अंधेर नगरी नाटक के आधार पर महंत जी का चरित्र-चित्रण: भारतेन्दु हरिश्चन्द्र द्वारा रचित हास्य नाटक 'अंधेर नगरी' में मुख्य तीन ही पात्र हैं जिनमें महंत
'अंधेर नगरी' नाटक के आधार पर महंत जी का चरित्र-चित्रण कीजिए।
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र द्वारा रचित हास्य नाटक 'अंधेर नगरी' में मुख्य तीन ही पात्र हैं जिनमें महंत जी वर्ग विशेष से सम्बन्धित हैं। वह नाटक के आरम्भ और फिर अन्त में मंच पर दिखायी देते हैं और दर्शक / पाठक पर अपनी बुद्धि और व्यवहार कुशलता की छाप छोड़ जाते हैं। महंत जी का चरित्र जीवन के बहुत निकट है। वह सहज रूप से जीवन व्यतीत करते हैं और कहीं भी अपना ऐसा रूप नहीं दिखाते जिसमे वह अन्य व्यावहारिक दिखायी देते हो उनका चारित्रिक विकास यथार्थ के बहुत निकट है। यद्यपि लेखक ने कहीं भी बलपूर्वक उनके चरित्र का विकास दिखाने का प्रयत्न नहीं किया तो वह सभी की बुद्धि को प्रभावित करने में समर्थ सिद्ध हुए हैं और चौपट को अपनी बुद्धि कौशल से फांसी के तख्ते पर पहुंचा कर सभी का मन जीत लेते हैं। उनके चारित्रिक विकास में निम्नलिखित प्रमुख विशेषताएं विद्यमान हैं—
1. ईश्वर भक्ति: महंत जी पूर्ण रूप से आस्तिक हैं और वर्ग विशेष का प्रतिनिधित्व करने वाले सक्षम पुरुष हैं। वह घर-गृहस्थी नहीं है। अपने दो शिष्यों नारायण दास और गोवर्धनदास के साथ वह सांसारिक मोह-माया से दूर रह कर ईश्वर भक्ति में जीवन व्यतीत कर रहे हैं। वह मानते हैं कि मानव का हर कार्य ईश्वर के द्वारा ही होना है। ईश्वर अपने भक्तों का कल्याण ही करते हैं। नाटक के छठे अंक में वह अपने चेले से यही बात कहते हैं— कोई चिन्ता नहीं, नारायण सब समर्थ है' महंत जी के जीवन का परम उद्देश्य एक ही है। वह रामभक्ति में अपना जीवन बिताना चाहते हैं-
राम के भजे से गनिका तर गई,
राम के भजे से गीध गति पाई।
राम के नाम से काम बने सब,
राम के भजन बिनु सबहिं नसाई।
राम के नाम से दोनों नयन बिनु
सूरदास भए कवि कुल राई।
राम के नाम से घास जंगल की
तुलसी दास भए भजि रघुराई।
उनकी राम-नाम में अटूट आस्था है और वह इसी में अपना जीवन व्यतीत करना चाहते हैं।
2. विवेकशील: महंत जी बुद्धिमान् हैं। वह आने वाले समय को जान लेने की क्षमता रखते हैं इसीलिए वह हर कष्ट से बच निकलने के कौशल को जानते हैं। अपने विवेक के कारण ही वह गोवर्धन दास को अंधेर नगरी छोड़कर अन्यत्र चले जाने की सलाह देते हैं और कहते हैं--
ऐसे देस कुदेस में, कबहुँ न कीजै बास।।
कोकिल द्वास एक सम पण्डित मूरख एक।
इन्द्रायन, दाडिम विषय, जहां न नेक विवेक।।
बसिए ऐसे देस नहिं, कनक वृष्टि जो होय।
रहिए तो दुःख पाइए, प्रान दीजिए रोय।।
महंत जी ने अपने विवेक का परिचय देते हुए ही गोवर्धन दास की चौपट राजा की फांसी के फंदे से रक्षा की थी। तथा अविवेकी राजा को वह फंदा प्रदान कर दिया था।
3. त्याग-भाव: महनत जी के जीवन में लोभ का कोई स्थान नहीं था। वह न तो स्वयं लोभी हैं और न ही अपने शिष्यों को लोभ के लिए कहते हैं। वह जीवन की गुजर-बसर के लिए थोड़े में ही अपना काम चलाना चाहते हैं। वह कहते हैं—–“देख, जो कुछ सीधा - सामग्री मिले तो श्री शालाराम जी का बाल-भोग सिद्ध हो।" वह अपने शिष्यों को लालच न करने की प्ररेणा देते हैं-
लोभ कभी नहिं कीजिए, या मैं नरक निदान।।
वह लोभ को पाप का मूल मानते हैं क्योंकि हर लोभी व्यक्ति धीरे-धीरे पाप के गर्त की ओर निरन्तर बढ़ता जाता है।
4. साधु प्रवृत्ति: महंत जी भारतीय समाज के महत्त्वपूर्ण साधु समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं। उनमें सभी विशेषताएं विद्यमान हैं जो किसी साधु महात्मा में होनी चाहिए। वह स्वभाव के गम्भीर हैं, मितभाषी है तथा गहन-गूढ़ बात ही करते हैं। उन्हें घर-गृहस्थी में कोई आकर्षण नहीं था। वह मधुर स्वर में भजन गाते है। उनका मानना है कि ईश्वर भक्ति से ही मानव जीवन के कष्ट कटते हैं। उनकी भाषा भी साधु-सन्तों के समान साधुक्कड़ी है—
