सेवासदन उपन्यास की मूल समस्या पर प्रकाश डालिए: सेवासदन उपन्यास में दहेज की समस्या, समाज की झूठी नैतिकता, रूढ़िवादिता आदि विविध प्रश्न उभरे हैं। विधवाओ
सेवासदन उपन्यास की मूल समस्या पर प्रकाश डालिए
सेवासदन उपन्यास में दहेज की समस्या, समाज की झूठी नैतिकता, रूढ़िवादिता आदि विविध प्रश्न उभरे हैं। विधवाओं और विशेष रूप से वेश्याओं के सुधार और आर्थिक निर्वाह की समस्या पर विस्तार के साथ चर्चा की गई है।
प्रस्तुत उपन्यास सेवासदन कृष्णाचन्द्र दरोगा की दो पुत्रियों - सुमन और शांता की कहानी है। उनकी पत्नी का नाम गंगाजली है। कृष्णाचन्द्र सीधे-साधे आदमी थे। वह घूँस (रिश्वत) नहीं लेते थे। गृहस्थी चलाने तथा अपनी लड़कियों की हर इच्छा को पूरा करने में उनका पूरा वेतन खर्च हो जाता था। वे कुछ बचा नहीं पाये और जब सुमन विवाह लायक हो गयी, तो उनके सामने दहेज की समस्या उत्पन्न हो गयी। परिस्थितियों से विवश होकर उन्हें महन्त रामदास से तीन हजार रुपये घूँस के रूप में लेने पड़े। परन्तु उनकी कलई खुल गई और उन्हें चार वर्ष के कारावास का दण्ड मिला। आर्थिक कठिनाई के कारण सुमन का विवाह विधुर गजाधर प्रसाद नामक पन्द्रह रुपये मासिक पाने वाले क्लर्क से करना पड़ा, जो सुमन से आयु में कहीं बड़ा था। सुमन की चटोरी जीभ और सबसे बढ़-चढ़कर दिखावे की भावनाओं के कारण सुमन और गजाधर का वैवाहिक जीवन शीघ्र ही विपमय हो गया।
पति परित्यक्त नारी
सुमन को पति ने घर से निकाल दिया। वह हारकर पद्मसिंह वकील के घर, जिनकी पत्नी से संयोगवश उसका मेलजोल हो गया था, पहुँचती है। पर वे भी लोकापवाद के भय के कारण उसे अपने यहाँ अधिक समय तक शरण न दे सके। सुमन के घर के सामने भोली नामक एक वेश्या रहती थी। वह शायद उसके प्रति किसी सुषुप्त आकर्षणश वहीं पहुँचती है। भोली को उसने सभ्य समाज में, यहाँ तक कि स्वयं पद्मसिंह की महफिल में भी अपार सम्मान पाते देखा था। अभी तक वह वेश्याओं के सम्बन्ध में यही सुनती आई थी कि उनका जीवन गर्हित होता है, उन्हें ठोकरें खानी पड़ती हैं, पर यहाँ आकर भोली का जीवन और उसे मिलने वाले सुखों को देखकर उसके संस्कार डाँवाडोल होने लगे थे। भोली ने उसकी इस मन:स्थिति का पूरा लाभ उठाया और फलस्वरूप सुमन शीघ्र ही वेश्या बन गयी। पद्मसिंह का भतीजा सदनसिंह सुमन के पास बहुत आने-जाने लगा। सुमन नहीं जानती थी कि वह पद्मसिंह का भतीजा है, जिस दिन उसे सच्चाई का ज्ञान हुआ उसने सदनसिंह को प्रोत्साहन देना बन्द कर दिया। सदनसिंह ने सोचा वेश्याएँ उपहारों से प्रसन्न रहती हैं, इसलिए वह अपनी चाची का हार चुराकर लाता है और सुमन को उपहार देता है, जिसे वह दूसरे ही दिन पद्मसिंह के यहाँ लौटा आती है।
