"आरक्षण का आधार आर्थिक स्थिति होना चाहिए न कि सामाजिक स्थिति" स्पष्ट कीजिए। संविधान के निर्माण के दौरान आरक्षण व्यवस्था लागू की गयी थी तब वास्तव में
"आरक्षण का आधार आर्थिक स्थिति होना चाहिए न कि सामाजिक स्थिति" स्पष्ट कीजिए।
आजादी के बाद जब देश के संविधान के निर्माण के दौरान आरक्षण व्यवस्था लागू की गयी थी तब वास्तव में समाज के कुछ वर्गों की सामाजिक स्थिति अच्छी नहीं थी। अगड़ी-पिछड़ी जाति का आलोक था। ऊँची जाति के लोग निम्न जाति के लोगों को छूना भी पाप समझते थे, ऐसी हालत में उन जातियों को मुख्य धारा से जोड़ने और उनमें उपस्थित प्रतिभा पल्लवन के लिए आरक्षण आवश्यक था परन्तु आज जब हमारे समाज में शिक्षा के स्तर के बढ़ने से सामाजिक परिपेक्ष का आधे से ज्यादा हिस्सा इन सब फिजूल बातों से अत्यधिक आगे जा चुका है, फिर देश में जातिगत आरक्षण की राजनीति क्यों ? आज जब हिन्दुस्तान की 60% आबादी शिक्षित और समझदार मानी जाती है और जाति के नाम पर छुआछूत जैसी घटनाएँ भी नगण्य हैं। फिर आरक्षण का आधार जाति न होकर आर्थिक विषमता होना चाहिए। क्योंकि ये कटु सत्य है कि गरीबी जब जात देखकर नहीं आती तब आरक्षण जात देख कर क्यों ? आज आरक्षण की आवश्यकता गरीब और निचले तबके को ज्यादा है। फिर राजनैतिक पार्टियाँ जानबूझ कर जातिगत राजनीति करके इस देश को पुनः गर्त में ले जाने की तैयारी कर रही हैं।
यद्यपि इस बात का कोई विरोध नहीं कर सकता कि बाबा भीम राव अम्बेडकर जी ने भारत का भाग्य विधाता बनकर संविधान लिखा तो उन्होंने तब भी इस राष्ट्र को आरक्षण के दम पर नहीं वरन शिक्षा
और योग्यता के बल पर ही प्रतिभा संपन्न और अखंडित राष्ट्र की परिकल्पना के साथ वैश्विक प्रगतिशील राष्ट्र निर्माण करना चाहा था। संविधान निर्माण के समय जब ऊँची जाति वाले पिछड़ी जाति वालों पर जुल्म करते थे तो उसकी आवाज सुनने वाला कोई नहीं था। इसलिए महज 15 वर्ष के लिए आरक्षण की बात लिख कर निम्न जातियों को उच्च जाति के समकक्ष लाना चाहा था और तब भी आधार निम्न जाति के
आर्थिक असमानता के कारण हुआ है। आज इस देश में कानून है, मीडिया का इतना विस्तार है, लोगों के पास अपनी बात कहने का माध्यम है, फिर ये आरक्षण जरूरी क्यों है। आज जब बहुत-सी पिछड़ी जाति के लोग अभी भी मुख्य धारा में शामिल होने से वंचित रह गये हैं और उनको आरक्षण की जरूरत है पर इतने साल आरक्षण होने के बावजूद भी कुछ एक निम्न जाति के लोग जागरूकता और सही शिक्षा के अभाव में प्रतिभा पल्लवन से वंचित रह गये थे। वे गरीबी जैसी महामारी के कारण ही सम्भव: वंचितों की श्रेणी में अब तक है।
जब आरक्षण के मूल में गरीबी यानि आर्थिक असमता शामिल है तो फिर आरक्षण भी आर्थिक असमान वर्ग यानि गरीब वर्ग को ही मिलना चाहिए। आरक्षण और आरक्षण की आधारशिलाएँ आज भी जाति की व्यवस्था की बात करती हैं। किन्तु बात गरीबी और गरीब की संवेदनाओं और समस्याओं पर केन्द्रित होना था। आज राष्ट्र में तमस की राते जाति के जंगल में उलझ गई हैं। आरक्षण के पुनः विवेचन की कड़ी में जाति आधार पर नहीं वरन् आर्थिक आधार पर आती है। यदि जाति से उसे तोलने गए तो असल आवश्यक तबका छूट जायेगा जिसे लाभ की सबसे ज्यादा जरूरत है। राष्ट्र के संविधान के निर्माण के समय बनी हुई परिस्थितियाँ आज भी प्रासंगिक हों यह तो आवश्यक नहीं है। इसीलिए आरक्षण की संरचना भी संविधान के निर्माण के समय जैसी क्यों रहे। आज हर जाति धर्म के लोगों में समभाव है। ऐसी स्थिति में समजातीय व्यवस्था को लागू करने की पहली सीढ़ी आरक्षण का आधार भी आर्थिक निम्नता करना होगा। आरक्षण का आधार आर्थिक विषमता के मायनों में होने से कई लाभ हैं, जैसे - देश की सबसे बड़ी समस्या जिसके कारण बटवारा हुआ वह भी मिट सकता है। जब राष्ट्र में एक जातीय व्यवस्था होने से लाभ जरूरतमंद को मिलेगा। जाति की जंग में राष्ट्रीयता हार रही है। इसके मूल में देश में आ चुकी जातीय वैमनस्य की सड़ांध है। इसका समाधान भी आर्थिक आधार पर मिलने वाले आरक्षण से ही सम्भव होगा। आरक्षण की राजनीति अक्सर सियासत को गिराने-उभारने का काम करती रही है। यही कारण है कि अब तक कई बार हल की उम्मीद दिखने के बाद भी इसका रास्ता निकल नहीं सका। हाल ही के दिनों में कई तबके से मांग आई है जिसके अनुसार आरक्षण जातिगत स्तर पर न होकर किसी की दशा और आर्थिक स्तर के अनुसार हो। इन अनेक लोंगों को सुविधा मिले जो आर्थिक और सामाजिक स्तर पर पिछड़े हैं। आर्थिक स्तर पर ही आरक्षण मिले, इस बात की हिमायती वे जातियाँ भी हैं जो हाल के दिनों में खुद आरक्षण की माँग कर रही हैं। जैसे पटेल, जाट, मराठा आदि।
