संयुक्त राष्ट्र संघ पर निबंध। Sanyukt Rashtra Sangh par Nibandh
आज का युग युद्ध का युग है। बड़े राष्ट्र छोटे राष्ट्रों को निगल जाने के लिये आतुर बैठे हैं। विगत दोनों महायुद्धों का लोक संहारकारी ताण्डव नृत्य संसार ने देखा, मानवता चीत्कार कर उठी। दूसरे महायुद्ध की विषैली गैसों बमों और तोपों द्वारा और अंततः जापान के हिरोशिमा और नागासाकी नगरों पर परमाणु बम के वीभत्स, विध्वंसकारी और विनाशकारी भीषण नरसंहार को देखकर संसार के देश भयभीत हो उठे। आज तो मानव का मस्तिष्क उससे भी भयानक शस्त्रों का निर्माण कर रहा है। इस भयानक गतिविधि को रोकने के लिए संसार के विचारकों ने एक ऐसी संस्था बनाने का निश्चय किया जिसमें विश्व की समस्त अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं और पारस्परिक विवादों का समाधान, शान्तिपूर्ण वार्तालाप और आपसी समझौतों द्वारा किया जा सके।
इसी विचारधारा के फलस्वरूप द्वितीय महायुद्ध के पश्चात् 26 जून, 1945 को संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना हुई। संसार के 51 से अधिक देशों ने इस संघ की सदस्यता स्वीकार की। उन्होंने यह स्वीकार किया कि हम अपने आपसी झगड़ों का युद्ध के द्वारा निर्णय न करके संयुक्त राष्ट्र संघ में शान्तिपूर्ण वार्तालाप द्वारा सुलझाने को तैयार हैं और हम युद्ध का घोर विरोध करते हैं। युद्ध से समस्त विश्व को संयुक्त राष्ट्र संघ के रूप में मानों कोई मुक्ति मिल गई हो। विश्व के देशों को इस सम्मिलित पंचायत का नाम संयुक्त राष्ट्र संघ रख दिया गया।
प्रथम महायुद्ध के पश्चात् भी, इसी प्रकार की शान्ति-प्रिय संस्था का उदय हुआ, जो अपना अन्तर्राष्ट्रीय महत्व रखती थी, जिसका नाम लीग ऑफ नेशन्स अर्थात् राष्ट्र संघ रखा गया था, इस राष्ट्र संघ के प्रायः सभी वही उद्देश्य थे, जो इस संयुक्त राष्ट्र संघ के हैं, परन्तु विश्व शान्ति और विश्वात्मैक्य के प्रयास में यह प्रथम पदन्यास था। लीग ऑफ नेशन्स एक दुर्बल संस्था थी। राष्ट्र उसके निर्णयों को स्वीकार ही नहीं करते थे। यही कारण था कि इसके रहते हुए भी जापान ने मंचरिया पर तथा इटली ने अबीसीनिया पर आक्रमण किया। इसके विरुद्ध राष्ट्र संघ केवल प्रस्ताव शस करके ही रह गया, कोई ठोस कदम न उठा सका। द्वितीय विश्व युद्ध में परमाणु बमों द्वारा भीषण नरसंहार हुआ जिससे यह स्पष्ट हो गया कि यदि तृतीय महायुद्ध हुआ तो मानव जाति तथा सभ्यता सदा-सदा के लिये समाप्त हो जायेगी क्योंकि द्वितीय विश्व युद्ध तक तो अमेरिका एकमात्र देश था जिसके पास आणविक अस्त्र थे किन्तु अब सभी महाशक्तियों के पास इनके भण्डार हैं।
द्वितीय महायुद्ध अभी समाप्त भी न हो पाया था कि मित्र राष्ट्रों ने एटलांटिक घोषणा-पत्र तैयार किया जिसमें मनुष्य को धर्म और विचारों की स्वतन्त्रता, निर्भयता और हर प्रकार के अभाव से मुक्ति दिलाने की घोषणा की गई थी। अमेरिका के सेनफ्रांसिस्को नगर में एक विशाल सम्मेलन हुआ, जिसमें विश्व के अधिकांश राष्ट्रों ने भाग लिया। एक मत होकर युद्ध की निन्दा की गई। मनुष्यों की समानता का सिद्धान्त स्वीकार किया गया। यह निश्चय किया गया कि देश चाहे छोटे हों या बड़े अपने घरेलू मामलों में पूर्णतया स्वतन्त्र हैं, किसी भी दूसरे राष्ट्र को उनके आन्तरिक विषयों में हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं है। संयुक्त राष्ट्र संघ के इस प्रथम अधिवेशन में यह भी स्वीकार किया गया कि प्रजातन्त्र शासन-प्रणाली ही सर्वश्रेष्ठ शासन-प्रणाली है। द्वितीय विश्व युद्ध के जनक इटली तथा जर्मनी थे। दोनों देशों में अधिनायकतन्त्रीय शासन-प्रणाली थी। अगर सभी देशों में प्रजातन्त्र शासन-प्रणाली होती तो सम्भवतः द्वितीय विश्व युद्ध न हुआ होता। अधिनायकतंत्रीय देशों का ध्यान अपनी राज्य सीमाओं को बढ़ाने, दूसरे देशों पर अधिकार करने तथा अपनी गौरव वृद्धि की ओर ही अधिक रहता है।
