शैक्षिक प्रौद्योगिकी का इतिहास (History of Educational Technology in Hindi) शैक्षिक प्रौद्योगिकी का इतिहास प्राचीन तथा विस्तृत है। इसका प्रारम्भ हम उस
शैक्षिक प्रौद्योगिकी का संक्षिप्त इतिहास (Brief History of Educational Technology)
शिक्षाशास्त्रियों ने व्यक्तियों की शिक्षा के लिए नवीन तकनीकों का विकास किया है ताकि एक प्रभावशाली ढंग से इस नवीनतम वैज्ञानिक युग में समाज की आवश्यकताओं के अनुरूप शिक्षा को ढाला जा सके। यह इन नवीनतम तकनीकों का ही प्रभाव है कि शिक्षा के क्षेत्र में विद्युत उपकरणों का प्रयोग किया जाने लगा है। इसी से 'शैक्षिक प्रौद्योगिकी' नामक संप्रत्यय का विकास हुआ है।
1700 ई. से पूर्व शैक्षिक प्रौद्योगिकी का इतिहास
शैक्षिक प्रौद्योगिकी का इतिहास प्राचीन तथा विस्तृत है। इसका प्रारम्भ हम उस समय से मान सकते हैं, जब कबीलों में पुजारियों ने ज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों को व्यवस्थित करने तथा सूचनाओं एवं जानकारी को संजोकर रखने, प्रसार करने तथा पुनः प्राप्त करने के लिए चित्रों की खोज की थी। प्रत्येक युग में शैक्षिक कार्यों अथवा निर्देशों के प्रसार एवं संरक्षण के लिये किसी एक निश्चित विधि को अपनाया गया है। सोफिस्ट ज्ञान (450 से 350 ईसा पूर्व) सामान्य वर्ण के प्रचार-प्रसार के लिए कई विधियाँ अपनाते थे। वे व्याख्यान तैयार करते थे तथा उसे दूसरे सोफिस्ट या आम जनता के सामने वाद-विवाद के लिए प्रस्तुत करते थे। सोफिस्ट ही संभवत: सबसे पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने शिक्षण में विश्लेषण की नवीन तकनीकी का प्रयोग तथा विकास किया था।
सोफिस्टों की निर्देशन प्रणाली बहुत ही व्यवस्थित होती थी। शिक्षार्थियों के लिए यह निश्चित होता था कि उनसे क्या अपेक्षित है, वह अपने उद्देश्यों को किस प्रकार प्राप्त कर सकते हैं एवं उसकी प्रगति कैसी चल रही है ? सुकरात (470 से 399 ईसा पूर्व) अपने छात्रों के कार्यों द्वारा ही शिक्षण उद्देश्यों को प्राप्त करते थे। उनकी विधि को पूछताछ विधि के नाम से जाना जाता है। जिसमें वैध ज्ञान को ही स्वीकार किया जाता है। इस पूछताछ विधि में महत्त्वपूर्ण एवं विशिष्ट प्रश्नों के आदान-प्रदान के आधार पर वार्तालाप होता था ।
यूरोप में 12वीं तथा 13वीं शताब्दी में, एक बुद्धिजीवी आंदोलन का उदय हुआ । इस आंदोलन का मुख्य आधार एबिलार्ड (1079-1142 ) द्वारा स्थापित किया गया। उनकी कार्यविधि में मुख्यतः कुछ प्रस्तावनाओं या निर्देशों के गुण एवं दोषों पर प्रकाश डालना होता था, परन्तु निष्कर्षों पर शिक्षार्थी स्वयं ही पहुँचते थे। ऐबिलार्ड की कार्यविधि से पीटर लामवार्ड ( 1100-1160) तथा सेंट थामस एक्वीनास (1225-1274) अत्यधिक प्रभावित थे। एक्वीनास बिलार्ड की भाँति प्रश्नों के प्रारूप पर आधारित प्रस्तावना तैयार की जिसमें सही उत्तर तक पहुँचने के लिए तर्कपूर्ण अवयवों की श्रृंखला होती थी। किसी विषय पर कभी अनुमोदन किया जाता था, प्रमाण दिए जाते थे तथा कभी संदेह प्रकट किए जाते थे एवं पूरी प्रस्तावना का एक तर्कपूर्ण विधि से समापन किया जाता था ।
1700 ई. के बाद शैक्षिक प्रौद्योगिकी का इतिहास
1700 से 1900 ई. का समय शिक्षण इतिहास में नवीन वैज्ञानिक विचारधारा एवं खोजों की उत्पत्ति, शैक्षिक सिद्धांतों के जन्म, अधिगम सिद्धांतों के निर्माण एवं प्रायोगिक मनोविज्ञान के क्षेत्र में की गई खोज और अनुसंधान के कारण महत्त्वपूर्ण है, जिसने शैक्षिक निर्देशन के लिए वैज्ञानिक तकनीकी को मार्ग प्रदान किया। इस विकास को आधुनिक निर्देशन तकनीकी का पथप्रदर्शक कहा जा सकता है। इंग्लैंड के जोसफ लैकेसटर (1778-1883) द्वारा निर्मित लैकेंसटरीयन मोनीटोरियल निर्देशन प्रणाली में सभी कक्षा-कक्ष का संगठन, प्रबंध एवं विषय-वस्तु का संगठन आदि महत्त्वपूर्ण अवयवों पर बल दिया गया है। दलीय निर्देशन के लिए कार्य योजना के अनुसार संगठन को लोक (1632-1704) के अधिगम के संप्रत्यय पर आधारित माना जाता है। जी. एच. पेस्टालॉजी (1746-1827) शैक्षिक विचारक ने रूसो (1712 - 1778) द्वारा रचित इमाईल ग्रंथ में वर्णित सिद्धांतों पर आधारित अपनी शैक्षिक निर्देशन प्रणाली का अविष्कार किया है। छात्रों को वास्तविक अनुभवों से परिचित करा कर उनके विचारों को दृढ़ता प्रदान करना या छात्रों के विचारों को महत्त्व देना आदि उसकी कार्यविधि के प्रमुख अंग रहे हैं। उनकी विधि के कारण 'आंसचांग' (अंतः दृष्टि का विकास) को विकसित किया गया। फ्रेडरिक विल्हेम फ्रोब्रेल (1782-1852 ) ने पेस्टालॉजी के साथ कार्य करते हुए किण्डरगार्टन की अवधारणा की खोज की। फ्रोबेल ने औपचारिक वस्तुओं (जैसे - उपहार ) का उपयोग किया। उनकी कार्य विधि व्यवस्थित थी। उन्होंने अपने किण्डरगार्टन में प्रातः वृत्त' की सहायता से सामाजीकरण की उपयोगिता को स्थापित किया। जॉन फ्रेडरिक हरबर्ट (1776-1841 ) भी ऐसे विचारक थे जिनके विचारों ने शैक्षिक जगत् को प्रभावित किया है। उन्होंने आत्मज्ञान' के संप्रत्यय की खोज की जिनके अनुसार नवीन एवं पुरातन विचारों तथा धारणाओं के संबंधों को एक सम्पूर्ण तत्त्वज्ञान में आत्मसात् कर लिया जाता है। उन्होंने इसके लिये चार पद सुझाये हैं। स्पष्टता, संयोजन, प्रणाली एवं विधि जो पेस्टालॉजी की विधि के अनुसार अनुभूति प्रभावों को अधिगम के बौद्धिक स्तर तक ले जाना होता है । हरबर्ट विधि के अनुसार अनुदेशन अत्यधिक व्यवस्थित हो जाती है तथा इस अनुदेशनात्मक प्रणाली के ज्ञानात्मक तत्त्वों को केन्द्र बिंदु माना जाता है। उन्होंने अधिगम के लिए, अनुदेशन के विज्ञान का विकास किया है।
