राजनीतिक सिद्धांत उच्च कोटि की बौद्धिक उपलब्धि है स्पष्ट कीजिए। दार्शनिक चिन्तन के अन्य रूपों की तरह राजनीति-चिन्तन भी एक उच्चकोटि की बौद्धिक उपलब्धि
राजनीतिक सिद्धांत उच्च कोटि की बौद्धिक उपलब्धि है स्पष्ट कीजिए।
राजनीतिक विज्ञान - उच्चकोटि का बौद्धिक प्रयास
दार्शनिक चिन्तन के अन्य रूपों की तरह राजनीति-चिन्तन भी एक उच्चकोटि की बौद्धिक उपलब्धि है। अतः यह अपने आप में मूल्यवान है। पढ़े-लिखे लोग उस सत्ता की प्रकृति को समझना चाहते हैं जिसके निर्देशन में वे अपना जीवन बिताते हैं। वे राजनीतिक जीवन की सर्वोत्तम प्रणाली के विषय में अपनी सूझ-बूझ बढ़ाना चाहते हैं। प्लेटो, अरस्तु, एक्विनास, लॉक, रूसो, कांट और मिल जैसे महान और प्रतिभाशाली दार्शनिकों ने राजनीति-दर्शन में जो अभिरुचि दिखाई है, वह इस बात का प्रमाण है कि यह एक महत्वपूर्ण बौद्धिक प्रयास है। जैसे प्रबुद्ध लोग साहित्य संगीत और कला के मर्म को जानकर अपने जीवन को सुरुचिपूर्ण बनाते हैं, वैसे ही राजनीति-दर्शन का ज्ञान प्राप्त करके वे अपनी सामाजिक चेतना को विकसित करना चाहते हैं।
राजनीतिक तर्क का निर्माण और परीक्षण
अपनी राजनीतिक समस्याओं के समाधान के लिए हमें बहुत बार मानव प्रकृति (Human Nature), नागरिक के दायित्वों और अधिकारों तथा न्याय के सिद्धांतों के बारे में कोई निर्णय करना पड़ता है। यदि हम ऐसे प्रत्येक प्रश्न पर नए सिरे से विचार शरू कर देंगे तो यह कार्य बहुत कठिन हो जाएगा। राजनीतिक-सिद्धांत के अध्ययन से हमें यह पता चलता है कि इन प्रश्नों पर अतीत के महान् दार्शनिकों ने किस-किस तरह के विचार प्रकट किए हैं? उनके आधार पर हमें अपने निष्कर्ष तक पहुँचने में बहुत सहायता मिलती है। उदाहरण के लिए व्यक्ति (Individual) और राज्य (State) के परस्पर सम्बन्ध पर विचार करते हुए टॉमस हॉब्स (1588-1679), जॉन लॉक (1632-1704), ज्यां जाक रूसो (1712-78), जी० डब्ल्यू० एफ० हेगेल (1770-1831), टी० एच० ग्रीन० (1836-82) और एच० जे० लास्की (1893-1950) ने अपनी-अपनी मान्यताओं के अनुसार अपने-अपने ढंग से राजनीतिक दायित्व (Political Obligation) के भिन्न-भिन्न आधार और भिन्न-भिन्न सीमाओं का विवरण दिया है। इनमें से कौन-कौन-सी मान्यताएँ कितनी यक्तियक्त हैं-इस पर तर्क-वितर्क तो हो सकता है, परन्तु कोई अंतिम निर्णय नहीं दिया जा सकता। इसी तरह, लॉक ने 'प्राकृतिक अधिकारों' का जो सिद्धांत (Theory of Natural Rights) रखा, उसका कोई अनुभवमूलक आधार (Empirical Basis) नहीं ढूंढा जा सकता। संक्षेप में. राजनीति-दर्शन की परम्परा से हमें तथ्यों के बारे में सर्वथा प्रामाणिक जानकारी चाहे न भी मिले परन्त मानव-जीवन के लक्ष्यों और उद्देश्यों के बारे में हमारी संकल्पनाओं को स्पष्ट करने में इससे सहायता अवश्य मिलती है।