संयुक्त राष्ट्र संघ इस समय एक सुसंगठित और शक्तिशाली संस्था है। विश्व के प्रायः सभी बड़े और छोटे राष्ट्र इसके सदस्य हैं। सदस्य देशों की संख्या इस समय 193 है। संघ का उद्देश्य विश्व के सभी राष्ट्रों में पारस्परिक सहयोग, सहानुभूति, सद्भावना, सहिष्णुता और संवेदना की भावना की वृद्धि करना है। वह अपने उद्देश्यों में बहुत कुछ सफलता भी प्राप्त कर चुका है। संयुक्त राष्ट्र संघ का कार्य-क्षेत्र सर्वतोन्मुखी है और अधिक विस्तृत है। कोई भी राष्ट हो उसकी सांस्कृतिक, वैज्ञानिक, औद्योगिक, कृषि सम्बन्धी, पुनर्निमाण, आदि कोई भी लोकोपकाने कार्य हो उसमें यह संघ पूरी दिलचस्पी से काम करता है। इसके 13 अंग है। इसका सबसे अधिक शक्तिशाली और प्रभुता सम्पन्न सभा जनरल एसेम्बली है। किसी भी विषय में जनरल एसेवजी का निर्णय अन्तिम समझा जाता है। वैसे इसका अधिवेशन वर्ष में एक बार होता है परन्तु आवश्यकता पडने पर कभी भी बुलाया जा सकता है। संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद् एक महत्वपूर्ण शाखा है। जनरल एसेम्बली के पश्चात् सुरक्षा परिषद् को ही सबसे अधिक अधिकार प्राप्त है। इसका काम संसार में शान्ति बनाए रखना है। यदि कहीं भी आक्रमण होता है, तो सुरक्षा परिषद् सामूहिक सुरक्षा के आधार पर उस आक्रमण की प्रतिरोध करती है।
संयुक्त राष्ट्र संघ की उल्लेखनीय सफलता इस बात से परिलक्षित होती है कि विश्व की महाशक्तियों के बीच लगभग अर्ध शताब्दी तक चलने वाले शीत युद्ध की परिणति महायुद्ध में नहीं हो सकी जिसका एकमात्र कारण संयुक्त राष्ट्र संघ के संविधान में निहित संरक्षात्मक प्रावधान है। पाँच महाशक्तियों को मिली वीटो पावर के कारण सुरक्षा परिषद् में किसी भी महाशक्ति की अनदेखी संभव नहीं है और कोई भी निर्णय केवल सर्वसम्मति से ही लिया जा सकता है। कोई भी चार राष्ट्र मिलकर अपना निर्णय पाँचवें राष्ट्र पर नहीं थोप सकते। सुरक्षा परिषद् के प्रत्येक स्थायी सदस्य (पाँच राष्ट्रों) को वीटो का अधिकार दिया गया है।
संयुक्त राष्ट्र संघ एक ऐसा मंच प्रदान करता है जहाँ सभी सदस्य राष्ट्रों के बीच विचार-विमर्श होता रहता है। कोरिया और वियतनाम जैसे संघर्षशील देशों के बीच भी संघर्षरत रहते हुए भी आपसी संपर्क बना रहा। संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रभाव से ही विश्व के मानचित्र से साम्राज्यवाद का अंत संभव हो सका। दक्षिणी अफ्रीका की रंगभेद नीति का अंत भी संयुक्त राष्ट्र संघ के माध्यम से संभव हो सका। मानवाधिकार और लिंग भेद की समाप्ति भी इसी संस्था के माध्यम से वर्तमान स्थिति में आ सकी। इसके अतिरिक्त आर्थिक, सामाजिक, स्वास्थ्य, शिक्षा, कृषि, उद्योग आदि के क्षेत्र में भी संयुक्त राष्ट्र संघ की विभिन्न संस्थाओं जैसे FAO, WHO, UNESCO, UNCTAD, UNDP UNID0, ILO आदि का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। शान्ति स्थापना में भी संयुक्त राष्ट्र संघ का नामीबिया, मोजाम्बीक, इरीट्रिया और कोरिया में योगदान भुलाया नहीं जा सकता।
