विरुद्धक का चरित्र चित्रण - Viruddhak ka Charitra Chitran

विरुद्धक का चरित्र चित्रण : विरुद्धक राजा प्रसेनजित का पुत्र और कौशल का राजकुमार है। वह राज्य-सिंहासन प्राप्त करने के लिए अपने पिता से विद्रोह करता है

विरुद्धक का चरित्र चित्रण - Viruddhak ka Charitra Chitran

विरुद्धक का चरित्र चित्रण - Viruddhak ka Charitra Chitran

विरुद्धक का चरित्र चित्रण : विरुद्धक राजा प्रसेनजित का पुत्र और कौशल का राजकुमार है। वह राज्य-सिंहासन प्राप्त करने के लिए अपने पिता से विद्रोह करता है। विरुद्धक का पिता उसे राज्य से निष्काषित कर देता है इसीलिए वह काशी में जाकर शैलेन्द्र नामक डाकू बन जाता है। वह श्यामा और बंधुल की हत्या भी करता है लेकिन भाग्यवश श्यामा तो बच जाती है। इस प्रकार आलोच्य नाटक में वह खलनायक की भूमिका निभाता है। विरुद्धक के चरित्र के महत्वपूर्ण तथ्य अवलोकनीय हैं- 

सिंहासन की लालसा

विरुद्धक की राज्य लोलुपता का पता प्रथम अंक के सप्तम द श्य में श्रावस्ती प्रसेनजित की राजसभा आए विरुद्धक और उनके पिता प्रसेनजित के संवादों से चलता है। राजसभा में सुदत्त द्वारा सूचना मिलती है कि मगध नरेश बिंबसार से एक षडयंत्र द्वारा उनके पुत्र अजातशत्रु ने राज्य-सिंहासन पर अधिकार कर लिया है। यह सुनकर विरुद्धक इस घटना को उचित ठहराते हुए कहता है-

''मैंने तो सुना है कि महाराज बिंबसार ने वानप्रस्थ-आश्रम स्वीकार किया है और उस अवस्था में युवराज का राज्य संभालना अच्छा ही है।"

विरुद्धक के कथन को सुनकर प्रसेनजित आश्चर्यचकित हो जाते हैं और उससे पूछते हैं-

"विरुद्धक! क्या अजात की ऐसी परिपक्व अवस्था है मगध नरेश उसे साम्राज्य का बोझ उठाने की आज्ञा दें। "

लेकिन विरुद्धक अजातशत्रु के माध्यम से अपना मन्तव्य स्पष्ट करते हुए कहता है- 

"पिताजी! यदि क्षमा हो तो मैं यह कहने में संकोच करूँगा कि युवराज को राज्य संचालन की शिक्षा देना महाराज का ही कर्तव्य है ।"

प्रसेनजित अपने पुत्र के वास्तविक मन्तव्य को समझकर उत्तेजित होते हुए कहते हैं-

"और आज तुम दूसरे शब्दों में उसी शिक्षा को पाने का उद्योग कर रहे हो। क्या राज्याधिकार ऐसी प्रलोभन की वस्तु है कि कर्तव्य और पित भक्ति एक बार ही भुला दी जाय !" 

विरुद्धक: पुत्र यदि पिता से अपना अधिकार माँगे, तो उसमें दोष ही क्या ? 

विरुद्धक के इस स्पष्ट को सुनकर प्रसेनजित अत्यधिक क्रोधित हो जाते हैं और उसकी माँ को दासी पुत्री एवं उसकी नसों में मिश्रित रक्त प्रवाहित होने का आरोप लगाते हुए, विरुद्धक को युवराज पद से निष्काषित करते हुए कहते हैं- 

"तब तू अवश्य ही नीच रक्त का मिश्रण है। उस दिन, जब तेरी ननिहाल में तेरे अपमानित होने की बात मैंने सुनी थी, मुझे विश्वास नहीं हुआ, अब मुझे विश्वास हो गया - शाक्यों के कथनानुसार तेरी माता अवश्य ही दासी पुत्री है। नहीं तो तू इस पवित्र कोसल की विश्व-विश्रुत गाथा पर पानी फेरकर अपने पिता के साथ उत्तर- प्रत्युत्तर न करता । क्या इसी कोसल में रामचंद्र और दशरथ के सदृश पुत्र और पिता अपना उदाहरण नहीं छोड़ गये हैं।"

इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि विरुद्धक अजातशत्रु की तरह ही राजा बनने की इच्छा मन में सजाए हुए हैं।

आज्ञाकारी पुत्र

विरुद्धक को माता और पिता का आज्ञाकारी पुत्र कहें तो कोई अतिश्योक्ति नहीं। जब विरुद्धक अपने पिता के समक्ष अजातशत्रु के राजा बनने के पक्ष में अपना मत प्रकट करता है तो प्रसेनजित उसके तर्क को सुनकर उत्तेजित हो जाता है। वह उसे भला-बुरा कहता है लेकिन वह कुछ नहीं बोलता और अपने युवराज होने की मर्यादा को बनाए रखता है। वह उसे यहाँ तक कह देता है कि "तू अवश्य ही नीच रक्त का मिश्रण है", यह सुनकर भी विरुद्धक चुप ही रहता है लेकिन बीच में सुदत्त कहता है- “दयानिधे! बालक का अपराध मार्जनीय है।” पिता-पुत्र के इस विवाद में सुदत्त द्वारा यह संवाद बोलने पर वह उसे यह कहकर डाँट देता है

"चुप रहो सुदत्त पिता कहे और पुत्र उसे सुने! तुम चाटुकारिता करके मुझे अपमानित न करो। "

क्रोध में आकर प्रसेनजित यह घोषणा कर देते हैं- "आज से यह निर्भीक किंतु अशिष्ट बालक अपने युवराज पद से वंचित किया गया। और, इसकी माता का राजमहिषी का-सा सम्मान नहीं होगा ...।” यह सब सुनकर भी वह विरोध न करके केवल न्याय की ही माँग करता है- ‘‘पिताजी, मैं न्याय चाहता हूँ । विरुद्धक की न्याय की माँग ठुकराए जाने तथा सभा से चले जाने के आदेश के बावजूद वह पिता के विरुद्ध वह कुछ नहीं बोलता और एक आज्ञाकारी पुत्र भाँति सभा से सिर झुकाकर बाहर चला जाता है।

इतना अपमान सहने के बाद उसकी आँखों से अश्रु धारा बह निकलती है, इसे देखकर उसकी माता शक्तिमती उसे कहती है- "स्त्रियों की-सी रोदरशीला प्रकृति लेकर तुम कोसल सम्राट बनोगे?”

उसकी माँ उसे उत्तेजित करते हुए समझाती है कि जब वह दासी पुत्री होकर भी राजरानी बन सकी है तो फिर तुम राजा के पुत्र होते हुए भी राजा क्यों नहीं बन सकते?-

"तुम राजा के पुत्र होकर इतने निस्तेज और डरपोक हो मैंने यह स्वप्न में भी न सोचा था। बालक! मानव अपनी इच्छा-शक्ति से और पौरुष से ही कुछ होता है। ... महत्त्वाकांक्षी के प्रदीप्त अग्निकुंड में कूदने को प्रस्तुत हो जाओ, विरोधी शक्तियों का दमन करने के लिए कालस्वरूप बनो, साहस के साथ उनका सामना करो, फिर या तो तुम गिरोगे या वे ही भाग जायेंगी। मल्लिका तो क्या, राजलक्ष्मी तुम्हारे पैरों पर लोटेगी! पुरुषार्थ करो! इस पथ्वी पर जियो तो कुछ होकर जियो, नहीं तो मेरे दूध का अपमान कराने का तुम्हें अधिकार नहीं।" 

विरुद्धक का आज्ञाकारी रूप यहाँ भी प्रकट होता है जब वह अपनी माता द्वारा कहे गये कथनों से उत्तेजित होकर प्रतिज्ञा करता है-

"बस माँ अब कुछ न कहा। आज से प्रतिशोध लेना मेरा कर्तव्य और मेरे जीवन का लक्ष्य होगा। माँ! मैं प्रतिज्ञा करता हूँ तेरे अपमान के कारण इन शाक्यों का एक बार अवश्य संहार करूँगा और उनके रक्त में नहाकर इस कोसल के सिंहासन पर बैठकर, तेरी वंदना करूंगा। आशीर्वाद दो कि इस क्रूर परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाऊँ।" 