विट्ठलदास नामक समाज-सुधारक को सुमन के वेश्या बन जाने से बड़ा दुःख पहुँचता है। वह सुमन को समझा-बुझाकर उस जीवन से बाहर निकालना चाहता है, लेकिन सुमन अपने जीवन की दयनीयता, और नारी जीवन की विवशताओं को ऐसे तर्कपूर्ण ढंग से प्रस्तुत करती है कि विट्ठलदास निरुत्तर हो जाता है। समाज - सुधारकों की सहायता से विधवाश्रम नामक संस्था चल रही थी। सोच- विचार के बाद तय हुआ कि सुमन वेश्यलय छोड़कर विधवाश्रय में जायगी। उधर उसकी छोटी बहिन शान्ता का विवाह सदनसिंह से तय हो जाता है, बारात आती है, पर विरोधियों ने सुमन को लेकर ऐसा प्रचार किया कि बारात लौट गयी और शान्ता का विवाह न हो सका । बनारस में दालमण्डी (विश्याओं के बाजार) को शहर से बाहर ले जाने की बात चल रही थी । वहाँ आकर एक दिन क्वीन्स पार्क में सदनसिंह ने वेश्या-सुधार सम्बन्धी एक भाषण सुना, जिससे उसका मन बदलजाता है। वह सुमन की याद को भुला नहीं पाता, पर अपनी कुत्सित वृत्तियों पर विजय पा लेता है । एक दिन वह सुमन को गंगा - स्नान करते देखता है, पर उसके मुर्झाए हुए चेहरे को देखकर उससे मिलने का उसे साहस नहीं होता और वह बिना मिल ही लौट आता है। जेल से छूटकर आने के बाद कृष्णचन्द्र को सुमन और शान्ता के बारे में ज्ञात होने पर बड़ा आघात पहुँचता है । वे आधी रात को घर छोड़कर निकल जाते हैं। रास्ते में उनकी भेंट सुमन के पति से होती है जो आत्मग्लानि से अभिभूत होकर साधू गया था। वह कृष्णचन्द्र से सारी सत्य बातें बताता है और सुमन के पतित होने के पीछे अपने को ही दोषी बताता है। इससे कृष्णचन्द्र के दिल का बोझ कुछ कम होता है, किन्तु वे जीवन के प्रति एक प्रकार से निराश हो चले थे। गजाधर के सो जाने के बाद वे चुपके से उठे और गंगा में छलांग लगाकर डूब गये।
पद्मसिंह का मन भी जीवन के राग-रंग से बड़ा उचट गया था। उन्होंने वकालत को छोड़कर अपना सारा समय समज-सुधार एवं धर्म-सम्बन्धी कार्यों में देना प्रारम्भ कर दिया। उन्हें एक दिन शान्ता का पत्र मिला, जिसमें उसने उन्हें धर्मपिता कहकर सम्बोधित किया था और अपनी शरण में ले-लेने की विनती की थी। विट्ठलदास के परामर्श से शान्ता बुलाई जाती है और सुमन के साथ विधवाश्रम में रख दी जाती है। एक दिन शान्ता को सदन ने ग्रहण कर लिया। सुमन एक अनाथालय की शिक्षिका बन जाती है, जिसे स्वंय गजाधर ने खोला था और उसकी देखरेख करते थे ।
एक से अधिक समस्या
इस उपन्यास की प्रमुख समस्या के सम्बन्ध में मतभेद है। प्रायः यह समझा जाता है कि ‘सेवासदन' में वेश्या की समस्याओं पर प्रकाश डाला गया है। एक सुविज्ञ का कहना है कि ‘सेवासदन' उपन्यास में यद्यपि अप्रत्यक्ष रूप से दहेज की समस्या, समाज की झूठी नैतिकता का पाखण्ड, रूढ़िवादिता आदि अनेक प्रश्न आये हैं, परन्तु जिस प्रश्न को लेकर प्रेमचन्दजी ने प्रत्यक्ष रूप से और विस्तार के साथ विचार किया है, वह है- विधवाओं और विशेषतः वेश्याओं के सुधार और आर्थिक निर्वाह का प्रश्न। एक- दूसरे जानकार का कहना है कि उन्होंने इस उपन्यास में अबला स्त्री और मध्य वर्ग की समस्या को लेकर समाज के लगभग समस्त पहलुओं पर प्रकाश डाला है। उपन्यास मूलतः सुधारवादी है, लेकिन प्रेमचन्द ने समाज में फैली हुई बुराइयों का यथार्थ कारण ढूँढ़ निकाला है और उसके लिए व्यक्तियों को दोषी न ठहराकर वर्तमान सामाजिक पद्धति को जिम्मेदार ठहराया है।