यद्यपि संयुक्त राष्ट्र संघ की सफलताये उसकी असफलताओं से कहीं अधिक हैं तथापि असफलताओं को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। निर्माण के समय इसकी जो छवि थी और जैसी आस्था राष्ट्रों में उसके प्रति थी, आज स्थिति उसके विपरीत है। जिस समय संयुक्त राष्ट्र संघ का निर्माण हुआ था उस समय की और आज की आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियों में व्यापक अन्तर आ गया है। आज विश्व के सन्मुख ज्वलन्त समस्या आतंकवाद की है। संगठित अपराध, घातक शस्त्रों तथा विनाशकारी साधनों की सुगम उपलब्धता तथा उग्रवाद विकराल रूप धारण किए हुए हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ के पास इन समस्याओं से निपटने का न तो कोई साधन है और न उसमें सामर्थ्य है। सोमालिया, खांडा और बोसेनिया में राष्ट्र संघ शान्ति स्थापना में असफल रहा। इस्राइल और फिलस्तीन की समस्या को भी उसके पास कोई समाधान नहीं है। प्रदूषण, गरीबी उन्मूलन तथा जनसंख्या वृद्धि जैसी समस्याओं से निपटने में भी संयुक्त राष्ट्र संघ असफल रहा है। निरस्त्रीकरण के क्षेत्र में तो वह कुछ कर ही नहीं सका है। प्रस्ताव पारित करना मात्र राष्ट्र संघ का अधिकार है, प्रस्तावों को कार्यान्वित कराने की शक्ति उसके पास नहीं है। इसके अतिरिक्त सभी विकासशील तथा अविकसित देशों की मान्यता है कि प्रस्ताव भी शक्ति सम्पन्न राष्ट्र अपने निजी स्वार्थ तथा हितों की सुरक्षा हेतु पारित करा लेते हैं।
इराक पर संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा किये गए आक्रमण के विषय में फ्रांस के राष्ट्रपति के मतानुसार संयुक्त राष्ट्र संघ के लिए अब तक की सबसे बड़ी चुनौती थी। अमरीकी राष्ट्रपति जार्ज बुश के उपरोक्त आक्रमण के लिए विश्व भर से सहयोग के लिए आह्वान करने पर फ्रांसीसी राष्ट्रपति का कथन या कोई भी व्यक्ति स्वेच्छा से विश्व जनमत का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता और न अपने मत को किसी पर थोप सकता है। सुरक्षा परिषद् की अनुमति लिये बिना किया गया आक्रमण केसे उचित ठहराया जा सकता है? यह स्वयं में सुरक्षा परिषद् के अस्तित्व की अवहेलना और उपेक्षा है। संयुक्त राष्ट्र संघ के महामन्त्री कोफी अन्नान ने तो अमेरीकी राष्ट्रपति से स्पष्ट शब्दों में कहा था “संयुक्त राष्ट्र संघ के नियमों का इस प्रकार उल्लंघन तो जंगल राज में परिणत हो जाएगा और संयुक्त राष्ट्र संघ जो द्वितीय विश्व युद्ध की अस्थियों पर निर्मित हुआ था अर्थहीन हो जाएगा।
संयुक्त राष्ट्र संघ की निष्क्रियता और विफलता के प्रमुख कारण हैं—सर्वप्रथम तो यह कि इस संस्था के पास न तो वित्तीय साधन है और न सामरिक शक्ति। वित्तीय पोषण के लिए यह पूर्णतया सदस्य राष्ट्रों पर निर्भर है और सदस्य भी वह जो प्रभावशाली है और शक्ति सम्पन्न है अर्थात् महाशक्तियाँ। दूसरे, संयुक्त राष्ट्र संघ की कार्य-प्रणाली अत्यन्त जटिल है जिस कारण निर्णय लेने में अत्यधिक समय लगता है तथा समस्या का समाधान ढूंढते-ढूंढते समस्या ही समाप्त हो जाती है, उचित अथवा अनुचित रूप में। तीसरे, वित्तीय साधनों की कमी के कारण संस्था ऋण भार से दबती जा रही है, जिसका विपरीत प्रभाव उसकी कार्यकुशलता और कार्यक्षमता पर पड़ता है और अन्त में पाँच महाशक्तियों को प्रदत्त वीटो पावर संयुक्त राष्ट्र संघ की निष्पक्षता और कार्यकुशलता पर प्रश्न चिन्ह लगा देती है। इसके कारण समभाव और निष्पक्षता दुर्लभ हो जाती है। यदि सुरक्षा परिषद् का गठन विश्व की वस्तुस्थिति तथा वर्तमान परिस्थितियों के अनुरूप प्रजातांत्रिक आधार पर बिना किसी भेदभाव के संभव हो सके तो निश्चित ही संस्था समस्त विश्व के लिए कल्याणकारी सिद्ध हो सकती है।
