धि और ..................... निरंतर परिवर्तन होता रहता है।
प्रश्न-1 'मनुष्य का ध्यान स्त्री की स्थाई उपयोगिता पर गया' - स्पष्ट करें।
उत्तर- प्रारंभ में जाति की वृद्धि और पुरुष का मनोविनोद का साधन होने के अतिरिक्त स्त्री का महत्त्व न के बराबर था परंतु जैसे-जैसे मानव समाज पशुत्व की परिधि से बाहर निकला स्त्री की उपयोगिता समझ में आने लगी। पुत्र को जन्म देने के कारण जाति की माता का सम्मान प्राप्त हुआ। स्त्री-पुरुष में आसक्ति का जन्म कब और कैसे हुआ, किसन समय के प्रवाह में गृह की नींव डाली यह कहना कठिन है परंतु दोनों की प्रकृत्ति और सहज बुद्धि ने उस अव्यवस्थित जीवन को समझ लिया। संघर्ष में लीन जातियों के पास अवकाश नहीं था परंतु ज्यों ही जीवन में शांति और स्थायित्व आया, तो स्त्री की मृदुता, सहचरी होने का आभास हुआ। जिससे मनुष्य को जीवन में एक अलग ढंग की सुख शांति प्राप्त हुई।
प्रश्न-2 इस अनुच्छेद के प्रमुख विचार सूत्र का उल्लेख कीजिए।
उत्तर- समाज के विकास क्रम में मानव जाति संघर्ष से स्थायित्व की ओर अग्रसर हुई तो उसे स्त्री की उपयोगिता का भान हुआ। स्त्री से मनुष्य समाज की वंश वृद्धि जुड़ गई। माता होने का गर्व प्राप्त हुआ। गृह निर्माण की नींव पड़ी, जो स्त्री के बिना संभव नहीं था। जब कभी पुरुष श्रांत और एकाकी हुआ तो सहचरी ने उसे सुख-शांति प्रदान कर दी। इस तरह पुरुष अपने धनुष-बाण और तलवार की तरह अपनी स्त्री को भी अपनी सत्ता कहने को आतुर हो उठा। स्त्री ने भी अनिश्चित और एकांतमय जीवन से थक हार कर अपने तथा अपनी संतान के लिए ऐसा साहचर्य स्वीकार कर लिया। अर्थात् स्त्री-पुरुष ने एक-दूसरे को समझते हुए आपसी सहयोग से समाज को अग्रसर कर दिया।
(ख) वेदकालीन समाज ........................ तब तक अपूर्ण ही रहेगा।
प्रश्न-1 'स्त्री-पुरुष की सहधर्मिणी निश्चित की गई' – कथन को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर- समाज ने अपने विकास क्रम में अज्ञात की सत्ता स्वीकार कर पारलौकिकता को जन्म दिया। जीवन धारण के द्वंद, आगे संगठित और जाति के वर्चस्व को बनाए रखने के लिए वर्ण-व्यवस्था का जन्म हो चुका था। धर्म जीवन का महत्त्वपूर्ण अंग बन गया। गृह जीवन का अनिवार्य हिस्सा बन चुका था। स्थायित्व गृह के बिना संभव नहीं था और स्त्री के बिना गृह नहीं। दोनों का उद्देश्य समाज को सुयोग्य संतान की भेंट देना। जाति की विधात्री होने के कारण स्त्री आवश्यक और आदरणीय बन गई।
प्रश्न-2 'एक बार पुरुष के अधिकार की परिधि में पैर रख देने के पश्चात् जीवन में तो क्या, मृत्यु में भी वह स्वतंत्र नहीं'-के आधार पर स्त्री की परतंत्रता का उल्लेख कीजिए।
उत्तर- स्त्री, पुरुष की सहधर्मिणी थी और समाज के विकास में बराबर की भूमिका का निर्वाह कर रही थी। लेकिन वैदिक काल तक आते-आते स्त्री की स्थिति में परिवर्तन हुआ। स्त्री चारदीवारी में बंद होती चली गई। वह संतान उत्पत्ति का साधन और अन्य धार्मिक संस्कारों को संपन्न करने का माध्यम बन कर रह गई। जैसे-जैसे सामाजिक उपयोगिता घटती गई वैसे-वैसे पुरुष व्यक्तिगत अधिकार भावना से उसे घेरता गया। अंत में यह स्थिति ऐसी पराकाष्ठा पर पहुँची कि जहाँ व्यक्तिगत अधिकार भावना ने स्त्री के सामाजिक महत्त्व को अपनी छाया से ढक लिया। और परतंत्रता स्त्री की नियति बन गयी।
उत्तर- स्त्री, पुरुष की सहधर्मिणी थी और समाज के विकास में बराबर की भूमिका का निर्वाह कर रही थी। लेकिन वैदिक काल तक आते-आते स्त्री की स्थिति में परिवर्तन हुआ। स्त्री चारदीवारी में बंद होती चली गई। वह संतान उत्पत्ति का साधन और अन्य धार्मिक संस्कारों को संपन्न करने का माध्यम बन कर रह गई। जैसे-जैसे सामाजिक उपयोगिता घटती गई वैसे-वैसे पुरुष व्यक्तिगत अधिकार भावना से उसे घेरता गया। अंत में यह स्थिति ऐसी पराकाष्ठा पर पहुँची कि जहाँ व्यक्तिगत अधिकार भावना ने स्त्री के सामाजिक महत्त्व को अपनी छाया से ढक लिया। और परतंत्रता स्त्री की नियति बन गयी।
प्रश्न-3 महादेवी वर्मा की भाषा-शैली और शिल्प की विशेषताओं को रेखांकित कीजिए।
उत्तर- भाषा प्रयोग के कारण भी महादेवी की कृतियाँ उत्कृष्ट कोटि की मानी जाती हैं। दृष्टिकोण उपयोगितावादी है। अपने विचारों के अनुरूप शब्दों का चयन किया है। भाषा शैली में सरसता और लालित्य का समावेश है। तत्सम शब्दावली की प्रधानता होने पर भी विचार या भाव की पाठक से साधारणीकरण करने में कहीं भी कठिनाई नहीं होती है। शैली लेखिका की पहचान के अनुरूप है। निबंध सघनता और शोधपरकता से भरा हुआ है। विचारों की गहनता पाठक को गहराई से सोचने को मजबूर करती है। निष्कर्षतः इसमें श्रेष्ठ निबंध के सभी तत्त्व मौजूद हैं।
उत्तर- भाषा प्रयोग के कारण भी महादेवी की कृतियाँ उत्कृष्ट कोटि की मानी जाती हैं। दृष्टिकोण उपयोगितावादी है। अपने विचारों के अनुरूप शब्दों का चयन किया है। भाषा शैली में सरसता और लालित्य का समावेश है। तत्सम शब्दावली की प्रधानता होने पर भी विचार या भाव की पाठक से साधारणीकरण करने में कहीं भी कठिनाई नहीं होती है। शैली लेखिका की पहचान के अनुरूप है। निबंध सघनता और शोधपरकता से भरा हुआ है। विचारों की गहनता पाठक को गहराई से सोचने को मजबूर करती है। निष्कर्षतः इसमें श्रेष्ठ निबंध के सभी तत्त्व मौजूद हैं।
0 comments: