नारीवाद का अर्थ - नारीवाद या से तात्पर्य एक ऐसी विचारधारा से जिसका विश्वास है कि महिलाओं को पुरुषों के समान अधिकार और अवसर मिलने चाहिए। सामान्य अर्थ म
नारीवाद का अर्थ एवं परिभाषा स्पष्ट कीजिये तथा नारीवाद की विशेषताएं बताइये।
- नारीवाद पर लेख लिखिये।
- नारीवाद चिंतन क्या हैं ?
- नारीवादी चिंतन की प्रमुख विचारधाराएं बताइये।
- नारीवाद पर एक निबंध लिखिए
नारीवाद का अर्थ
नारीवाद या से तात्पर्य एक ऐसी विचारधारा से जिसका विश्वास है कि महिलाओं को पुरुषों के समान अधिकार और अवसर मिलने चाहिए। सामान्य अर्थ में नारीवाद स्त्री तथा पुरुष में सामाजिक, आर्थिक, व्यक्तिगत, राजनीतिक, और लैंगिक समानता के लक्ष्य को साझा करने वाली विचारधाराओं, राजनीतिक और सामाजिक आंदोलनों का एक समूह है।
नारीवाद - नारी की पराधीनता (Subjection) और नारी के प्रति होने वाले अन्याय पर ध्यान केन्द्रित करता है, और इनके प्रतिकार के उपायों पर विचार करता है। नारीवाद का दावा है कि अतीत तथा वर्तमान समाजों में स्त्रियों को अपने स्त्रीत्व के कारण अन्याय सहन करना पड़ा है, और आज भी उनके साथ अन्याय हो रहा है। ऐतिहासिक क्रम में आन्दोलन के मुख्य-मुख्य मुद्दे ये रहे हैं : स्त्रियों के अधिकारों को मानव अधिकारों की सामान्य श्रेणी (Human Rights) के रूप में मान्यता दी जाये; सम्पूर्ण सामाजिक जीवन के सन्दर्भ में स्त्री-पुरुष की समानता स्वीकार की जाये; और स्त्री को परम्परागत पराधीन ता से मक्ति प्रदान करने के लिये स्त्रीत्व (Womanhood) की नई परिभाषा दी जाये।
नारीवाद का उदय / नारीवाद का इतिहास
समकालीन सन्दर्भ में नारीवाद-आन्दोलन का उदय 1970 में शुरू होने वाले दशक में हआ। परन्तु स्त्री-पुरुष की सापेक्ष स्थिति से सम्बन्धित विवाद चिरकाल से चला आ रहा है। प्राचीन यूनानी दार्शनिकों में प्लेटो ने संरक्षकवर्ग (Guardian Class) के अन्तर्गत स्त्री-पुरुष की समानता स्वीकार की थी, परन्तु अरस्तू ने पुरुषों की तुलना में स्त्रियों की हीनता (Inferiority) पर बल देते हुए उन्हें दासों (Slaves) के समकक्ष रखा था। प्राचीन भारतीय गौरव-ग्रन्थ 'मनुस्मृति' के अन्तर्गत एक ओर यह कहा गया - 'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता' (जहाँ नारियों की पूजा होती है, वहाँ देवता विराजमान होते हैं). तो दूसरी ओर यह घोषित किया गया 'न नारी स्वातन्त्र्यमर्हति' (नारी स्वतन्त्र रहने योग्य नहीं है)।
नारीवाद-आन्दोलन के आरम्भिक संकेत अठारहवीं और उन्नीसवीं शताब्दी के यूरोपीय चिन्तन में ढूँढे जा सकते हैं। उदारवादी परम्परा (Liberal Tradition) के अन्तर्गत मेरी वॉल्स्टनक्राफ्ट की कृति 'विंडीकेशन ऑफ द राइट्स ऑफ वूमेन' (नारी-अधिकारों की प्रामाणिकता), (1973) में स्त्रियों को कानूनी, राजनीतिक और शैक्षिक क्षेत्रों में समानता प्रदान करने के लिये शानदार पैरवी की गई थी। वॉल्स्टनक्राफ्ट ने विशेष रूप से स्त्री-पुरुष के पृथक्-पृथक् सद्गुणों (Distinctive Virtues)) की प्रचलित धारणाओं को चुनौती देते हुए सामाजिक जीवन में स्त्री-पुरुष की एक-जैसी स्थिति और भूमिका की माँग की। आगे चलकर जॉन स्टुआर्ट मिल (1773-1836) ने अपनी एक महत्वपूर्ण कृति 'सब्जेक्शन ऑफ वीमेन' (स्त्रियों की पराधीनता) (1869) के अन्तर्गत यह तर्क दिया कि स्त्री-पुरुष का सम्बन्ध मैत्री (Friendship) पर आधारित होना चाहिये, प्रभुत्व (Domination) पर नहीं। मिल ने विशेष रूप से विवाह-कानून में सुधार और स्त्री-मताधिकार पर बल देते हुए सुयोग्य एवं प्रतिभाशाली स्त्रियों को समान अवसर प्रदान करने की वकालत की।