प्रत्यक्ष दोषों और कमियों, अवरोधों और त्रुटियों के होते हुए भी संयुक्त राष्ट्र संघ की उपादेयता को नकारा नहीं जा सकता। वर्तमान परिस्थितियों में इसकी अनिवार्यता असंदिग्ध मानी जा सकती है। महाशक्तियों के लिए यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण रही है और आज के युग में जब समय और दूरी पर मानव ने विजय प्राप्त कर ली है इसकी उपादेयता और भी अधिक बढ़ जाती है। आपसी वाद-विवाद, परामर्श और मतभेद दूर करने के इससे अधिक उपयुक्त माध्यम नहीं है। पारस्परिक सहयोग आज के युग की नितान्त आवश्यकता है। शीत युद्ध की समाप्ति के साथ यद्यपि महाशक्तियों का अन्तर्द्वन्द प्रायः समाप्त हो गया है तथापि अन्य राष्ट्रों में यदा-कदा किसी न किसी बात पर मतभेद अथवा झगड़े होते ही रहते हैं। ये द्वंद विकराल रूप धारण न कर ले इस दिशा में संयुक्त राष्ट्र संघ अपना कर्तव्य पूरी निष्ठा के साथ और प्रभावकारी ढंग के साथ निभा रहा है।
संयुक्त राष्ट्र संघ की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अथवा प्रशासनिक इकाई सुरक्षा परिषद् है। इसके 15 राष्ट्र सदस्य होते हैं। जिसमें चीन, अमेरिका, रूस, फ्रांस तथा इंग्लैण्ड स्थायी सदस्य हैं। इन पाँचों को वीटो अधिकार प्राप्त है। कैसी विडंबना है कि किसी विषय पर यदि 15 में से 14 सदस्य राष्ट्र एक मत हों और स्थायी पाँच सदस्य राष्ट्रों में से कोई एक राष्ट्र उसके विरुद्ध हो तो प्रस्ताव पारित नहीं हो सकता। अतः पाँचों स्थायी सदस्यों का एकमत होना अनिवार्य शर्त है। शेष 10 सदस्य संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा द्वारा दो-तिहाई बहुमत द्वारा दो वर्ष के लिए निर्वाचित होते हैं। स्थायी सदस्यों की संख्या बढ़ाने पर विचार चल रहा है किन्तु किसी निष्कर्ष पर पहुँचना बड़ी ही जटिल समस्या है। जर्मनी और जापान को स्थायी सदस्य बना लिया गया है। भारत भी स्थायी सदस्य होने का अधिकारी है। किन्तु औद्योगिक दृष्टि से सम्पन्न राष्ट्रों के विरोध तथा कतिपय राष्ट्रों की अन्त:कलक के कारण यह संभव नहीं हो सका है। स्थायी सदस्यों में विकासशील दशा का भातानाच सुर चार महीना नितान्त आवश्यक है और विकासशील देशों का प्रतिनिधित्व केवल भारत ही सफलतापूर्वक कर सकता है।
विश्व में शान्ति स्थापना और शान्ति बनाए रखना संयुक्त राष्ट्र संघ का प्राथमिक उद्देश्य है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए इसे विभिन्न राष्ट्रों में उठने वाले गृह-युद्ध क्षेत्रीय विवाद जन विवाद सीमा विवाद, धार्मिक संघर्ष अथवा आथिर्क मतभेद को सुलझाना होता है। निश्चित हो इन कार्यों को सम्पादित करने के लिए तथा शान्ति स्थापना के लिए सैन्य बल को आवश्यकता के अतिरिक्त उचित आर्थिक व्यवस्था होना परम आवश्यक है। अतः मानव जाति के कल्याण के लिए यह आवश्यक है कि संयुक्त राष्ट्र संघ को वास्तव में शक्तिशाली बनाया जाये और विश्व के सम्पन्न एवं विकसित राष्ट्र, विशेषकर महाशक्तियाँ इस दिशा में मार्गदर्शन करें और इस संस्था की कार्यप्रणाली को पारदर्शी बनाते हुए इसे शक्ति सम्पन्न बनाये और इसकी आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ बनायें।
0 comments: