Essay on Sanskar in Hindi : इस लेख में पढ़िए संस्कार पर निबंध , संस्कार का तात्पर्य शुद्धिकरण की प्रक्रिया से है। मुख्य संस्कारों की संख्या 14 ही बताय
Hindi Essay on "Sanskar", "संस्कार पर निबंध" For Students
संस्कार पर निबंध
संस्कार पर निबंध : संस्कार का तात्पर्य शुद्धिकरण की प्रक्रिया से है। भारतीय सामाजिक व्यवस्था में व्यक्ति को सामाजिक प्राणी बनाने, उसके व्यक्तित्व का पूर्ण विकास एवं उसकी नैसर्गिक प्रवृत्तियों को समाजोपयोगी बनाने के लिये व्यक्ति का शारीरिक मानसिक एवं नैतिक परिष्कार आवश्यक माना गया है। परिष्कार अथवा शुद्धिकरण की पद्धति को ही यहाँ संस्कार की संज्ञा दी गयी है। जीवन को परिष्कृत की प्रक्रिया जीवनपर्यन्त चलती रहती है। यद्यपि यहाँ संस्कारों की संख्या काफी बतायी गयी है, परन्तु मुख्य संस्कारों की संख्या 14 ही बतायी गयी है। इन संस्कारों का उद्देश्य एक विशेष स्थिति तथा आयु में व्यक्ति को उसके सामाजिक कर्तव्यों का ज्ञान कराना है।
सामान्य रूप में संस्कार का सम्बन्ध व्यक्ति से जोड़ा जाता है। लेकिन संस्कार का सम्बन्ध सिर्फ व्यक्ति से ही नहीं है, वरन् परिवार, समाज और राष्ट्र सभी से जुड़ा है। क्योंकि व्यक्ति तो आता-जाता है, लेकिन संस्कार की अविरल धारा परिवार, समाज और राष्ट्र में चलती ही रहती है। हां इतना जरूर है कि संस्कार का वाहक मनुष्य ही है। क्योंकि इसी का मनुष्य या व्यक्ति से मिलकर परिवार, समाज और राष्ट्र बनता है। और संस्कार भी इसी मनुष्य अथवा व्यक्ति के माध्यान से यात्रा करता है। यह सच है।
जैसे मनुष्य स्नान के बाद तरोताजा हो जाता है, ठीक उसी प्रकार संस्कार के बाद मनुष्य तथा मनुष्य के माध्यम से समाज भी तरोताजा होता है। जिस प्रकार मनुष्य को कुछ अवधि के बाद स्नान की जरूरत होती है, लेकिन एक बार स्नान से काम नहीं चलता वरन् बार-बार स्नान जरूरी होता है। ठंडा मौसम है तो एक दिन बाद स्नान की जरूरत पड़ेगी। लेकिन गर्मी में तो स्नान भी आवश्यकता कुछ घंटों के बाद ही होती है। यही भूमिका मनुष्य के जीवन में संस्कारों की है।
हिन्दू सनातन परम्परा में मुख्यतः सोलह संस्कारों का उल्लेख मिलता है। इन संस्कारों की परम्परा जन्म से मृत्यु पर्यन्त जीवन में चलती रहती है। 16 संस्कारों की व्यवस्था हिन्दू/सनातन समाज का भाग है। इन संस्कारों को हम जीवन का भाग मानते हैं। संस्कारों का प्रभाव कहां पड़ता है? यह मुख्य समस्या अथवा विचार विन्दु है। संस्कारों का प्रभाव व्यक्ति के शरीर की अपेक्षा मन पर पड़ता है। इसी कारण संस्कार का कार्य मुख्यतः चित्त का परिष्कार अथवा चित्त की शुद्धि से जुड़ा है। उसी रूप में उसके व्यक्तित्व का निर्माण होता है। इस प्रकार संस्कार का सम्बन्ध व्यक्ति के व्यक्तित्व एवं चित्त से है।
अब एक प्रश्न यह भी उठता है कि जिन समाजों में संस्कार निश्चित नहीं हैं, वहां चित्त का परिष्कार किस प्रकार होता है? इस प्रश्न का उत्तर सहज एवं स्वाभाविक है। जैसे संस्थागत अथवा नियमित श्रेणी का विद्यार्थी प्रतिदिन कक्षा में आध्ययन करे परीक्षा में सफल होता है। किन्तु उसी कक्षा में प्राइवेट अथवा व्यक्तिगत रूप से परीक्षा देने वाला विद्यार्थी भी परीक्षा उत्तीर्ण करता है। दोनों को एक ही उपाधि मिलती है। अपने परिश्रम के बल पर परीक्षा पास करने वाले को श्रेष्ठ होना चाहिए क्योंकि बिना कक्षा के परीक्षा पास किया, लेकिन ऐसा नहीं होता। क्योंकि कक्षा में पढ़ाई करने वाले ने व्यवस्थित पढ़ाई किया साथ ही अपने परिश्रम के साथ-साथ शिक्षक का बोध एवं संस्कार प्राप्त किया। इसी कारण प्राइवेट विद्यार्थी से संस्थागत विद्यार्थी श्रेष्ठ हो गया। ठीक उसी प्रकार जिस समाज में निश्चित संस्कार नहीं हैं वहां समाज की रूढ़िया एवं परम्पराएं संस्कार के रूप में रहती हैं।