कथावस्तु का विस्तृत विश्लेषण करने पर प्रतीत होता है कि प्रेमचन्द के हृदय में समाज के उस अंग के प्रति भी सम्मानित स्थान है, जिसे हेय दृष्टि से देखा जाता था। वेश्याओं का समुदाय और अछूतों का जीवन उनके निकट त्याज्य नहीं है। दूसरे शब्दों में, प्रेमचन्दजी भारतीय आदर्शों के अनुकूल आत्मा अनवरत परिशुद्धि में विश्वास रखते हैं। 'सेवासदन' इसी मंगल आदर्श को सम्मुख रखता है। सुमन जो ‘सेवासदन' की मुख्य पात्री है, और जिसका जीवन उपन्यास की समस्त घटनाओं का केन्द्र है, यद्यपि बीच में पथ से विचलित हो जाती है, पर अन्त में वेश्याओं की छोटी लड़कियों के सुकुमार हृदयों का संस्कार करने के लिए अपने जीवन का उत्सर्ग कर देती है । वस्तुतः 'सेवासदन' में मध्यवर्गीय समाज की एक ज्वलन्त समस्या - नारी - जीवन की समस्या पर आलोक डाला गया है। समाज की जिन जीर्ण मान्यताओं के कारण मध्यवर्गीय परिवारों का भयानक पतन होता है, वे ही समस्याएँ इस उपन्यास का केन्द्र हैं। दहेज प्रथा, असंगत विवाह, वेश्या - वृत्ति आदि का इसमें सुधारात्मक निरूपणा है। नारी की आर्थिक पराधीनता इन प्रश्नों के मूल में है । सामाजिक परिस्थितियों से विवश होकर अनेक नारियों को वेश्यावृत्ति के विगर्हित मार्ग का अवलम्बन करना पड़ता है। 'सेवासदन' में प्रेमचन्द ने वेश्या-समस्या को उठाकर उसके माध्य से नारी जीवन की यातनाओं का चित्रण किया है।
इस उपन्यास की प्रधान समस्या है, अर्थात् भारतीय समाज में स्त्री कितनी पराधीन थी, तथा उस समय वह कितना दयनीय, परवश और निराश्रित जीवन व्यतीत कर रही थी, उसकी पराधीनता, उसकी निस्सहायता से समाज में पशुओं-जैसे स्थिति हो गयी थी, परन्तु सुमन को वेश्या जीवन तक पहुँचाकर तथा बाद में उसे वेश्याओं के सुधार कार्य में प्रवृत्त करके उपन्यासकार वेश्या-समस्या पर विशेष ध्यान केन्द्रित करता-सा लगता है। हालांकि सुमन वेश्याओं की प्रतिनिधि नहीं है, वह पीड़ित नारी है जो परिस्थितिवश वेश्या बनी है, परन्तु सुमन स्वयं वेश्याओं का प्रतिनिधित्व भी करती है। वैसे प्रेमचन्द ने इस बात को स्पष्टता के साथ कहा है कि उनका ध्यान वेश्या - समस्या पर ही मुख्यतया केन्द्रित नहीं रहा है। वे चाहते थे कि लड़कियों की शिक्षा सद्गृहणियों के निर्माण के दृष्टिकोण से होनी चाहिए। सुमन ने गृहणी बनने की नहीं, इन्द्रियों के आनन्दभोग की शिक्षा, पाई थी। यह प्रेमचन्द को असह्य था। सुमन का हाल यह था कि महीने के दस दिन बाकी रहते थे, किन्तु वह सब रुपये खर्च कर देती थी। वही सुमन अन्त में कहती है, "हमारा कर्त्तव्य इन कन्याओं को चतुर गृहणी बनाने का होना चाहिए।" वस्तुतः यही प्रेमचन्दजी चाहते थे।