- बच्चा गोवरधनदास, तू पच्छिम की ओर जा और नारायणदास पूरब की ओर जाएगा।
- बच्चा बहुत लोभ मत करना।
- देख, कुछ भिच्छा-उच्छा मिले तो ठाकुर जी को भोग लगे। और क्या।
- नहीं बच्चा हम इतना, समझाया नहीं मानता, हम बूढ़े भये, हम को जाने दे।
5. दयालु: यद्यपि महंत जी सांसारिकता के मोह में ग्रस्त नहीं है तो वह अपने शिष्यों के प्रति शुभ के भाव अवश्य रखते हैं ओर उनके दुःख के समय में सामान्य मानव और परोपकारी की तरह उनका साथ देते हैं। जब गोवर्धनदास अंधेर नगरी के आकर्षण में उलझकर वहीं रह गया था तब उनहोंने उसे वह जगह छोड़ देने का सुझाव दिया था लेकिन उसे कदापि वहां से जाने के लिए विवश नहीं किया था क्योंकि मानवीय मूल्यों को समझते हुए अपनी सीमाओं को जानते थे। जब गोवर्धनदास मुसीबत में पड़ जाता है तब वह उसे बचाने आते हैं। उसकी जीवन रक्षा ही नहीं करते बल्कि मूर्ख राजा को भी फांसी के फंदे पर ला खड़ा करते हैं। अपने शिष्य के हितैषी होने के कारण ही उसे कहते हैं, "मैं तो जाता हूं। पर इतना कहे जाता हूं कि कभी संकट पड़े तो हमारा स्मरण करना।"
6. चतुर: महंत जी दुनियादारी नहीं जानते हैं। वह चतुर हैं। अपनी चतुराई के कारण वे अपने शिष्यों को भीख मांगने के लिए भिन्न-भिन्न दिशाओं में भेजते हैं। चतुराई के कारण ही वह अपने लालची चेले गोवर्धनदास के भविष्य को जान जाते हैं और चतुराई के कारण ही उसे फांसी के फंदे से बचा लेते हैं। वह चतुर थे तभी तो वह चौपट राजा को फांसी के फंदे तक पहुंचाने में सफल हुए थे।
7. निर्भय और साहसी: महंत जी निडर हैं। उनमें अपार आत्मिक बल विद्यमान है। इसी कारण उन्हें न तो किसी से भय है और न ही कोई संकोच। जब उनका शिष्य गोवर्धनदास को फांसी के फंदे पर लटकाया ही जाने वाला था तब सिपाहियों से बिना डरे हुए उन्होंने अपने शिष्य से बात ही नहीं की थी बल्कि उन सिपाहियों से भी डांट भरे स्वर में बात की थी, "भौं चढ़ाकर सिपाहियों से। सुनो, मुझ को अपने शिष्य को अन्तिम उपदेश देने दो, तुम लोग तनिक किनारे हो जाओ, देखो मेरा कहना न मानोगे तो तुम्हारा भला न होगा।"
8. संयमी: महंत जी का जीवन पूर्ण रूप से संयम द्वारा परिचालित है। उनके अपने मन और इन्द्रियों पर नियन्त्रण है। उनकी भावनाएं और इच्छाएं नियन्त्रण से बाहर नहीं जा पाती। उनका चेला गोवर्धन दास बहुत-सी मिठाई लेकर उनके पास पहुंचता है तो वह प्रसन्न होते हैं लेकिन जब उन्हें अंधेर नगरी ओर चौपट राजा के बारे में पता लगता है तो वह झट से उस नगर को छोड़कर कहीं और चले जाने का निर्णय ले लेते हैं। यदि वह संयमी तो वह अपने चेले की तरह वहीं रहकर जीवन को सुखमय बनाने का सपना देखते। संयमी होने के कारण ही वह अपने चेहरे पर किसी ऐसे भाव को नहीं आने देते जिससे सिपाही यह जान पाते कि वह अपने शिष्य को फांसी से बचाने के लिए नाटक रूप कर रहे हैं।
9. वाक् पटुः महंत जी में वे सभी विशेषताएं विद्यमान हैं जो सामान्य साधु-संतों में होती हैं। उनमें हर अवसर पर कही गा सकने वाली सूक्तियां, पद, दोहे आदि कण्ठस्थ हैं। जहां कहीं भी उन्हें अवसर मिलता है, वह उसे कह देते हैं तथा स्थिति को गम्भीर और ज्ञान से पूर्ण कर देते हैं। चौपट राजा के फांसी के फंदे पर खड़े होने पर भी वह कह देते हैं--
ते ऐसे हि आपुहि नरौं, जैसे चौपट राजा।।
वस्तुतः महंत जी अनेक विशेषताओं के स्वामी जी हैं जिन्होंने कथा का प्रवाह देने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। चाहे लेखक का मूल मन्तव्य चौपट राजा के माध्यम से तत्कालीन परिवेश और भ्रष्ट शासन पद्धति को व्यंजित करना था तो भी महंत जी के चारित्रिक विकास में वह ऐसा कर पाने में सफलता पा गए हैं। महंत जी के चरित्र में ठोस पात्र बनने की पात्रता निश्चित रूप से विद्यमान है।
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