दुनिया के प्रत्येक समाज में जन्म, विवाह एवं मृत्यु के समय उत्सव या समारोह की परम्परा है। इन में से सनातन/ हिन्दू समाज जीवन के प्रमुख पड़ावों अथवा चरणों पर उत्सव के साथ-साथ पूजा-उपासना आदि को अपनाने के कारण संस्कारों की भूमिका विशेष हो जाती है। इस प्रकार संस्कार जीवन का एक भाग है। संस्कारों का प्रभाव मनुष्य के अलावा पशुओं पर भी पड़ता है। अच्छे संस्कार के कारण तोता भी राम-राम बोलता है। हां यह ठीक है कि पशुओं पर संस्कार अधिक समय तक प्रभावी नहीं रहते। संस्कार और समाज के सम्बन्ध में चित्त की भूमिका महत्वपूर्ण है।
सोलह संस्कार : समाज और समय के बदलाव के साथ संस्कारों की भी गति एवं प्रकिया बदलती है। इस बदलाव में नाम, रूप, व्यवहार आदि बदल जाते हैं। हम देख सकते हैं कि सनातन रूप से चले आ रहे सोलह संस्कारों में भी बदलाव आया है। इस बदलावों पर चर्चा से पहले हम सोलह संस्कारों की चर्चा अधिक जरूरी समझते हैं। संस्कारों की परम्परा शिशु के गर्भ में आगमन से पूर्व ही प्रारम्भ हो जाती है। महर्षि व्यास द्वारा वर्णित संस्कारों में वर्णित 16 संस्कार इस प्रकार है:- (1) गर्भाधान प्रमुख संस्कार है इसके पश्चात्, (2) पुंसवन, (3) सीमान्तोन्नयन, (4) जात कर्म, (5) नामकरण, (6) निष्क्रमण, (7) अन्नप्राशन, (8) मुंडन, (७) कर्णबंध, (10) यज्ञोपवीत, (11) वेदारम्भ, (12) केशान्त, (13) समावर्तन, (14) विवाह, (15) विवाहग्नि एवं (16) अन्त्येष्ठि/श्राद्ध उक्त 16 संस्कार कभी सनातन समाज के बाध्यकारी भाग थे। समय के साथ-साथ इनकी बाध्यता समाप्त हुई। वर्तमान में संस्कारों की स्थिति इस प्रकार हैं - गर्भाधान एक संस्कार और श्रेष्ठ संतानों के आह्वान का आधार न बन कर वर्तमान में मात्र स्त्री-पुरुष संयोग किया का अंग बन गया। इसी के साथ-साथ पुंसवन एवं सीमान्तोन्नयन की भी परम्परा मिटी। जातकर्म और नामकरण संस्कार के रूप में नहीं रहकर जीवन व्यवहार अथवा सामाजिक व्यवहार के भाग बने। यही दशा निष्कमण और अन्नप्राशन की रही। माँ का दूध भले ही न मिले पर पौष्टिक शिशु आहार के माध्यम से अन्न भोजन चल पड़ा। मुंडन का संस्कार तो अभी अधिकतर भागों में प्रचलन में है। लेखन लिपि पापा ने जब मन आया तभी पढ़ाना शुरू किया, क्योंकि अब विद्यालय में प्रवेश के लिए विद्यालय से पहले की शिक्षक जरूरी हो गयी है। कर्णबेध प्रायः स्त्री व्यवहार से जुड़ गया। यज्ञोपवीत संस्कार अलग से करने के स्थान पर यह विवाह से पूर्व का एक कर्मकाण्ड हो गया। वेदारम्भ सिर्फ वैदिकों का कार्य है। केशान्त की परम्परा लुप्त हो गयी। समावर्तन संस्कार अब डिग्री देने के दीक्षान्त हो गये। अभी विवाह संस्कार की परम्परा जारी है। खर्चीले विवाह के प्रचलन के बीच विवाह संस्कार नहीं होकर यह प्रतिष्ठा और दिखावा बन गया है। ऐसा ही सामाजिक व्यवहार अन्त्येष्ठि/श्राद्ध के साथ भी अधिकतर हो रहा है। श्राद्ध के साथ घटती श्रद्धा और बढ़ता आडम्बर और औपचारिकता, बदलाव का सूचक है। इस प्रकार हम यदि वर्तमान के सामाजिक व्यवहार तथा संस्कारों को एक साथ देखें तो स्पष्ट है कि कुछ संस्कार प्रचलन से बाहर हुए हैं तथा कुछ का स्वरूप बदला है। इस प्रकार संस्कारों का समय के साथ बदलाव जारी है।
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