पुलिस के चरित्र पर भी प्रेमचन्द ने दारोगा कृष्णचन्द्र के माध्यम से प्रकाश डाला है। पुलिस विभाग कितना भ्रष्ट है और किसी ईमानदार व्यक्ति की वहाँ कितनी दुर्गति हो सकती है, अर्थात् पुलिस विभाग में रिश्वत के लिए बिना कोई व्यक्ति आर्थिक रूप से सुखी नहीं रह सकता। हमारे समाज का जो परम्परागत वर्ग, धर्माचारी, मठाधीश, धनपति और समाज-सुधार तथा देशानुराग सम्बन्धी लम्बी- लम्बी बातें करने वालों का था, वे कितने खोखले, चरित्रहीन हैं, इसका एक यथार्थ चित्र खींचकर प्रेमचन्द ने समाज पर तीखा व्यंग्य किया है । भोली वेश्या धनपतियों के यहाँ और मठाधीशों के यहाँ जाती है, वहाँ सम्मान पाती है, पर वही लोग व्यक्तिगत रूप से वेश्यावृत्ति की आलोचना करते हैं। समाज में कितना दम्भ है, मिथ्या गर्व है । इस उपन्यास में उन्होंने अनमेल विवाह की समस्या पर भी प्रकाश डाला है। सुमन का विवाह किसी अच्छे घर में हो सकता था, पर सुमन के पिता धनी न थे। शान्ता के विवाह के लिए भी कृष्णचन्द्र के साले उमानाथ को बराबर चिन्ता बनी रहती है। सुमन का गजाधर के साथ अनमेल विवाह हुआ था। दोनों की आयु में काफी अन्तर था। सुमन आराम से रहा करती थी। उसकी उमंगों यौवन की ओर उन्मुख थीं, पर गजाधर तीस वर्ष का अधेड़ है, इसलिए दोनों में तनाव हो जाता है ।
हिन्दू समाज की कैसी कुप्रवृत्ति है। सुमन ने विट्ठलदास से केवल पचास रुपये प्रतिमाह की माँग की थी, जिसके लिए समाज के हर तबके के लोगों के पास बेचारा विट्ठलदास जाता है, पर सफल नहीं हो पाता। पद्मसिंह अवश्य घोड़ागाड़ी को बेचकर रुपये देने को तैयार हो जाता है, नहीं तो किसी में इतना नैतिक साहस न था । साम्प्रदायिकता से कोई समस्या हल नहीं हो सकती, प्रेमचन्द ने यह चित्रित करने का प्रयत्न किया है।
इस प्रकार नारी समस्या, वेश्या समस्या, पुलिस विभाग की रिश्वत, समाज का खोखलापन, साम्प्रदायिक संकीर्णता, नैतिकता का ह्रास, साहस एवं आत्मविश्वास की कमी, निर्धनता, सूझ-बूझ एवं दूरदर्शिता का अभाव तथा कृषक समस्या आदि समस्याओं की प्रेमचन्द ने इस उपन्यास में विवेचना की है। यह वस्तुतः उनका पहला उपन्यास है जिसमें प्रेमचन्द ने इतना व्यापक दृष्टिकोण प्रदर्शित किया है।
सुधारवाद की प्रवृत्ति
प्रेमचन्द के साहित्य को पढ़ने से स्पष्ट होता है, उनकी प्रवृत्ति सुधारवादी थी, अतः उपन्यास भी लेखक की उस प्रवृत्ति की देन है। वैसे भी लेखक सुधारवादी युग का था। राजनीति के क्षेत्र में नेतागण, समाज में सुधारक-समूह तथा साहित्य - जगत् में लेखक - वर्ग विभिन्न सामाजिक कुप्रथाओं का निवारण करने के लिए प्रयत्नशील थे। 'सेवासदन' में प्रेमचन्द जी क्रान्तिकारी के रूप में नहीं, सुधारक के रूप में हमारे सम्मुख आते हैं। वेश्या - समस्या का समाधान भी उन्होंने प्रस्तुत किया है। अपनी आदर्शवादी जीवनृ-दृष्टि के अनुसार उन्होंने नगर के बाहर उनके निवास का आयोजन कर और स्वस्थ एवं संयमित जीवन-यापन की इच्छुक आत्माओं के लिए आश्रम की स्थापना कर वेश्या - समस्या को सुलझाने का उपाय किया है। प्रेमचन्द ने 'निर्मला' या 'गोदान' में यह दृष्टिकोण नहीं अपनाया था। वस्तुतः वे जीवन के व्याख्याता कम, दृष्टा अधिक थे। उसी दृष्टि से उन्होंने साहित्य का सृजन किया है। इसमें प्रधान कथा दरोगा कृष्णचन्द्र के परिवार से सम्बन्धित है, जिसकी दो शाखाएँ हैं - एक शाखा का सम्बन्ध सुमन से है, दूसरी का सम्बन्ध शान्ता से है। इन दो के अतिरिक्त तीसरा महत्त्वपूर्ण अंश म्युनिसिपैलिटी से सम्बन्धित है। इन तीनों अंशों में सुमन और शान्ता का सम्बन्ध प्रेमचन्द ने अच्छी तरह से निभाया है और तीनों में अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है परम्युनिसिपैलिटी वाला अंश अनावश्याक-सा प्रतीत होता है। यदि वह न भी होता, तो मुख्य कथा पर कुछ पहुँचता।
इस कथानक में सुमन के गृहत्याग तक का अंश तो बहुत सुव्यवस्थित है। इसमें तीव्रता भी है, सुसंगठित रूप में आगे भी बढ़ता है, किन्तु उसके बाद भी तो कथानक के सूत्र जैसे बिखर गये हैं। इसीलिए कथानक में सुमन के गृहत्याग के बाद शिथिलता आ गयी है।
प्रेमचन्द ने सुमन को दालमण्डी (वेश्याओं के बाजार) में पहुँचा दिया है, पर वहाँ के उसके जीवन को भली भाँति उभार नहीं पाए हैं। सम्भवत: प्रेमचन्द को सुमन का दालमण्डी में रहना रुचिकर नहीं प्रतीत होता और कदाचित् उनकी सुधार - वृत्ति यहाँ अधिक तीव्र हो गयी है, इसीलिए यहाँ वह स्थान रिक्त - सा प्रतीत होता है। कला की दृष्टि से यह दोष ही है। इसके बाद सुमन की कथा की गति समान रूप से प्रवाहित होती हुई दृष्टिगोचर नहीं होती। सुमन के गृहत्याग की गति पहाड़ी नदी की तरह उछलती - कूदती-सी प्रतीत होती है, पर उसके बाद लगता है कि वे सुमन की गति को जबरदस्ती घसीटते से प्रतीत होते है। उपन्यास के अन्त में वेश्याओं की तकरीरें निरर्थक हैं। गजाधर जिस प्रकार साधू के वेश में बीच-बीच में आवश्यकतानुसार आ जाता है, वह भी प्रेमचन्द की उपन्यास-कला का दुर्बल पक्ष प्रस्तुत करता है, हम यह तो जान जाते हैं कि वह गजानन्द है, पर बार- बार वह कहाँ से टपकता है, इसे प्रेमचन्द स्पष्ट नहीं कर पाते। यह उनकी कला की दृष्टि से बहुत अच्छी बात नहीं है। उनकी कला में देव-संयोग से घटित होने की आश्यकता पर प्रेमचन्द ने असंतुलित ढंग से बल दिया है। प्रेमचन्द ने अपने अन्य सामाजिक उपन्यासों की भाँति इस उपन्यास में भी हास्य-प्रसंगों की सृष्टि की है।
पात्रों की अधिकता:
प्रस्तुत उपन्यास में पात्रों की भीड़-भाड़ बहुत अधिक है। यह उपन्यास चरित्र - प्रधान नहीं है। इस उपन्यास की नायिका सुमन के चरित्र-चित्रण में प्रेमचन्द ने अपनी सूक्ष्म पर्यवेक्षण दृष्टि और नारी-मनोविज्ञान का परिचय दिया है । सुमन के चरित्र में उसके मानसिक संघर्ष का चित्रण भी उन्होंने सफलतापूर्वक किया है।
सामन्त वर्ग का प्रतिनिधित्व कुँवर अनिरुद्धसिंह करते हैं। वे उच्च शिक्षा - प्राप्त तथा उ विचारों के व्यक्ति हैं। उन्होंने अपनी कूपमण्डूकता छोड़कर कुछ प्रगतिशीलता को आत्मसात किया है। वे साहित्य-प्रेमी हैं, भाषा - प्रेमी हैं और भारत की दरिद्र जनता के प्रति सहानुभूति रखते हैं। उनके विचार अवश्य उन्नत और उदार हैं, लेकिन अपने उन्नत विचारों को व्यंग्य रूप में कहने के अभ्यस्त हैं, जिसके कारण लोग प्राय: उन्हें गलत समझ जाते हैं। वे बस बातों में तेज हैं, व्यावहारिक रूप