सृजनात्मकता की प्रक्रिया (Srijanatmakta ki Prakriya) ग्राहम बाल्स के अनुसार सृजनात्मकता की प्रक्रिया की चार अवस्थाएं होती हैं:- (1) आयोजन, (2) उद्भवन,
सृजनात्मकता की प्रक्रिया (Srijanatmakta ki Prakriya)
सृजनात्मकता एक जटिल प्रक्रिया है। चाहे व्यक्ति सामान्य चिन्तन द्वारा किसी समस्या का समाधान कर रहा हो या वह सृजनात्मक रुप से चिंतन कर रहा हो उसमें चार अवस्थाएं होती हैं। ग्राहम बाल्स के अनुसार सृजनात्मकता की प्रक्रिया की चार अवस्थाएं होती हैं:- (1) आयोजन, (2) उद्भवन, (3) प्रबोधन, और (4) प्रमाणीकरण या सम्बोधन।
1. आयोजन: इस अवस्था में समस्या से संबंधित आवश्यक तथ्यों एवं प्रमाणों को एकत्रित करने की तैयारी का आयोजन किया जाता है। समस्या समाधान से संबंधित उसके पक्ष एवं विपक्ष में प्रमाण एकत्रित किए जाते है । ऐसा करने में वह प्रयत्न एवं त्रुटि का सहारा भी लेता है । आइन्सटीन, राईट तथा न्यूटन जैसे महान वैज्ञानिकों ने भी अपने सामने आई समस्या के समाधान से संबंधित तथ्यों एवं प्रमाणों को एकत्रित करके उसका विस्तृत ज्ञान हासिल किया तथा उनके आधार पर सृजनात्मक चिन्तन किया। इस तरह से प्रत्येक रचनात्मक चिन्तन विभिन्न प्रकार के तथ्यों एवं प्रमाणों को एकत्रित करने का आयोजन करता है। समस्या के स्वरुप तथा व्यक्ति के ज्ञान के अनुसार यह अवस्था लम्बे या कम समय तक होती है। यदि समस्या जटिल तथा व्यक्ति का ज्ञान सीमित है तो अवस्था का समय लम्बा परन्तु यदि समस्या सरल तथा व्यक्ति का ज्ञान भण्डार परिपक्व है तो अवस्था कम समय तक रहती है। जिम्बार्डो तथा रुक (1977) के अनुसार इस अवस्था पर व्यक्ति की आयु तथा बुद्धि का भी प्रभाव पड़ता है।
2. उद्भवन: यह दूसरी अवस्था है इसमें व्यक्ति की निष्क्रियता बढ़ जाती है, थोड़े समय के लिए व्यक्ति समस्या के बारे में चिन्तन करना छोड़ देता है जब कई तरह से कोशिश करने के बाद भी किसी समस्या का समाधान नहीं हो पाता है तो इस अवस्था की उत्पत्ति होती है। इस अवस्था में व्यक्ति चिन्तन करना छोड़कर सो जाता है या विश्राम करने लगता है। यद्यपि इस अवस्था में व्यक्ति अपना ध्यान समस्या की ओर से पूर्णतः हटा लेता है, फिर भी अचेतन रूप से उसके बारे में चिंतन करता रहता है। इस तरह से व्यक्ति चेतन रुप से तो समस्या से मुक्त रहता है परन्तु अचेतन रुप से उसके समाधान के बारे में चिन्तन जारी रखता है।
3. प्रबोधन: यह चिन्तन की अगली अवस्था है जिसमें व्यक्ति को अचानक समस्या का समाधान दिखाई पड़ जाता है सिलवरमैन (1978) के अनुसार “समाधान के अकस्मात् अनुभव को प्रबोधन कहा जाता है । यह अवस्था प्रत्येक सृजनात्मक चिन्तन में पाई जाती है। उद्भवन अवस्था में जब व्यक्ति अचेतन रूप से समस्या के भिन्न-भिन्न पहलुओं को पुर्नसंगठित करते रहता है तो अचानक उसे समस्या का समाधान नजर आ जाता है । प्रबोधन की घटना सूझ के समान है। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार व्यक्ति में उद्भवन की अवस्था के बाद प्रबोधन की अवस्था कभी भी उत्पन्न हो सकती है। यहाँ तक की कभी-कभी व्यक्ति को सपने में भी प्रबोधन का अनुभव होते पाया गया है।
4. प्रमाणीकरण या सम्बोधन: यह सृजनात्मक चिन्तन की चौथी अवस्था है। इस अवस्था में प्रबोधन की अवस्था से प्राप्त समाधान का मूल्यांकन किया जाता है। इस अवस्था में व्यक्ति यह देखने की कोशिश करता है कि उसे जो समाधान प्राप्त हुआ है वह ठीक है अथवा नहीं। जाँच करने के बाद जब व्यक्ति इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि समाधान सही नहीं था तो वह सम्पूर्ण कार्यविधि का संशोधन करता है और पुनः दूसरे समाधान की खोज करता है। उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि सृजनात्मक चिन्तन की चार अवस्थाएं है जो एक निश्चित क्रम में होती हैं। कुछ मनोवैज्ञानिकों ने इन अवस्थाओं की आलोचना की और कहा कि सभी सृजनात्मक चिन्तन में ये सभी अवस्थाएं नहीं होती है।
उपर्युक्त अवस्थाएँ सुनिश्चित एंव परिवर्तनशील नहीं है। यह आवश्यक नहीं कि प्रत्येक सृजनशील चिंतक इन्हीं अवस्थाओं का अनुसरण करें। किसी चिंतक को उद्भवन की अवस्था से पहले भी समस्या का समाधान प्राप्त हो सकता है। यह भी हो सकता है कि चिंतक को इन अवस्थाओं का अनुसरण करने पर भी समस्या का समाधान का समाधान प्राप्त न हो और उसे इन्हीं अवस्थाओं की कई बार पुनरावृत्ति करनी पड़े। फिर भी ये सोपान महान सृजनशील चिंतकों द्वारा अभिव्यक्त उच्चतम सृजनात्मक प्रक्रिया के वैज्ञानिक स्वरूप विधिवत प्रतिनिधित्व करतें हैं।
COMMENTS