शकार का चरित्र चित्रण - शकार मृच्छकटिका का प्रतिनायक है। दश रूपककार के अनुसार प्रतिनायक लोभी, धीरोद्धत, जड़ प्रकृति वाला, पापी और व्यसनी होता है। शकार
शकार का चरित्र चित्रण - Shakaar ka Charitra Chitran
शकार मृच्छकटिका का प्रतिनायक है। दश रूपककार के अनुसार प्रतिनायक लोभी, धीरोद्धत, जड़ प्रकृति वाला, पापी और व्यसनी होता है। शकार का चरित्र भी मूर्खता, प्रवंचना, पाप, क्रूरता और कायरता आदि दुर्गुणों से पूर्ण है।
संस्थानक अथवा शकार- शकार राजा पालक की रखैल स्त्री का र्भाइ है। राजश्यालक और संस्थानक भी है। वह शकारी प्राकृत बोलता है। जिसमें सकार के स्थान पर शकार बोला जाता है। जैसे वसन्तसेना को वशन्तसेना कहता है। सम्भवतः इसी हेतु इसका उपनाम शकार पड़ा। प्रथम अंक में विट एवं ‘काणेलीमातः’ कहकर बुलाता है। विदूषक भी ‘काणेलीपुत्र’ ’कुट्टनीसुत’ इत्यादि गर्हित शब्दों से ही बुलाता है जिसका तात्पर्य भी (रखेली) अविवाहित स्त्री का पुत्र होना है। अभिमानी तथा जड़प्रकृति वाला- शकार बहुत अभिमानी है। उसे राजा का साला होने का अभिमान है। इसीसे वह मनमानी करता है। अपने आपको देव पुरुष या वासुदेव समझता है। वह न्यायधीशों को निकलवाने की धमकी देकर उनसे मनमाना न्याय कराना चाहता है। उसके कथन अज्ञान तथा मूर्खता से भरे पड़े हैं। जैसे- ‘द्रोणपुत्रोजटायुः। न मृता रज्जब’ इत्यादि। वह मूर्खतापूर्ण भाषणों में रामायण, महाभारत आदिमहाकाव्यों तथा कथा पुराणों के पात्रों की नियोजना करता है किन्तु उसकी पात्र.नियोजना का पारस्परिक सम्बन्ध नहीं है। जैसे ‘किं द्रौपदीव पलायसे रामभीता।’ अथवा ‘मम वशमनुयाता रावणस्येव कुन्ती।’ इस तरह के अन्य उदाहरण भी इस प्रकरण में देखने को मिलते है। वसन्तसेना के लिए उसने दस उपनाम रखे हैं। ऐसा लगता है जैसे वह इन नामों में इन्द्रजाली प्रभाव का अधिष्ठान मानता है। साथ ही वह शब्द सम्बन्धी अपनी विद्वता भी प्रदर्शित करना चाहता है।
कायर तथा दुराग्रही- शकार अस्थिर स्वभाव वाला है। उसके विचार क्षण.क्षण में बदलते रहते है। जीर्णोद्यान में जब स्थावरक गाड़ी लेकर पहुँचता है तब वह उसमें वसन्तसेना को देखकर भयभीत होकर कहता है- ‘मृतोऽसि मृतोऽसि। प्रवहणाधिरूढा राक्षसी चौरो वा प्रतिवसति।’ नाटक के अन्त में जब वह वसन्तसेना को जीवित देखता है तो मृत्यु के भय से आर्य चारुदत्त की शरण में आने में भी नहीं झिझकता तथा कहता है- ‘‘भो अशरणशरण! परित्रायस्व।’’ इसी तरह बड़े कातरभाव से वसन्तसेना से प्रार्थना करता है- ’’गर्भ दासीपुत्रि! प्रसीद! प्रसीद! न पुनर्मा रिष्यामि। तत् परित्रायस्व।’’ वस्तुतः वह कायर ही है। शूरता और वीरता का तो उसने आवरण पहन रखा है। शकार के दुराग्रही होने के कारण उसके साथी विट और चेट को हमेंशा शंका रहती है कि न जाने वह क्षण भर में क्या कर बैठे? अष्टम अंक में पहले तो वह विट को गाड़ी में बैठने को कह देता है फिर उसका अपमान करने लगता है। इसी प्रकार स्थावरक (चेट) को दीवार पर से गाड़ी लाने का आदेश दे देता है। प्रथम अंक में विट से कहता है कि मैं वसन्तसेना को लिए बिना नहीं चलूँगा। ये सभी उदाहरण उसके दुराग्रही स्वभाव को प्रमाणित करते हैं।