निष्कर्षतः वह अपने माता और पिता के ही आदेशों का अनुपालन करते हुए की कुमार्ग का पथगामी हो जाता है। वस्तुतः आलोच्य नाटक में विरुद्धक एक आज्ञाकारी पुत्र की भूमिका का सफल निर्वाह करता है।

स्वाभिमानी युवक

विरुद्धक एक स्वाभिमानी प्रकृति का राजकुमार है। उसे अपनी शक्ति पर अत्यधिक भरोसा है। जब उसके पिता का उसे यह संदेश मिलता है कि यदि वह गुप्त रूप से सेनापति बंधुल की हत्या कर दे तो उसका अपराध क्षमा कर दिया जाएगा तो बंधुल से मिलकर कोशल के सिंहासन पर अधिकार जमाने की योजना बनाता है। उस समय इन दोनों के मध्य जो वार्तालाप होता है उससे विरुद्धक के स्वाभिमानी रूप का पता चलता है, यथा-

विरुद्धक: सेनापते! कुशल तो है?

बंधुल: कुमार की जय हो! क्या आज्ञा है? आप अकेले क्यों हैं?

विरुद्धक: मित्र बंधुल! मैं तो तिरस्क त राज-संतान हूँ। फिर अपमान सहकर, चाहे वह पिता का सिंहासन ही क्यों न हो, मुझे रूचिकर नहीं ।

राजकुमार! आपको सम्राट ने निर्वासित तो किया नहीं, फिर आप क्यों इस तरह अकेले घूमते हैं? चलिये- काशी का सिंहासन आपको मैं दिला सकता हूँ।

विरुद्धक: नहीं बंधुल! मैं दया से दिया हुआ दान नहीं चाहता। मुझे तो अधिकार चाहिये, स्वत्व चाहिये ।

बंधुल: फिर आप क्या करोगे?

विरुद्धक: मैं बाहुबल से उपार्जन करूँगा। म गया करूँगा। क्षत्रिय-कुमार हूँ। चिंता क्या है? स्पष्ट करता हूँ बंधुल, मैं साहसिक हो गया हूँ। अब वही मेरी वृत्ति । राज- स्थापन के पहले मगध के भूपाल भी तो यही किया करते थे।" 

स्पष्ट है कि विरुद्धक बिना किसी श्रम के कुछ भी प्राप्त नहीं करना चाहता, चाहे वह राज-सिंहासन ही क्यों न हो। अतः वह एक ताकतवर और स्वाभिमानी राजकुमार है। 

प्रेमी रूप

विरुद्धक का प्रेमी रूप पाठकों एवं दर्शकों के समक्ष दो रूपों में आता है- (1) मल्लिका के प्रति सच्चा प्रेम (2) श्यामा के प्रति धूर्तपूर्ण प्रेम। वह अपने अन्तर्मन से मल्लिका को प्रेम करता है। लेकिन विरुद्धक का यह प्रेम उस समय विकृति का रूप धारण कर लेता है जब मल्लिका का विवाह बंधुल के साथ हो जाता है।

राजा उद्यन की रानी मागंधी (श्यामा) विरुद्धक पर जी-जान से फिदा हो जाती है। वह अपने इसी प्रेमी की जान बचाने के लिए समुद्रगुप्त को भी बलि का बकरा बना देती है, लेकिन इसका वही प्रेमी इसके साथ धोखा करता है। पहले तो वह श्यामा के साथ बड़ी प्रेमपूर्ण बातें करता है-

एक बार तो उसकी अन्तरात्मा उसे इस कार्य के लिए धिक्कारती है कि- "हृदय में एक करुण वेदना उठती है- ऐसी सुकुमार वस्तु! नहीं-नहीं!” लेकिन दूसरे ही पल वह यह सोचकर उसकी हत्या कर देता है कि-

‘“किंतु विश्वास के बल पर ही इसने समुद्रदत्त के प्राण लिये ! यह नागिन है, पलते देर नहीं।"

वह उसके शिथिल हो जाने पर आभूषण भी उतार लेता है और उसके घर में भी जो कुछ है उसे उठा ले जाता है; क्योंकि उसे धन की आवश्यकता है। जगन्नाथ प्रसाद शर्मा विरुद्धक द्वारा ऐसा कार्य किये जाने का कारण स्पष्ट करते हुए कहते हैं- "उसके इस क्रूर आचरण से इष्ट-साधन की दृढ़ता ही प्रकट होती है।

विवेकशील

विरुद्धक युद्ध क्षेत्र में अजातशत्रु की सहायता करना चाहता है लेकिन अजातशत्रु को विश्वास नहीं होता। वह उसे विश्वास दिलाकर अपने पक्ष में कर लेता है लेकिन छलना उससे प्रश्न करती है- “कुमार विरुद्धक ! क्या तुम अपने पिता के विरुद्ध खड़े होंगे, और किस विश्वास पर ...!” यह सुनकर विरुद्धक उत्तर देता है-

"जब मैं पदच्युत और अपमानित व्यक्ति हूँ, तब मुझे अधिकार है कि सैनिक कार्य में किसी का भी पक्ष ग्रहण कर सकूँ, क्योंकि यही क्षत्रिय की सर्वसम्मत आजीविका है। हाँ, पिता से मैं स्वयं नहीं लडूंगा। इसीलिए कौशांबी की सेना पर मैं आक्रमण करना चाहता हूँ।"

इस प्रकार वह अजातशत्रु को अपने पक्ष में युद्ध करने के लिए प्रसन्न कर लेता है, यह उसकी विवेकशीलता का ही परिणाम था ।

परिवर्तनशील व्यक्तित्व

नाटक के अंत में विरुद्धक अपनी पूर्व प्रेमिका के सद् प्रयासों से पूर्णतः परिवर्तित हो जाता है। मल्लिका युद्ध में घायल विरुद्धक की यह जानते हुए भी सेवा करती है कि उसी ने उसके पति की हत्या की है। इस सेवा का विरुद्धक कुछ गलत अर्थ लगा बैठता है और मल्लिका से कहता है-

"मुझे तुमसे कुछ कहना है । मेरे हृदय में बड़ी खलबली है। यह तो तुम्हें विदित था कि सेनापति बंधुल को मैंने ही मारा है, और उसी की तुमने इतनी सेवा की। इससे क्या मैं समझं? क्या मेरी शंका निर्मूल नहीं है? कह दो मल्लिका।"

मल्लिका उसके भ्रम का निवारण तुरन्त कर देती है और उसे लताड़ते हुए कहती है-

"विरुद्धक! तुम उसका मनमाना अर्थ लगाने का भ्रम मत करो। तुम्हारा रक्तकलुषित हाथ मैं छू भी नहीं सकती। तुमने कपिलवस्तु के निरीह प्राणियों का, किसी की भूल पर, निर्दयता से वध किया, तुमने पिता से विद्रोह किया, विश्वासघात किया; एक वीर को छल से मार डाला और अपने देश की जन्मभूमि के विरुद्ध अस्त्र ग्रहण किया। तुम्हारे जैसा नीच और कौन होगा ! किंतु यह जानकर भी मैं तुम्हें रणक्षेत्र से सेवा के लिए उठा लायी। ... तुम इसलिए नहीं बचाये गये कि फिर भी एक विरक्ता नारी पर बलात्कार और लंपटता का अभिनय करो। जीवन इसलिए मिला है कि पिछले कुकर्मों का प्रायश्चित करो- अपने को सुधारो। "

इतना सब सुनकर वह अपने आपको सुधारने का प्रयास करता है और श्यामा के साथ किए गए अनैतिक कार्य के प्रति भी क्षमा माँगता है- "श्यामा, अब मैं सब तरह से प्रस्तुत हूँ और क्षमा भी माँगता हूँ।” इतना ही नहीं वह मल्लिका के भी पैरों में गिरकर उससे क्षमा-याचना करता है - नाटकांत में वह अपने द्वारा किए हुए कुक त्यों पर पिता से क्षमा माँग लेता है-

इस प्रकार प्रसाद जी ने विरुद्धक को एक शक्तिशाली पात्र के रूप में प्रस्तुत किया है जो मार्गदर्शन के अभाव में कुमार्ग का पथगामी बन जाता है। लेकिन बाद में मल्लिका मधुर वचनों के परिणामस्वरूप वह अपनी भूल को स्वीकारते हुए सभी से क्षमा-याचना कर लेता है और दर्शकों एवं पाठकों के हृदय में स्थान बनाते में सफल हो जाता है। इस प्रकार उसमें स्वावलंबन, दृढता, उद्योग, वीरता, विवेक, मात-पित भक्ति आदि अनेक पुरूषोचित गुण और धर्म दिखाई पड़ते हैं।

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