लोकगीत की परिभाषा: लोकगीत की परिभाषा प्रस्तुत करते हुए परसी ने लिखा है- “This primitive spontaneous music has been called folk song.” इस परिभाषा से स्
लोकगीत की परिभाषा एवं विशेषताएं बताइये।
लोकगीत की परिभाषा
लोकगीत की परिभाषा: लोकगीत की परिभाषा प्रस्तुत करते हुए परसी ने लिखा है- “This primitive spontaneous music has been called folk song.” इस परिभाषा से स्पष्ट है कि मानव चाहे सभ्य हो अथवा असभ्य, उसमें अपनी अनुभूति को अभिव्यक्त करने की इच्छा और क्षमता अवश्य होती है। आदिम मानव भी स्वानुभूति से प्रेरित होकर जब कभी सुख अथवा दुःख की संवेदना से आंदोलित हुआ होगा, तभी लोकगीतों की स्वरधारा उसके कंठ पर लहरा उठी होगी। जब यह स्वरधारा लयबद्ध होकर निकलती है, तभी गीत का स्वरूप धारण कर लेती है। लोकगीतों के उद्गम के संबंध में श्री देवेन्द्र सत्यार्थी के विचार उल्लेखनीय हैं-कहां से आते हैं इतने गीत ? स्मरण- विस्मरण की आंख-मिचौनी से कुछ अट्टहास से । कुछ उदास हृदय से कहां से आते हैं इतने गीत ? जीवन के खेत में उगते हैं, ये सब गीत । कल्पना भी अपना काम करती हैं, रसवृत्ति और भावना भी, नृत्य का हिलोकरा भी - पर ये सब हैं खाद। जीवन के सुख, जीवन के दुःख- ये हैं लोकगीत के बीज।
लोकगीतों का संबंध लोकजीवन के सुख और दुःख से है। इनमें जन-जीवन के भाव अभिव्यक्त होते हैं। लोकगीतों के विकास और उनमें पिरोए हुए भावों की विस्तृत परिधि की चर्चा करते हुए डॉ. श्याम परमार ने लिखा है-
" गीतों के प्रारंभ के प्रति एक संभावना हमारे पास है, पर उसके अंत की कोई कल्पना नहीं । यह वह धारा है, जिसमें अनेक छोटी-मोटी धाराओं ने मिलकर उसे सागर की तरह गंभीर बना दिया है। सदियों के घात - प्रतिघातों ने उसमें आश्रय पाया है। मन के ताने-बाने बुने हैं। स्त्री-पुरुषों ने थककर इसके माधुर्य में अपनी थकान मिटाई है। इनकी ध्वनि में बालक सोये हैं, जवानों में प्रेम की मस्ती आई है, बूढ़ों ने मन बहलाए हैं, बैरागियों ने उपदेशों का पान कराया हैं, विरही युवकों ने मन की कसक मिटाई है, विधवाओं ने अपने एकांगी जीवन में रस पाया है, पथिकों ने थकावटें दूर की हैं, किसानों ने अपने बड़े-बड़े खेत जोते हैं, मजदूरों ने विशाल भवनों पर पत्थर चढ़ाए हैं और मौजियों ने चुटकुले छोड़े हैं।"
सृष्टि के आदिकाल में सामाजिक चेतना के साथ लोकगीत का उदय हुआ, जिसका संबंध जन-जीवन से था। धीरे-धीरे मानव में ज्ञान का विकास हुआ और उसने लयबद्ध वाणी में अपने सुख-दुःख की कहानी कहना प्रारंभ किया। यह लयबद्ध वाणी लोककंठ का आश्रय पाकर लोकगीत बनी। इस संबंध में श्री सूर्यकरण पारीक के विचार दृष्टव्य हैं-
"आदि मनुष्य - हृदय के गानों का लोकगीत है। मानव जीवन की उसके नाम उल्लास की, उसकी उमंगों की, उसकी करुणा की, उसके रुदन की, उसके समस्त सुख - दुःख की कहानी इनमें चित्रित है। "