जैसे प्रत्येक पीढी को नया वाहन बनाने से पहले पहिए का आविष्कार नहीं करना पड़ता, वैसे ही हमें अपना राजनीतिक तर्क (Political Argument) प्रस्तुत करने के लिए नई संकल्पनाओं (Concepts) और नई शब्दावली (Terminology) का निर्माण नहीं करना पड़ता। हम अपनी आधुनिक चेतना (Modern Consciousness) के आलोक में ही युग-युगांतर से प्रचलित तर्क-शृंखला को परखकर उपयुक्त दृष्टिकोण बनाते हैं। उदाहरण के लिये, अरस्तू ने दास-प्रथा (Slavery) का समर्थन करते हुए यह तर्क दिया था कि केवल स्वतंत्रजन (Freemen) ही सद्गुण (Virtue) की क्षमता रखते हैं, दास (Slave) में यह क्षमता नहीं पाई जाती। अतः दास का जीवन स्वामी (Master) की सेवा में ही सार्थक होता है। आज के युग में दास-प्रथा तो प्रचलित नहीं है, परन्तु सामाजिक विषमता (Social Inequaltiy) की ज्वलंत समस्या अवश्य विद्यमान है। रूसो ने प्राकृतिक विषमता और परम्परागत विषमता में अन्तर स्पष्ट किया। मेकियावेली की कूटनीति के क्षेत्र में अनोखी सूझबूझ से हम लाभ उठा सकते हैं।
लॉक के चिन्तन में हमें संपत्ति के अधिकार के दार्शनिक आधार का विवरण देखने को मिलता है। रूसो के 'सामान्य इच्छा' के सिद्धांत में हमें लोकप्रिय प्रभुसत्ता का सर्वोत्तम संकेत मिलता है। हीगल के चिन्तन में हमें नागरिक समाज के अन्तर्गत राजनीतिक दायित्व का आधार मिलता है।
समकालीन राजनीति-दार्शनिक जॉन राल्स (1921) ने न्याय-सिद्धांत के अन्वेषण के लिए लॉक की अनुबंधमूलक पद्धति (Contractual Method) को नए रूप में अपनाने का प्रयत्न किया है, और विवेकशील वार्ताकारों (Rational Negotiators) की संकल्पना के लिए मनुष्य के बारे में कांट (1724-1804) की संकल्पना को अपनाया है। इसी तर्कशैली के आधार पर राल्स ने जरमी बेंथम (1748-1832) और जे० एस० मिल (1806-73) के उपयोगितावाद (Utilitarianism) पर तीखा प्रहार किया है।
न्याय-सिद्धांत के दूसरे समकालीन व्याख्याकार रॉबर्ट नॉजिक (1938) ने लॉक की ही अनबंधमूलक पद्धति का सहारा लेकर स्वेच्छातंत्रवाद (Libertarianism) की पुष्टि की है जो राल्स के समतावाद (Egalitarianism) से सर्वथा भिन्न है। इस तरह राजनीति-दर्शन में जिन संकल्पनाओं का प्रयोग होता है, वे निरन्तर चर्चा-परिचर्चा का विषय बनी रहती हैं, और नए चिन्तन के लिए आधार का काम देती हैं।
राजनीतिक चिन्तन की इस निरन्तरता के और भी बहुत सारे उदाहरण ढूंढे जा सकते हैं। नई परिस्थितियों के विश्लेषण के लिए कहीं केवल पुरानी संकल्पनाओं का प्रयोग किया जाता है; कहीं उनमें संशोधन किया जाता है; कहीं नई संकल्पनाएं विकसित की जाती हैं। इसी तरह नई चेतना को व्यक्त करने के लिए कहीं पुराने तर्कों की पुष्टि की जाती है; कहीं उनका खंडन किया जाता है; कहीं उनमें संशोधन किया जाता है। राजनीतिक-सिद्धांत के अध्ययन से हमें प्रस्तुत समस्याओं के विश्लेषण के लिए और अपने राजनीतिक तर्क (Political Argument) का निर्माण करने के लिए पर्याप्त सहायता और अंतर्दृष्टि प्राप्त होती है। इस प्रकार समकालीन समस्याओं के विश्लेषण के लिए राजनीतिक-सिद्धांत की उपयोगिता निर्विवाद है।
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