मूल्यांकन में अंकन प्रणाली (Mark System in Evaluation in Hindi) अंकन प्रणाली में छात्रों की शैक्षिक उपलब्धि की संख्यात्मक अभिव्यक्ति हेतु शून्य से लेक
मूल्यांकन में अंकन प्रणाली (Mark System in Evaluation in Hindi)
विभिन्न विषयों में विद्यार्थियों की शैक्षिक उपलब्धि मापने के लिए विद्यार्थियों के द्वारा परीक्षा में दिए गए उत्तरों के लिए परीक्षकों के द्वारा अंक प्रदान करने की विधि अधिक प्रचिलित है। जिसमें समान्यतः 101 बिन्दु अंकन प्रणाली का प्रयोग किया जाता है। अर्थात विद्यार्थियों को शून्य से सौ तक के कुल 101 प्राप्तांकों मे से कोई एक अंक प्रदान किया जाता है। प्राचीन अंकन प्रणाली में छात्रों की शैक्षिक उपलब्धि की संख्यात्मक अभिव्यक्ति हेतु शून्य से लेकर 100 मे से कोई एक अंक प्रदान कर 101 समूहों में बांटते है अर्थात 101 बिन्दु मापनी का प्रयोग किया जाता है। इसके साथ - 2 छात्रों को प्रथम, द्वितीय या तृतीय श्रेणी देने तथा अनुतीर्ण घोषित करने के लिए पूर्व निर्धारित विभाजन बिन्दुओं का प्रयोग किया जाता है। उदाहरण के लिए वर्तमान परीक्षा प्रणाली में 59.75% अंक पाने वाले विद्यार्थियों को द्वितीय श्रेणी तथा 60% अंक पाने वाले विद्यार्थियों को प्रथम श्रेणी दी जाती है। अंकन प्रणाली की दो कमियाँ है - प्रथम, मूल्यांकनकर्ता के निर्णय मे जरा सी चूक होने पर कभी-2 एक या दो अंक के कारण छात्र की श्रेणी अथवा उत्तीर्ण अथवा अनुतीर्ण की स्थिति बदल सकती है अर्थात एक या दो अंक के इस मामूली अंतर से द्वितीय श्रेणी वाला छात्र, प्रथम श्रेणी तथा प्रथम श्रेणी वाला छात्र द्वितीय श्रेणी पा सकता है। इसी प्रकार के जरा से अंतर से कोई भी विद्यार्थी उत्तीर्ण या अनुतीर्ण भी हो सकता है। यदि व्यक्ति की योग्यता को अंक प्रदान करने का कोई वस्तुनिष्ठ उपकरण होता तो इस विधि को विश्वसनीय एवं वैध माना जा सकता था परंतु ऐसा नही है। परीक्षक द्वारा प्रदान किए गए अंक विद्यार्थी की वास्तविक योग्यता का प्रतिनिधित्व नहीं करते है अर्थात परिक्षक द्वारा प्रदान किए गए अंकों मे व्यक्तिनिष्ठता हो सकती है इसी कारण विद्यार्थियों की शैक्षिक उपलब्धि को इतनी यथार्थ तथा असंदिग्ध ढंग से नहीं मापा जा सकता है। द्वितीय, विभिन्न विषयों के छात्रों के शैक्षिक उपलब्धि के मूल्यांकन के मानदंडों में विभिन्नताओं का होना कुछ विषयों में मूल्यांकनकर्ता के द्वारा कम अंक प्रदान किए जाते है और कुछ विषयों मे पूर्णांक तक प्रदान किया जाता है। उदाहरण के लिए गणित या विज्ञान जैसे विषयों में प्रायः 0 से 100 तक के पूर्ण प्रसार कर्ताद्वारा प्राप्तांक प्रदान किए जाते हैं। जबकि भाषा या इतिहास जैसे विषयों प्रसार प्राय: प्राप्तांक 100 या पूर्णांक से काफी कम होता है। मूल्यांकनकर्ता के द्वारा प्राप्तांकों की न्यूनतम व उच्चतम सीमाओं तथा प्रसार के निर्धारण में उनकी व्यक्तिगत पसंद के साथ-साथ विषय की प्रकृति की भी अवांछित भूमिका रहती है। ऐसी स्थिति में विभिन्न विषयों के प्राप्तांकों का योग करके श्रेणी ज्ञात करने की प्राचीन विधि का कोई वैज्ञानिक आधार प्रतीत नहीं होता है।
COMMENTS