फिर उन्नीसवीं शताब्दी में मार्क्सवाद (Marxism) के प्रवर्तकों ने स्त्री-पुरुष के परस्पर सम्बन्धों में गहरी दिलचस्पी जाहिर की। उन्होंने लिखा कि परिवार संस्था श्रम-विभाजन (Division of Lobour) का सामान्य स्रोत है जिसमें स्त्री-पुरुष का सम्बन्ध प्रभुत्व एवं निजी सम्पत्ति (Private Property) की धारणाओं को मूर्त रूप प्रदान करता है। देखा जाये तो परिवार के लिये पुरुष की स्थिति बुर्जुवा-वर्ग (Bourgeoisie) के तुल्य है, और स्त्री की स्थिति सर्वहारा (Proletaritat) के समानान्तर है। मार्क्सवादियों ने तर्क दिया कि जब पूँजीवादी प्रणाली (Capitalist System) का अन्त हो जायेगा तब निजी गृह-कार्य (Private Housework) सार्वजनिक उद्योग (Public Industry)) को सौंप दिया जायेगा, और सभी स्त्रियाँ सार्वजनिक जीवन में पुरुषों के साथ कन्धे-से-कन्धा मिलाकर काम कर सकेंगी।
1970 से शुरू होने वाले दशक में यूरोप और अमरीका की अनेक जागरूक महिलाओं ने अनुभव किया कि स्त्रियों के मताधिकार-आन्दोलनों और स्त्रियों की स्थिति के प्रति उदारवादी एवं समाजवादी दोनों विचार-परम्पराओं में इतनी सजगता के बावजूद पश्चिमी संस्कृति के भीतर स्त्रियों की पराधीनता का अन्त करने की दिशा में कोई ठोस प्रगति नहीं हो पायी थी। तभी से नारी-अधिकारों के लिये एक नये आन्दोलन का सूत्रपात हुआ।
नारीवाद की प्रमुख विचारधाराएँ
नारीवाद-आन्दोलन के अन्तर्गत अनेक प्रकार के विचार और कार्यक्रम प्रस्तुत किये गये हैं जिनका सम्पूर्ण विवरण देना कठिन है। मौटे तौर पर, इस आन्दोलन की तीन मुख्य-मुख्य धाराओं की पहचान कर सकते हैं -
(1) उदारवादी धारा (Liberal Stream) - इसका ध्येय है. नारी-अधिकारवाद के पुनरुत्थान के लिये नये संघर्ष का सूत्रपात। इसमें स्त्रियों के लिये अवसर की पूर्ण समानता (Absolute Equality of Opportunity) और लिंग (Gender) के आधार पर भेदभाव के पूर्ण निराकरण पर बल दिया जाता है। इसके कार्यक्रम हैं : समान कार्य के लिये स्त्रियों और पुरुषों को समान वेतन, गर्भपात कानूनों में सुधार आदि। यह नारीवाद-आन्दोलन का सबसे लोकप्रिय पक्ष है। परन्तु इसे प्रभावशाली नहीं माना जाता है।
(2) आमूल-परिवर्तनवादी धारा (Radcal Stream) - इस धारा के अन्तर्गत शुलामिथ फायरस्टोन (1945) जैसी उत्कट नारीवादी (Radical Feminist) ने तर्क दिया है कि वर्तमान व्यवस्था मेंछिटपुट सुधारों के बल पर स्त्रियों पर होने वाले अत्याचार की जड़ तक नहीं पहुँचा जा सकता। आर्थिक परिवर्तन या आर्थिक शक्ति से ही स्त्रियों को कोई बहुत बड़ा फायदा होने वाला नहीं है। सारा इतिहास नारी पर अत्याचार की कहानी है; यह पितृसत्तात्मक (Patriarchal Power) शक्ति का जीता-जागता