विलियम जेम्स (1901) ने अनुदेशन की समस्याओं को सुलझाने के लिए वैज्ञानिक विधि के उपयोग करने की दशा में सर्वप्रथम कार्य किए। इसी प्रकार जॉन डीवी ( 1859-1952 ) ने कक्षा-कक्ष को प्रायोगिक प्रयोगशाला बनाने के लिए शैक्षिक संदर्भ में प्रयोगसिद्धि विज्ञान की विवेचना की । थार्नडाइक ( 1874-1949) ने प्रयास व भूल विधि द्वारा अधिगम प्रक्रिया के स्पष्टीकरण देने के साथ-साथ मापन की प्रक्रिया की भी शुरुआत की। उनकी अनुदेशनात्मक तकनीकी में आत्म-गतिविधि का सिद्धांत, तैयारी का सिद्धांत, वैयक्तीकरण का सिद्धांत और सामान्यीकरण के सिद्धांत का उपयोग किया जाता है। थार्नडाइक के विपरीत, डीवी ने निमार्ग विधि को अपनाया। दूसरे शब्दों में, पर्यावरण और अधिगमकर्त्ता के मध्य क्रिया को अधिक महत्त्व दिया है।
किलपैट्रिक (1871-1965) ने डीवी के शैक्षिक विचारों को लोकप्रिय बनाने के लिए कार्य किया। उन्होंने 1918 में 'योजना विधि' का विकास किया । इन्होंने अधिगमकर्त्ता की रुचियों को ध्यान में रखते हुए पाठ्यक्रम को एक योजनाबद्ध तरीके से व्यवस्थित किया। मारिया मॉण्टेसरी ( 1870-1952) जो इटली की विचारक और शिक्षाविद् थीं, ने बाल शिक्षा के लिए अपनी अलग विधि की खोज की तथा अनुदेशन के विज्ञान का विकास किया। उनके उपागम का मुख्य केन्द्र-बिंदु अधिगमकर्त्ता के व्यक्तित्व के प्रति आदर तथा मनोवैज्ञानिक वातावरण, कक्षा-कक्ष की भौतिक व्यवस्था, अध्यापक एवं शिष्य के संबंधों, शैक्षणिक संचार माध्यम एवं प्रक्रियाओं को ध्यान में रखते हुए अधिक स्वतंत्रता प्रदान करना है। उन्होंने आकार, भार, रंग, रूप एवं बनावट आदि में अंतर्विभेद करने के लिए ज्ञानेन्द्रियों, विशेषत: देखने, सुनने और छूने पेशीय विकास आदि पर बल दिया। अनुदेशनात्मक प्रणाली के वैयक्तीकरण की दिशा में बर्क (1882-1924), वाशबर्न (1919) में डाल्टन मौरिसन (1871-1945 ) आदि शिक्षाशास्त्रियों ने प्रयास किए। लेविन (1890-1947) ने अनुदेशनात्मक सम्प्रेषण का अपनी अधिगम की फील्ड थ्योरी की सहायता से विकास किया। इस संदर्भ में अध्यापक- सम्प्रेषणकर्त्ता का मुख्य कार्य सृजनात्मक होना चाहिए क्योंकि इसमें चिह्नों एवं प्रतीकों का अद्वितीय सम्भाव्यता पाठ्यवस्तु का प्रारूप तैयार करना एवं अधिगमकर्त्ताओं के साथ उसका संबंध स्थापित करना होता है। स्कीनर (1904) ने सक्रिय अनुबंधन के सिद्धांत को प्रतिपादित किया। इस सिद्धांत ने अंतिम पचास एवं पूर्व साठ के दशकों में अभिक्रमित अनुदेशन के विकास को अत्यधिक प्रभावित किया। उन्होंने शिक्षण मशीन दवारा निर्देशन की एक श्रंखला प्रस्तत की। स्कीनर ने शिक्षण मशीन बनाने का श्रेय सिडनी प्रेसी को दिया
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