वैसे यह इतना आसान नहीं होगा। 37 साल पहले देश में हिंसक आन्दोलन के बाद आरक्षण लेने वाले और अभी भी जातिगत जनगणना को सार्वजनिक कर रिजर्वेशन कोटे को नए सिरे से बढ़ाने की माँग बीच-बीच में उठती रही है। ऐसे में सही और तार्किक रास्ता दिखने के बावजूद अभी आर्थिक आरक्षण के हल का रास्ता नहीं दिखता है। अगर आन्दोलनरत जातियों के लिए आरक्षण की माँग स्वीकार होती है या आर्थिक आधार पर आरक्षण दिया जाता है तो 50 फीसदी तक कोटे की जो संवैधानिक सीमा है, उसके पार जाना होगा। इसमें कानूनी अड़चन खड़ी हो सकती है। तमिलनाडु सहित कुछ राज्यों में 50 फीसदी से अधिक आरक्षण दिया जा रहा है। लेकिन इसमें बहुत तकनीकी दावपेच है या फिर रास्ता यह देखा जाता है कि आरक्षण वर्ग में आर्थिक स्तर की सीमा तय कर दी जाए ताकि निचले पायदान तक आरक्षण का लाभ पहुँच सके। लेकिल इस प्रस्ताव से आरक्षित वर्ग की ही नाराजगी का खतरा है। ऐसे में प्रस्ताव आगे नहीं बढ़ पा रहा है। मोदी सरकार ने हाल के दिनों में ओबीसी कमीशन बनाया। इसका प्रमुख उद्देश्य पिछड़ी जातियों में अलग-अलग कैटिगरी तय करना है। इससे यह पता चलेगा कि किन्हें रिजर्वेशन का लाभ नहीं मिल रहा है। लेकिन यह भी मधुमक्खी के छत्ते को छेड़ने वाली स्थिति मानी जा रही है। साथ ही कई संगठनों ने यह भी माँग उठाई कि रिजर्वेशन का लाभ किसी एक को कितनी बार मिले इसकी सीमा तय होनी चाहिए। इसी माँग के बीच सुप्रीम कोर्ट ने ऊँचे पदों पर आरक्षण पर रोक भी लगाई। लेकिन राजनीतिक जोखिम की वजह से कोई भी सरकार इस मुद्दे पर आगे बढ़ने की हिम्मत नहीं दिखा पा रही
यूथ फॉर इक्वैलिटी के अध्यक्ष डॉ. कौशल कांत मिश्रा कहते हैं कि जाति के आधार पर रिजर्वेशन न देकर व्यक्तिगत रिजर्वेशन होना चाहिए। इसके लिए एक डिप्राइवेशन इंडेक्स (वंचित क्रम) बनाया जाए और उस हिसाब से जरूरतमन्द को कोटा मिले। इसमें परिवार की आय, माता-पिता की शिक्षा, जेडर, जन्मस्थान (गॉव / शहर) आदि शामिल होना चाहिए लेकिन जाति के नाम पर आरक्षण की राजनीति करने वाले इसके लिए तैयार नहीं होंगे। यद्यपि राजनीति का धर्म नहीं होने से समाधान के सारे रास्ते मौन हो गए हैं। फिर भी यदि राष्ट्र में सवर्ण आन्दोलन के माध्यम से ही यदि आरक्षण को आर्थिक आधार प्रदान किए जाने की आवाज बुलंद हुई हो निश्चित तौर पर यह आवाज राष्ट्रीयता का स्वर बन कर राष्ट्र में पनपी जातिगत वैमनस्यता की बीमारी का समय पर उपचार होगा।
आरक्षण को लेकर जारी इन तमाम आन्दोलनों के बीच एक और बड़ा मुद्दा पिछले कुछ सालों से सामने आता रहा है, वह है जाति जनगणना। यद्यपि दोनों का एक-दूसरे से सीधा सम्बन्ध नहीं है। लेकिन जानकारों के अनुसार इसके सामने आने से पूरा आरक्षण आन्दोलन बड़े पैमाने पर प्रभावित होगा। 2011 में जनगणना के बाद स्वतन्त्र भारत में पहली बार जाति जनगणना की गई थी जिसमें इनके सामाजिक-आर्थिक परिवेश का भी जिक्र है। अनेक राजनेता इस रिपोर्ट की खुलासे की मांग कर रहे हैं। उनका कहना है कि इस रिपोर्ट के सामने आने के बाद निजी नौकरियों में भी वे आरक्षण की मांग उठायेंगे। यद्यपि रिपोर्ट के पेश होने के बिना ही हाल में निजी नौकरियों में आरक्षण की गाँग बढ़ने लगी है। बिहार देश का ऐसा पहला राज्य बना गया है जहाँ निजी नौकरियों में आरक्षण की गुंजाइश बनी। यदि आरक्षण का आधार आर्थिक असमानता हो जायेगा तो फिर जाति जनगणना की आवश्यकता ही नहीं रह जाएगी और फिर निजी नौकरियों में भी आरक्षण आर्थिक रूप से अक्षम लोगों को मिल सकेगा।
COMMENTS