विनोबा भावे पर निबन्ध - Essay on Vinoba Bhave in Hindi
In this article, we are providing Long and short essay on Vinoba Bhave in Hindi language for students of class 3, 4, 5, 6, 7, 8, 9, 10, 11 and 12. इस लेख में पढ़े आचार्य विनोबा भावे पर छोटा व बड़ा निबंध।
विनोबा भावे पर छोटा निबन्ध Short Essay on Vinoba Bhave in Hindi
विनोबा भावे का जन्म 11 सितंबर, 1895 को गाहोदे, गुजरात, भारत में हुआ था। आचार्य विनोबा भावे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, सामाजिक कार्यकर्ता तथा गांधीजी के अनुयायी थे। वह गांधीजी की तरह ही अहिंसा के पुजारी थे। उनके पिता का नाम नरहरि शम्भू राव और माता का नाम रुक्मिणी देवी था। विनोबा भावे का मूल नाम विनायक नरहरि भावे था। उनकी मां उन्हें प्यार से विन्या कहकर बुलातीं थीं। विनोबा भावे भागवत गीता से बहुत ज्यादा प्रभावित थे। वो कहते थे कि गीता उनके जीवन की हर एक सांस में है। उन्होंने अपने जीवन के दौरान कई किताबें लिखीं जिनमे स्वराज्य शास्त्र, गीता प्रवचन, तीसरी शक्ति प्रमुख हैं। उन्होंने भूदान आन्दोलन चलाया। विनोबा से पहली ही मुलाकात में प्रभावित होने पर गांधी जी ने सहज-मन से कहा था, "बाकी लोग तो इस आश्रम से कुछ लेने के लिए आते हैं, एक यही है जो हमें कुछ देने के लिए आया है।" 1958 में विनोबा को प्रथम रेमन मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 15 नवम्बर 1982, वर्धा, महाराष्ट्र में उन्होंने अपने प्राण त्याग दिये।विनोबा भावे पर निबन्ध Long Essay on Vinoba Bhave in Hindi
भावे विनोबा भावे जन्म से महाराष्ट्रीय सारस्वत ब्राह्मण हैं। इनका जन्म 11 सितंबर, 1895 को गागोदा ग्राम में हुआ। माता पिता ने इनका नाम विनायक राव भावे रखा था। विनोबा नाम महात्मा गाँधी का दिया हुआ है। वे इन्हें इसी नाम से पुकारते थे।इनके तीन छोटे भाई और एक बहन है। भाई बहनों में ये सबसे बड़े हैं। इनकी माता बड़ी धर्मपरायण और भक्त महिला थीं। विनोबा पर माता के चरित्र और शिक्षाओं का बहुत प्रभाव पड़ा है। माता द्वारा सुनाई गई कहानियों से प्रभावित हो कर ही विनोबाजी ने आजन्म ब्रह्मचारी रहने का व्रत लिया था और वे बचपन से ही कठोर जीवन बिताने लगे।
गणित और संस्कृत की ओर इनकी विशेष रुचि थी। ये बड़े कुशाग्र बद्धि के थे। स्मरण शक्ति इनकी आश्चर्यजनक थी। युनिवर्सिटी की परीक्षा देने के लिए वम्बई जाते हुए भुसावल स्टेशन पर उतर कर संस्कृत पढ़ने के लिए बनारस चल दिये। वनारस में हिन्दू विश्वविद्यालय के समारोह पर महात्मा गाँधी का जो भाषण हुआ उससे यह बहुत प्रभावित हुए और महात्मा गाँधी के दर्शनों के लिए साबरमती आश्रम पहुँचे और वहाँ महात्मा गाँधी के रंग में ही रँग गये। अपने कठोर और तपस्वी जीवन से इन्होंने महात्मा गाँधी को भी बहुत प्रभावित किया। इनके सम्बन्ध में महात्मा गाँधी ने एक बार कहा था-"इस छोटी सी अवस्था में जो तेज और वैराग्य विनोवा ने प्राप्त किया है उसे पाने में मुझे कितने ही वर्ष लगे थे।
वर्धा आश्रम खोलने के लिए महात्मा गाँधी ने इन्हें ही भेजा था। इन्होंने वहाँ आश्रमवासियों के लिए बड़े ही कठोर नियम बनाये थे। प्रातः ४ बजे से रात १० वजे तक सबको काम करना पड़ता था। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शरीर-श्रम, अस्वाद, अभय, सब के लिए समान भाव, स्वदेशीपन और छूत-पात का भेद न करना इन ग्यारह व्रतों का पालन आश्रम में आवश्यक था।
सत्याग्रह आंदोलन में ये कई बार जेल गये । 1948 में महात्मा गाँधी के स्वर्गवास के बाद उनके सर्वोदय आन्दोलन के कार्य को इन्होंने ही संभाला। विनोबाजी की विशेष प्रसिद्धि उनके भूदान आन्दोलन से हुई है। यह आंदोलन सन् 1951 में हैदराबाद में शुरू हुआ। विनोबाजी वहाँ अपने साथियों सहित सर्वोदय सम्मेलन के लिए गये थे। पर वहाँ के गाँवों के किसानों की हालत देख कर वे आश्चर्य में आ गये। वहाँ भूमि के मालिक कुछ थोड़े से ज़मींदार थे। किसानों को खेती की मजदूरी में उपज का बीसवाँ भाग, वर्ष भर में एक कम्बल और एक जूता मिलता था। उनकी दुर्दशा देख विनोबा काँप उठे। बातचीत के दौरान में उन्हें पता लगा कि यदि उस गाँव के हरिजनों को 80 एकड़ भूमि मिल जाय तो उनका निर्वाह हो सकता है और उनकी हालत सुधर सकती है। पहले तो उन्होंने सोचा भारत सरकार को इस सम्बन्ध में कह कर कोई कानून बनवाया जाय पर फिर उन्हें ध्यान आया कि इसमें तो बहुत समय लगेगा। पता नहीं सरकार इस सम्बन्ध में कुछ कर भी सके या नहीं। अतः उन्होंने स्वयं ही बड़े-बड़े जमींदारों से भूमि दान करने की प्रार्थना की। २ मास में उन्हें 12 हजार एकड़ भूमि दान में मिली। उसके बाद यह आंदोलन सारे देश में ही शुरू हो गया। विनोबा जी अपने साथियों सहित हर एक प्रान्त में घूम घूम कर भूमिदान माँगने लगे। मार्च 1955 तक उन्हें 37 लाख एकड़ भूमि दान में मिल चुकी थी। भूमि-दान के साथ ही सम्पत्ति-दान का आंदोलन भी शुरू हुआ।
1958 में विनोबा को प्रथम रेमन मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उन्होंने अपने अंतिम दिनों में खाना या दवा लेने से इनकार कर दिया था। 15 नवम्बर 1982, वर्धा, महाराष्ट्र में उन्होंने अपने प्राण त्याग दिये।
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