सूबेदारनी का चरित्र चित्रण- गुलेरी जी की अमर कहानी 'उसने कहा था' में सूबेदारनी का अत्यन्त मार्मिक एवं महत्त्वपूर्ण चरित्र है। लेखक ने उसे अल्हड़ बालिक
सूबेदारनी का चरित्र चित्रण - Subedarni ka Charitra Chitran
सूबेदारनी का चरित्र चित्रण- गुलेरी जी की अमर कहानी 'उसने कहा था' में सूबेदारनी का अत्यन्त मार्मिक एवं महत्त्वपूर्ण चरित्र है। लेखक ने उसे अल्हड़ बालिका, पतिपरायणा पत्नी एवं वात्सल्यमयी जननी की उत्कृष्ट भूमिका में अंकित करके नारी के पावन एवं उज्जवल चरित्र की महिमा से मंडित किया है। कहानी में वह सर्वप्रथम एक चपल, चुलबुली, अल्हड़ सीधी-सादी आठ वर्षीय बालिका के रूप में पाठकों के सम्मुख आती है, जिसे बारह वर्षीय लहना एक दिन हठात् तांगे के नीचे आने से बचा लेता है और जो लहना के इस जीवन-दान सम्बन्धी लोकोपकारी कार्य से सहसा उसकी ओर आकृष्ट हो जाती है। बचपन का यह आकर्षण न तो काम - भावना से प्रेरित है और न इसमें अनैतिकता की ही कहीं गंध आती है, अपितु यह एक नैसर्गिक, उज्ज्वल एवं पवित्र आकर्षण है, जो उस बालिका के हृदय में धीरे-धीरे बढ़ता चला जाता है और जो एक महीने में अधिक गहनता एवं व्यापकता का रूप भी धारण कर लेता है परन्तु यह आकर्षण उस बालिका में एक विलक्षण चपलता, अद्भुत विनोदप्रियता एवं असाधारण वाग्वैदग्ध्य को जन्म दे देता है। तभी तो वह बालक लहना के नित्य प्रति 'तेरी कुड़माई हो गई' कहकर चिढ़ाने पर अत्यन्त विनोदी ढंग से 'धत्' कहकर चली जाती है और बालक लहना नित्य उसके इस शब्द - माधुर्य के रस में आनन्द विभोर हो जाता है। परन्तु एक दिन उसका यह चिढ़ाना बड़ा महँगा पड़ता है क्योंकि वह अल्हड़ बालिका उस बालक लहना की संभावना के विरुद्ध 'हां' हो गई उत्तर देती है और जब वह बालक यह पूछता है कि 'कब' ? तो वह ‘कल,-देखते नहीं, यह रेशम से कढ़ा हुआ सालू' कहकर न केवल बालक लहना की आशाओं पर पानी फेर देती है, वरन् उसके उपचेतन में विद्यमान बालिका की प्रेममयी मूर्ति के भी टुकड़े-टुकड़े कर देती है और उसके एक महीने से सँजोये हुए सपनों की सतरंगी दुनियाँ को भी नष्ट-भ्रष्ट कर देती है। लेखक ने इसके अनंतर उस बालिका को सबूदारनी के रूप में चित्रित किया है, जो सूबेदार हजारासिंह की पत्नी है और जिसका इकलौता पुत्र बोधासिंह भी फोज में भर्ती हो गया है। यद्यपि वह चार पुत्रों को और भी जन्म दे चुकी है, तथापि उनमें से कोई नहीं बचा है और वह इस बात से अत्यन्त दुःखी है कि उसका पति और पुत्र दोनों ही लाम पर जा रहे हैं। इस सूचना से उसका हृदय अत्यन्त व्याकुल एवं व्यग्र रहता है कि उसके पति और पुत्र दोनों को एक साथ ही रणक्षेत्र में जाना पड़ेगा। वह रोक भी नहीं सकती, क्योंकि वह एक विवेक सम्पन्न नारी है और जानती है कि सरकार ने उसके पति को 'बहादुर' का खिताब दिया है, लायलपुर में जमीन दी है और आज उसी सरकार की नमकहलाली का अवसर आया है, तो वह कैसे उन्हें रोक सकती है ?
लेखक ने सूबेदारनी को एक पति और पुत्र की सदैव मंगलकामना करने वाली एक आदर्श पत्नी और महान् जननी के रूप में भी चित्रित किया है, तभी तो वह लहनासिंह को पहचानते ही उसके सामने अपनी राम - कहानी सुनाती हुई रोने लगती है और कहती है- "अब दोनों जाते हैं। मेरे भाग! तुम्हें याद है, एक दिन ताँगे वाले का घोड़ा दही वाले की दुकान के पास बिगड़ गया था। तुमने उस दिन मेरे प्राण बचाये थे। आप घोड़े की लातों में चले गये थे और मुझे उठाकर दुकान के तख्ते पर खड़ा कर दिया था। ऐसे ही इन दोनों को बचाना, यह मेरी भिक्षा है । तुम्हारे आगे मैं आँचल पसारती हूँ।” सूबेदारनी के इन वाक्यों में कितना सुदृढ़ विश्वास, आत्मीयता एवं प्रगाढ़ श्रद्धा की भावना भरी हुई है। उसके ये शब्द कितने प्ररेणादायक एवं उत्साहवर्धक भी हैं। इनमें कहीं भी न तो अवैध संबंध की हीन ग्रंथि है और न कहीं नारी की मार्यादा का उल्लंघन हुआ है, अपितु भारतीय पत्नी एवं जननी के गौरव की मर्यादा में पैठकर उसने जिस संकोचहीन भावना के साथ लहनासिंह से अपने पति एवं पुत्र की रक्षा के लिए उसके जीवन की भीख माँगी है, यह उसके अडिग विश्वास, अटूट श्रद्धा एवं गहन आत्मीयता की प्रतीक है। इतना ही नहीं, उसके इन विचारों में उसके उदात्त एवं गंभीर प्रेम की झलक भी मिल जाती है, जो एक महीने के सतत आकर्षण के कारण उसके बचपन में अंकुरित हो गया था और काल के दीर्घ अन्तराल में भी जो पूर्णतया शुष्क नहीं हुआ था, अपितु जिसकी जड़ें उसके पुनीत हृदय में विद्यमान थीं।
अतः गुलेरीजी ने सूबेदारनी को अन्त एक उदात्त एवं पुनीत प्रेम की प्रतिमा के रूप में चित्रित करके उसे भारतीय मर्यादा का पालन करने वाली आदर्श पत्नी एवं आदर्श जननी की भूमिका में ही अंकित नही किया है, अपितु अडिग विशवास एवं सुदृढ़ निष्ठा से सम्पन्न एक ऐसी आदर्श प्रेमिका के रूप में भी अंकित किया है, जो लहनासिंह के जीवन की धारा को ही मोड़ देती है, उसे त्याग एवं बलिदान की ओर उन्मुख कर देती है और उसे अजेय योद्धा की गरिमा से मण्डित करती हुई अमर बना देती है।
इस प्रकार गुलेरीजी के चरित्र चित्रण में मानवीय गुणों की गरिमा के साथ-साथ स्वाभाविकता है, वास्तविकता है, आंशिकता है और संक्षिप्तता भी है, क्योंकि किसी भी पात्र के चरित्र को पूर्णतया अंकित न करके उसकी केवल उन चारित्रिक विशेषताओं का ही उद्घाटन किया है, जो कहानी के लिए अपेक्षित हैं और जिनके द्वारा जीवन के महत्त्वपूर्ण पहलू पर प्रकाश डाला जा सकता है। इस तरह पात्र - योजना में गुलेरी जी को पूर्ण सफलता मिली है।
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