शकुन्तला का चरित्र-चित्रण: महाकवि कालिदास ने अभिज्ञानशाकुन्तलम् नाटक में शकुन्तला के चरित्र को एक आदर्श स्त्री के रूप में चित्रित किया है। शकुन्तला इस
शकुन्तला का चरित्र-चित्रण - Shakuntala Ka Charitra Chitran
शकुन्तला का चरित्र-चित्रण: महाकवि कालिदास ने अभिज्ञानशाकुन्तलम् नाटक में शकुन्तला के चरित्र को एक आदर्श स्त्री के रूप में चित्रित किया है। शकुन्तला इस नाटक की नायिका है। वह ऋषि विश्वामित्र और मेनका की पुत्री है । मेनका को इन्द्र ने विश्वामित्र की तपस्या भंग करने के लिए भेजा था। मेनका ने उनका तप भंग किया और दोनों के सम्पर्क से शकुन्तला का जन्म हुआ। दोनों ने उसको छोड़ दिया। शकुन्तों नामक पक्षियों ने कुछ समय तक उसका पालन-पोषण किया, अतः उसका नाम शकुन्तला पड़ा। तत्पश्चात् ऋषि कण्व ने उसका पालन पोषण किया, इस प्रकार वे उसके धर्मपिता हुए । शकुन्तला के चरित्र की कुछ विशेषतायें इस प्रकार हैं-
i) शारीरिक सौष्ठव: शकुन्तला लगभग 18 वर्ष की कन्या है। वह अत्यन्त सुन्दर है। उसका सौन्दर्य नैसर्गिक है। वह गौरवर्णी है। उसमें युवावस्था के लक्षण दिखाई देने लगे हैं। उसके अंगों में असाधारण लावण्य है। उसके सौन्दर्य को देखकर राजा भी मन्त्रमुग्ध हो जाता है -
अधरः किसलयरागः कोमलविटपानुकारिणौ बाहू |
कुसुममिव लोभनीयं यौवनमङ्गेषु सन्नद्धम् ।।1/21।।
ii) सुशील और लज्जाशील: वह अत्यन्त सुशील और लज्जाशील है। राजा को देखते ही उसके मन में कामभावना जागृत हो जाती है, किन्तु वह उसको प्रकट नहीं करती " किं नु खल्विमं प्रेक्ष्य तपोवनविरोधिनो विकारस्य गमनीयास्मि संवृत्ता । "
नाटक के तृतीय अंक में जब कामपीड़ित होने के कारण वह अस्वस्थ हो जाती है तब अपनी सखियों को भी इसका कारण बताने में संकोच का अनुभव करती है। प्रथम अंक में जब राजा उसकी प्रशंसा करता है तब वह लज्जावश शिर नीचे कर लेती है। वह अत्यन्त मृदुभाषी है। उसकी मृदुभाषिता की झलक अनसूया और प्रियंवदा के साथ उसके वार्तालाप में देखने को मिलती है।
iii) प्रकृति प्रेमी: वह प्रकृति से नितान्त प्रेम करती है। वह वृक्षों, वनस्पतियों, पशु-पक्षियों के प्रति सहोदरों जैसा प्रेम प्रकट करती है। वह कोमलांगी होते हुए भी स्वयं ही आश्रम के वृक्षों को जल से सींचती है। श्रृंगार प्रेमी होने पर भी वह वृक्षों के कोमल पत्तों को नहीं तोड़ती है -
पातुं न प्रथमं व्यवस्यति जलं युष्मास्वपीतेषु या
नादत्ते प्रियमण्डनाऽपि भवतां स्नेहेन या पल्लवम् ।
आद्ये वः कुसुमप्रसूितसमये यस्या भवत्युत्सवः
सेयं याति शकुन्तला पतिगृहं सर्वैरनुज्ञायताम् ।। 4/9।।
(iv) पतिव्रता नारी: वह पतिव्रता नारी है। विवाह के पश्चात् वह पति चिन्तन में इस तरह मग्न हो जाती है कि अतिथि रूप में आये दुर्वासा ऋषि का आतिथ्य सत्कार नहीं कर पाती परिणामस्वरूप उसको उनके पाप का भाजन बनना पड़ता है। पंचम अंक में राजा दुष्यन्त जब उसका परित्याग करते हैं उस समय भी वह राजा को भला बुरा नहीं कहती है। वह मारीच ऋषि के आश्रम में रहती है। वह स्वयं को ही दोषी मानती है राजा को नहीं । जब राजा से उसका मिलन होता है तो वह स्वयं को भाग्यशाली समझती है ।
इस प्रकार महाकवि कालिदास ने अभिज्ञानशाकुन्तलम् नाटक में शकुन्तला के आदर्श, विनम्र और सरल चरित्र को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया है।
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