मानव में संगठन और सामाजिकता की भावना के उदय के साथ लोकगीतों का भी विकास हुआ। उसके भावों की परिधि का विस्तार हुआ। मानव के आदि काल के गीतों में मानव की सामूहिक भावनाएं अभिव्यक्त हुई हैं। विभिन्न ऋतुओं एवं उत्सवों पर गाए जाने वाले गीत मानव के ज्ञान के विकास, उल्लास, संघर्ष और सामूहिकता की कहानी हैं।
लोकगीत की विशेषताएं
लोकगीतों का तुलनात्मक अध्ययन करके ऐसी विशेषताओं का परिचय देना आवश्यक होता है, जिनके आधार पर लोकगीतों को शिष्ट या परिनिष्ठित गीतियों से पृथक रूप में माना जा सके। लोकगीतों को इनकी नैसर्गिकता के लिए जाना जाता है, ऐसी मान्यता है डॉ. श्याम परमार की
"गीतों में विज्ञान की तराश नहीं, मानव संस्कृति का सारल्य और व्यापक भावों का उभार है। भावों की लड़ियां लंबे-लंबे खेतों-सी स्वच्छ, पेड़ों की नंगी डालों-सी अनगढ़ और मिट्टी की भांति सत्य हैं।"
लोकगीतों को उनमें प्राप्त सहजता, रसमयता, मधुरता आदि गुणों के लिए जाना जाता है। इस प्रकार के गीतों से कोई साज-संवार नहीं होती। लोक- कविता के कंठ से लोकगीतों में सहज रूप में स्फुरित होने के कारण छंद, अलंकार, वक्रोक्ति, चमत्कार आदि के लिए कोई स्थान नहीं होता। इसी सहजता एवं प्राकृतिक उन्मेष के संबंध में भी रामनरेश त्रिपाठी के निम्न वाक्य देखे जा सकते हैं-
"ग्रामगीत प्रकृति के उद्गार हैं। इनमें अलंकार नहीं, केवल रस है! छंद नहीं, केवल लय है। लालित्य नहीं, केवल माधुर्य है। ग्रामीण मनुष्यों के स्त्री-पुरुषों के मध्य में हृदय नामक आसन पर बैठकर प्रकृति गान करती है। प्रकृति के वे ही गान ग्रामगीत हैं।"
कहना न होगा कि श्री त्रिपाठी के उपर्युक्त कथन में प्रयुक्त 'ग्रामगीत' शब्द लोकगीत के पर्याय रूप में ही गृहीत हैं। श्री त्रिपाठी ने लोकगीतों में प्राप्त सरसानुभूति का उल्लेख किया है, उसी प्रकार डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल ने भी लोकगीतों में प्राप्त रस- कलश की ओर मुग्ध होकर निम्न विचार व्यक्त किये हैं-
“नीले आकाश के नीचे प्रकृति के बहुरंगी परिवर्तन, युद्ध और शान्तिमय जीवन के चित्र एवं विधाता की स्त्री - संज्ञक रहस्यमयी सृष्टि की मानवीय जीवन पर प्रसाद और विषादमयी छाया-ये इन गीतों के प्रधान विषय हैं, जो शतकोटि कंठों से सहस्रों बार गाए जाने पर भी पुराने नहीं पड़ते और जिनकी सतत् किलकारी वायु में भरे हुए चिरंतन स्वर की तरह सर्वत्र सुनाई पड़ती है। गीत मानो कभी न छीजने वाले रस के सोते हैं। वे कंठ से गाने के लिए और हृदय से आनन्द लेने के लिए हैं।
लोकगीतों में लोक-संस्कृति का चित्रण भी अवश्यम्भावी होता है। इसलिए लोकगीतों के संबंध में यह विचार भी इसी रूप में लेना चाहिए कि लोक-संस्कृति की विवृत्ति भी इनकी एक आवश्यक विशेषता होती हैं। संस्कृति का उचित आख्यान करने की इसी प्रधान विशेषता पर बल देते हुए भी देवेन्द्र सत्यार्थी ने लोकगीतों के विषय में यह सारगर्भित वाक्य लिखा- "लोकगीत किसी संस्कृति के मुंह बोलते चित्र हैं।"
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