मेरी पहली पर्वतीय यात्रा पर निबंध: मुझे आज भी अच्छी तरह याद है—मेरी पहली पहाड़ी यात्रा। वो गर्मियों की छुट्टियाँ थीं और शहर की गर्मी से सब परेशान थे।
मेरी पहली पर्वतीय यात्रा पर निबंध - My first Mountain Journey Essay in Hindi
मेरी पहली पर्वतीय यात्रा पर निबंध: मुझे आज भी अच्छी तरह याद है—मेरी पहली पहाड़ी यात्रा। वो गर्मियों की छुट्टियाँ थीं और शहर की गर्मी से सब परेशान थे। एक दिन पापा ने अचानक कहा, "चलो, इस बार कहीं ठंडी जगह घूमने चलते हैं।" हम सबका चेहरा खुशी से खिल उठा। मेरी छोटी बहन श्रेया तो खुशी से उछल पड़ी, और माँ मुस्कराने लगीं, जैसे उन्हें भी इस सैर की दरकार थी। मैं चुप था, पर अंदर से बहुत खुश।
यात्रा की तैयारी शुरू हो गई—स्वेटर, टोपी, चाय की थर्मस, कैमरा, सबकुछ पैक किया गया। अगले दिन हम नैनीताल जाने के लिए निकल पड़े। पापा गाड़ी चला रहे थे, माँ बगल में बैठी थीं और पीछे मैं और श्रेया। रास्ते में माँ ने खाने का टिफिन खोला—आलू के पराठे और अचार।
शुरुआत में रास्ता सीधा और आसान था, लेकिन जैसे-जैसे हम पहाड़ों की तरफ बढ़े, सड़कों ने घूमना शुरू कर दिया। एक तरफ गहरी खाई, दूसरी तरफ ऊँचा पहाड़, और बीच में हमारी कार। थोड़ी घबराहट भी थी, लेकिन उससे ज़्यादा रोमांच। रास्ते भर हर मोड़ पर कुछ नया दिखता—कभी झरना, कभी बादलों में छुपे पहाड़, तो कभी दूर-दूर तक फैले जंगल। कार की खिड़की से बाहर झाँकते हुए मैं बस देखता ही रह गया।
जैसे-जैसे ऊँचाई बढ़ी, हवा ठंडी होने लगी। माँ ने मुझे और श्रेया को स्वेटर पहनने को कहा। श्रेया थोड़ी चिढ़ गई क्योंकि उसे स्वेटर नहीं पहनना था, लेकिन माँ की डाँट से चुप हो गई। बीच-बीच में हमारी गाड़ी किसी चाय की दुकान या ढाबे पर रुकती, जहाँ हम गरमा-गरम चाय और पकौड़े खाते।
जब नैनीताल पहुँचे, तो झील देखकर मेरी साँस रुक-सी गई। चारों ओर ऊँचे-ऊँचे पहाड़, बीच में शांत और गहरी झील, और उसके किनारे रंग-बिरंगी नावें। माँ बोलीं, “देखो श्रेया, ये नैनी झील है।” उसके बाद हम अपने होटल की ओर बढ़े, जो झील के किनारे एक छोटी-सी पहाड़ी पर था। होटल का नाम था "लेक व्यू रिट्रीट"। जैसे ही हम अंदर दाखिल हुए, होटल के कर्मचारियों ने गर्मजोशी से हमारा स्वागत किया। हमारा कमरा दूसरी मंजिल पर था, और उसकी खिड़की से नैनी झील का पूरा नज़ारा दिखता था। बिस्तर पर मोटे, गर्म कंबल थे, और माँ ने तुरंत मुझे और श्रेया को एक कंबल ओढ़ा दिया। कमरे में एक छोटा-सा हीटर भी था, जो रात में बहुत काम आया।
अगले दिन सुबह हमने झील में नौका विहार का प्लान बनाया। नाव में बैठकर झील के ठंडे पानी को छूना और चारों तरफ पहाड़ों को देखना एक अनोखा अनुभव था। श्रेया ने पानी में पत्थर फेंकने की कोशिश की, और पापा ने उसे डाँटा, लेकिन फिर हँसते हुए खुद भी एक पत्थर फेंक दिया। हम सब हँस पड़े। नाव वाला भैया हमें नैनीताल की कहानियाँ सुनाने लगा—कैसे ये झील बनी, और इसके आसपास की लोककथाएँ। उसकी बातों में एक अलग ही जादू था।
दोपहर में हम माल रोड पर घूमने निकले। वहाँ की छोटी-छोटी दुकानों में रंग-बिरंगे स्कार्फ, मोमबत्तियाँ, और हस्तशिल्प का सामान देखकर माँ की आँखें चमक उठीं। श्रेया ने एक छोटा सा लकड़ी का खिलौना पसंद किया, और पापा ने उसे तुरंत खरीद दिया। रास्ते में एक मिठाई की दुकान पर हमने गरम-गरम जलेबियाँ खाईं, जो इतनी स्वादिष्ट थीं कि आज भी उनका स्वाद मेरे मुँह में है।
एक शाम बारिश हो गई। होटल के कमरे से बाहर सब कुछ धुँधला दिख रहा था। हम चारों खिड़की के पास बैठकर पकोड़े खा रहे थे। माँ ने टिफिन से गरम-गरम पराठे निकाले, पापा ने रेडियो ऑन किया और पुराना गाना चल पड़ा—“रिमझिम गिरे सावन...” और हम सभी पापा को देखकर मुस्कुराने लगे।
इस पूरी यात्रा में जो सबसे सुंदर बात लगी, वो थी वहाँ के लोगों की सादगी और मुस्कान। दुकानों पर खड़े लोग, होटल के कर्मचारी, सड़क पर चलते स्थानीय बच्चे—सभी बहुत शांत और खुशमिजाज थे। उनमें कोई दिखावा नहीं था, बस एक अपनापन था जो शहरों में अब कम ही मिलता है।
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