क्रूर एवं निर्दयी- ‘शकार क्रूर और निर्दयी होने के साथ पापी है तथा पाप पूर्ण योजना बनाने में निपुण है। विट और चेट को कपटपूर्वक हटाकर वसन्तसेना का गला दबा देता है और जब विट इस कुकृत्य की भर्त्सना करता है तो उस पर ही हत्या का आरोप लगा देता है। चेट को बांधकर एक स्थान पर डाल देता है तथा स्वयं चारुदत्त पर वसन्तसेना की हत्या का अभियोग चलाता है। जब चेट उसके पापों का खुलासा करता है तो उस पर चोरी का आरोप बड़ी चतुरता से लगा देता है। चाण्डालों को पुत्र सहित चारुदत्त को मारने का आदेश दे देता है- ‘‘सपुत्रमेवैतं मारय।’’ अपने षड्यन्त्र को सफल होते देख वह अति हर्षि त होता है और अपने सामने चारुदत्त का वध देखना चाहता है, ‘‘तत् प्रेक्षिष्य, शत्रुविनाशो नाम मम महान् हृदयस्य परितोषो भवति।’’
कामुक- शकार क्रूर होने के साथ्.-साथ कामवासना से युक्त है। जिस वसन्तसेना को वेश्या समझ एक तुच्छ, प्राणी समझता है, यद्यपि उस वसन्तसेना के मन में उसके लिए कोई स्थान नहीं है किन्तु शकार येन.केन प्रकारेण उसे अपना बनाना चाहता है। वह किसी भी कीमत पर कामाग्नि को शान्त करना चाहता है।
प्रथम अंक से प्रारम्भ होकर अन्तिम अंक तक उसकी काम वासना ही प्रकट होती है। वह साम, दाम, दण्ड, भेद इन चारों नीतियों से वसन्तसेना को वश में करना चाहता है और जब वह अपने प्रयासों में असफल हो जाता है तो उसे मारने से भी नहीं चूकता है।
शकार के चरित्र पर विल्सन महोदय की टिप्पणी भी द्रष्टव्य है- तथापि नाटक की सर्व श्रेष्ठ सृष्टि राजा का साला संस्थानक है। इतना पूर्णतया घृणास्पद चरित्र शायद साहित्य में कभी अंकित नहीं किया गया है। उसके दुर्गुण भयंकर हैं, वह नितान्त निर्म म एवं दुश्चेष्ट है, तो भी इतना हास्यास्पद है कि हमारा क्रोध बेकार बर्बाद होता है और जब उसके अपराधों के 163 उचित दण्ड की घड़ी आती है तब चारुदत्त के साथ हम भी यह कहने के लिए प्रवृत्त हो जाते हैं इसे मुक्त करो और छोड़ दो।’
डॉ. भाट ने भी शकार को शैक्सपियर के दानव से तुलना की है जिस पर नियन्त्रण रखने वाला मालिक मौजूद नहीं है अथवा ‘पंचतन्त्र’ के पृष्ठों में से शायद एक धूर्त लोमड़ी शकार के स्वरूप में जीवित प्रकट हो गयी है।
शकार के चरित्र में प्रायः सभी दुर्गुणों का पुंज दृष्टिगोचर होता है। केवल स्त्री लम्पट, मूर्ख और धूर्त ही नहीं अपितु घमण्डी, कायरता, भीरुता, निर्ल ज्जता, स्वादलोलुपता, कुटिलता आदि अवगुणों की प्रतिमूर्ति है।प्रस्तुत प्रकरण में वह मानव के रूप में दानव विद्यमान है। ग्रन्थ में प्रतिनायक के रूप में उसका यथार्थ चित्रण किया गया है।
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