बालक के विकास में कितने प्रकार के स्तर होते हैं? बालक के विकास में भिन्न-भिन्न मनोवैज्ञानिकों ने निम्न स्तर बताये हैं: (1) गर्भावस्था, (2) बीजावस्था,
बालक के विकास में कितने प्रकार के स्तर होते हैं ? वर्णन कीजिए ।
बालक के विकास में भिन्न-भिन्न मनोवैज्ञानिकों ने निम्न स्तर बताये हैं: (1) गर्भावस्था, (2) बीजावस्था, (3) पिण्डावस्था, (4) गर्भनालावस्था, (5) भ्रूणावस्था, (6) शैशवावस्था, (7) बाल्यावस्था, (8) किशोरावस्था, (9) प्रौढ़ावस्था
1. गर्भावस्था - वर्तमान युग में मनोवैज्ञानिक गर्भावस्था के अन्तर्गत होने वाले विकास भी महत्व देने लगे हैं, क्योंकि बालक का भावी विकास गर्भावस्था से ही आरम्भ हो जाता है। बालक का साधारणतः गर्भ में रहने का काल 9 माह या 280 दिन का होता है। इसी समय रक्त कोष से बालक के जीवन की रचना का प्रारम्भ हो जाता है।
2. बीजावस्था - यह अवस्था सचेतन से दो सप्ताह बाद तक की होती है। सचेतन अण्ड माँ से संयुक्त नहीं होता है। यह इधर-उधर तैरता रहता है। इसके अन्दर महत्वपूर्ण परिवर्तन होते हैं। कोष विभक्त होकर एक जीवन कोष का समूह बना लेता है। इसके विभाजन की क्रिया अत्यधिक तीव्र गति से होती है।
3. पिण्डावस्था - पिण्डावस्था में महत्वपूर्ण परिवर्तन बहुत जल्दी-जल्दी होते रहते हैं। कोष समूह तीन भागों में बँट जाता है बाह्य स्तर, जिसमें स्नायु तन्तु, त्वचा, ग्रन्थि, बाल, नाखून आदि का निर्माण होता है, मध्य स्तर, जिसमें परिवहन तथा विसर्जन तन्तु का निर्माण होता है तथा अन्तःस्तर, जिसमें थायराइड, सिलेवरी या लार, थाइमस ग्रन्थि, फेफड़े, लिवर, तिल्ली आदि का निर्माण होता है।
4. गर्भनालावस्था - गर्भनाल लगातार विकसित होती रहती है। लगभग 6 महीने में यह गर्भाशय ढक लेती है। इस झिल्ली के आवरण से भ्रूण सुरक्षित रहता है और उसी से पानी, ऑक्सीजन, आवश्यक आहार आदि माँ के रक्त से मिलता रहता है। साथ ही विसर्जन योग्य तत्वों का विकास भी इसी नाल द्वारा होता है।
5. भ्रूणावस्था - जिसमें पिण्डावस्था की विकास क्रियाएँ होती हैं उसे भ्रूणावस्था कहते हैं। इस अवस्था में नवजात शिशु के प्रमुख अंग अपना कार्य आरम्भ कर देते हैं। भ्रूण का भार एवं आकार बढ़ जाता है। हृदय की गति लयात्मक हो जाती है।
6. शैशवावस्था - बालक के विकास की यह तीसरी अवस्था है। उसकी शैशवावस्था तब प्रारम्भ होती है जब नवजात शिशु लगभग दो सप्ताह का हो जाता है और उसका समय दो वर्ष की आयु तक चलता रहता है। आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये वह दूसरों पर निर्भर रहता है। बालक दूसरों पर निर्भर तब तक रहता है जब तक कि वह अपनी माँसपेशियों को नियन्त्रित करना नहीं सीख लेता। वह खेलने, चलने, खाने के मामले में स्वतंत्रतापूर्वक कार्य करने लगता है।
7. बाल्यावस्था - बाल्यावस्था का काल 11 वर्ष तक का होता है। यह काल बालक के विकास के लिये बहुत महत्व रखता है क्योंकि इस काल में वह पर्यावरण पर नियंत्रण करना सीख लेता है। 6 वर्ष की आयु तक उसमें सामाजिकता के विकास के लक्षण दिखाई देने लगते हैं। समूह में बालक को खेलना अच्छा लगता है।
8. किशोरावस्था - बालक की किशोरावस्था की आयु 12 वर्ष से आरम्भ होकर परिपक्वता की आयु 21 वर्ष अर्थात् वयस्क होने तक की है। लड़कियों का विकास 11 से 13 वर्ष के मध्य में होता है और लड़कों का विकास कुछ बाद में होता है। इस अवस्था में यौन परिवर्तनों के कारण किशोर एवं किशोरियाँ कुछ असन्तुलित रहते हैं । 16 से 17 वर्ष तक के बालक का शारीरिक एवं मानसिक विकास पूर्णरूप से हो जाता है। 17 से 21 वर्ष तक की अवस्था अन्तिम अवस्था होती है। इस अवस्था में प्रायः बालक दिखावा अधिक करते हैं। इस अवस्था में बालक एवं बालिकाएँ अपने को चुस्त एवं सुन्दर प्रदर्शित करने की कोशिश करते हैं।
9. प्रौढ़ावस्था - गर्भाधान से आरम्भ होकर विकास के अन्तिम चरण तक के काल को प्रौढ़ावस्था कहते हैं। इस अवस्था के अन्त तक व्यक्ति एक सीमा तक पहुँच जाता है जिसे सामाजिक दृष्टि से वयस्क कहा जाता है और इस अवस्था में बालक एवं बालिकाएँ अपने भविष्य के बारे में सोचने लगते हैं।
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