में कोई काम नहीं कर सकते। डॉ. श्यामाचरण सरकार द्वारा मनोनीय सदस्य हैं, इसलिए प्रत्येक समस्या पर यही कहते हैं कि पहले सरकार से मशविरा कर लूँ, तब अपनी सदस्य हैं, इसलिए प्रत्येक समस्या पर यही कहते हैं कि पहले सरकार से मशविरा कर लूँ, तब अपनी राय दूँ, वे भी बातों के तेज हैं। वे कुछ पश्चिमी संस्कारों से प्रभावित मालूम होते हैं। भगतराम ठेकेदार हैं। उन्हें अपने रुपये से मतलब है, वेश्या सुधार से उन्हें कोई मतलब नहीं है । वह ग्रामोफोन का रिकॉर्ड है, पैसे को लोभी है, इसीलिए सेठ चिम्मनलाल के विरुद्ध कभी नहीं जाता। वह जाति, समाज या देश के प्रति कर्त्तव्यच्युत रहता है। चिम्मनलाल अपने हृदय की दुर्बलताओं को विनोदशीलता के आवरण में छिपाकर बच जाना चाहता है । वह राजनीति में भाग नहीं लेना चाहता। वह विट्ठलनाथ के विधवाश्रम को तभी तक सहायता देना चाहता है, जब तक कि राजनीति से दूर है। सेठ बलभद्रप्रसाद उस कहावत को चरितार्थ करता है कि हाथी के दाँत खाने के और तथा दिखाने के और होते हैं। वह समाज - सुधार के सम्बन्ध में बढ़-चढ़कर बातें तो करता है, पर जब उसका व्यावहारिक पक्ष सामने आ जाता है, तो वह उसमें सहयोग नहीं देता । वह बड़ा निर्भीक और राजनीतिकुशल है। इसी कारण वह जहाँ पद्मसिंह और विट्ठलदास का मुकाबला करता है, वहीं जनता में लोकप्रिय भी रहता है।
गजाधर कृपण और संशयशील है। एक ओर वह निर्धन है, दूसरी ओर सुमन की सब खा-पीकर बराबर कर देने की नीति से परेशान भी रहता है। इसी कारण उसका चित स्थिर नहीं रहता। वह अपने परिश्रम और प्रेम से सुमन के हृदय पर अधिकार प्राप्त करना चाहता है और उसमें असफल होने पर सुमन पर शासनाधिकार करना चाहता है। सुमन की चंचल प्रवृत्ति, इन्द्रियलिप्सा और मुहल्ले की कुछ ऐसी स्त्रियों के साथ उठाना-बैठना देखकर जो उसकी दृष्टि में बुरी थीं, सुमन के चरित्र पर गजाधर को शंका और अविश्वास होने लगता है, यद्यपि इस अविश्वास का कोई आधार नहीं है। यही वस्तुतः गजाधर की गलती थी। धीरे-धीरे संघर्ष बढ़ता है और अन्त में सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है। सुमन को घर से निकालने के पश्चात् गजाधर ने थोड़े दिन तक पद्मसिंह की निन्दा की, पर अन्त में वह साधू हो जाता है और गजाधर से गजानन्द बन जाता है। जब वह आवेशरहित होकर ठंडे दिल से अपने पारिवारिक जीवन पर विचार करता है, तो उसे सर्वत्र अपना ही दोष दिखायी पड़ता है। उधर सुमन भी अपना ही दोष देख पाती है । यह वस्तुतः स्वाभाविक भी था। दिल का गुबार निकल जाने के पश्चात् हृदय में इतनी उदारता तो आ जाती है और वह सारे अपराधों की जड़ अपने आपको ही समझने लगता है। गजाधर का साधू-रूप उसका प्रायश्चित ही है । यहाँ पर प्रेमचन्द क्रमशः गजाधर के आत्मबल को विकसित करते हैं। उसने अपनी अदूरदर्शिता से एक नारी के जीवन को नष्ट कर दिया था, इसीलिए पतिता नारियों के लिए वह सेवासदन में जुट गया। उसका अन्तिम रूप प्रभावशाली है।
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