उदाहरण है। इसका अभिप्राय यह है कि स्त्री-पुरुष के शारीरिक अन्तर को एक जीववैज्ञानिक तथ्य (Biological Fact) मानते हुए स्त्री को बच्चे पैदा करने और उन्हें पालने वाली मशीन समझ लिया जाता है। परन्तु सामाजिक जीवन में स्त्री-पुरुष की इतनी भिन्न-भिन्न भूमिका का कोई जीववैज्ञानिक आधार भी नहीं है। लड़कों को अडिग, उद्दण्ड और दबंग बनने की शिक्षा दी जाती है; लड़कियों को आज्ञाकारी, शर्मीली और दब्बू बनना सिखाया जाता है। लड़कों को डॉक्टर, इंजीनियर और विधिवेत्ता। बनने के लिये प्रोत्साहन दिया जाता है। लड़कियों को नर्स, सेक्रेटरी और गृहणी बनने के लिये। जीववैज्ञानिक दृष्टि से लड़के-लड़कियों की मानसिक क्षमताओं में कोई अन्तर नहीं है। यदि समाज चाहे तो लड़के-लड़कियों की ये भूमिकायें आपस में बदली जा सकती हैं। इससे समाज की. कार्य-कुशलता में कोई अन्तर नहीं आयेगा। इस विचारधारा के अनुसार स्त्री के शोषण (Exploitation) का अन्त करने का सही तरीका यह होगा कि लिंग पर आधारित श्रम-विभाजन (Sex-Based Division of Labour) को समाप्त कर दिया जाये। इसके लिये परम्परागत मूल-परिवार (Neuclear Family) का पुनर्गठन करना होगा, और अन्ततः उसे समाप्त कर देना होगा। यह विचार नारी-मुक्ति आन्दोलन (Woman's Liberation Movement) के रूप में व्यक्त हआ है। कई उत्कट नारीवादियों ने स्त्रियों की ऐसी स्वायत्त बस्तियाँ बसाने की हिमायत की जिनमें उनके उत्पीड़न के मूल स्रोत - पुरुष के लिये कोई जगह नहीं होगी। मानव-जाति को समाप्त होने से बचाने के लिये यहाँ केवल पुरुष के पुरुषत्व का इस्तेमाल किया जायेगा; उसे प्रधान भूमिका निभाने का कोई अवसर नहीं दिया जायेगा।
निष्कर्ष - नारीवाद ने स्त्रियों पर युग-युगान्तर से होने वाले अन्याय और अत्याचार की ओर ध्यान खींचकर इस अन्याय के निराकरण का रास्ता दिखाया है। परन्तु जब नारी-मुक्ति के नाम पर स्त्री-पुरुष के संघर्ष का मुद्दा उठाया जाता है तब स्त्री-पुरुष की एक-दूसरे के प्रति निष्ठा के बन्धन टूटने लगते हैं। ऐसी हालत में जब पुरुषों को अपनी ओर आकर्षित करने के लिये स्त्रियों के बीच प्रतिस्पर्धा शुरू हो जाती है तो वह स्वयं स्त्रियों को बहुत महँगी पड़ती है। नारीवाद का यह दावा सही है कि स्त्रियों को निर्बल न समझा जाये। परन्तु समाज में स्त्री की गरिमा इसमें है कि उसे ममता-मूर्ति, प्रेरणा और शक्ति का अनन्त स्रोत माना जाये। सभ्य समाज में ऐसा माना भी जाता है। आवश्यकता इस गरिमा के विस्तार की है। स्त्रियों को न तो दया का पात्र समझा जाये, न दासता का विषय बनाया जाये। परन्तु कानूनी तौर पर स्त्री-पुरुष की अक्षरशः समानता (Literal Equality) बहुत युक्तियुक्त नहीं होगी। स्त्रियों के लिये मातृत्व-लाभ (Maternity Benefits) तथा जोखिम-भरे (Hazarduous) और तनाव-भरे (Strenuous) कार्यों से उन्मुक्ति की व्यवस्थाओं को स्त्री-पुरुष की कानूनी समानता के नाम पर समाप्त नहीं किया जा सकता। इसके अलावा सम्मानित व्यवसायों में स्त्रियों के प्रतिनिधित्व को ज्यादा-से-ज्यादा बढ़ाना भी निहायत जरूरी है।
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