खिलाफत आन्दोलन को असहयोग आन्दोलन में मिलाना कहाँ तक औचित्यपूर्ण था ? विवेचना कीजिए। 'खिलाफत आन्दोलन' एक राष्ट्रीय आन्दोलन न होकर महज एक धार्मिक आन्दो
खिलाफत आन्दोलन को असहयोग आन्दोलन में मिलाना कहाँ तक औचित्यपूर्ण था ? विवेचना कीजिए।
उत्तर - 'खिलाफत आन्दोलन' एक राष्ट्रीय आन्दोलन न होकर महज एक धार्मिक आन्दोलन था। इस आन्दोलन के उद्देश्य व उदभव के कारण राजनीतिक, आर्थिक न होकर केवल धार्मिक थे। जबकि असहयोग आन्दोलन एक राष्ट्रीय राजनीतिक-आर्थिक आन्दोलन था। अतः ऐसे में खिलाफत के असहयोग में सम्मिलित किये जाने के औचित्य पर प्रश्न चिन्ह लगना स्वाभाविक है, जिसकी विस्तृत विवेचना निम्नांकित शीर्षकों के अन्तर्गत की जा सकती है -
खिलाफत को असहयोग आन्दोलन में मिलाने का औचित्य
अधिकांश इतिहासकारों द्वारा खिलाफत आन्दोलन को असहयोग आन्दोलन में सम्मिलित किये जाने को औचित्यहीन बताया गया है तथा इस मुददे पर गाँधी जी की तीव्र आलोचना भी की गयी है। विचारकों का मानना है कि खिलाफत आन्दोलन एक धार्मिक आन्दोलन था जबकि असहयोग आन्दोलन एक राजनीतिक आन्दोलन था। इस सन्दर्भ में खाविद इविद सईद का कथन उल्लेखनीय है कि - "मुसलमान भारत की स्वतन्त्रता के लिए उतना नहीं लड़ रहे थे, जितना इसलिए कि तुर्की में 'खलीफा' को बनाए रखा जाए। उधर गाँधी जी खिलाफत को एक ऐसे हथियार के रूप में इस्तेमाल कर रहे थे, जिसमें स्वराज्य की दिशा में भारत की गति तेज की जा सके।"
इस प्रकार उल्लेखनीय है कि महात्मा गाँधी ने एक ऐसे आन्दोलन (खिलाफत) के द्वारा मुसलमानों का सहयोग राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए चाहा जो सम्भवतः भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन के लिए उचित नहीं था। भारत स्वयं तो स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष कर रहा था, जबकि दूसरी ओर गाँधी जी खिलाफत आन्दोलन को समर्थन देकर अरब के कुछ मुस्लिम व कुछ गैर मुस्लिम लोगों को सामन्ती अधिकार में रखने में सहायक बन रहे थे। इस विषय में आर.सी. मजूमदार का अभिमत विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि - "सर्व इस्लामिक आन्दोलन स्वयं भारतीय राष्ट्रवाद पर प्रहार था। महात्मा गाँधी ने स्वयं स्वीकार किया था कि भारतीय मुसलमानों के लिए भारत के स्वशासन से भी अधिक महत्वपूर्ण खिलाफत है, ऐसी स्थिति में खिलाफत आन्दोलन के साथ जुड़ने का क्या औचित्य था।"
वास्तविकता में स्वयं तुर्की में ही खलीफा का विरोध हो रहा था तथा युवा तुर्क निरन्तर खलीफा की शक्ति को चुनौती दे रहे थे। इस सन्दर्भ में 'पोलक' का अभिमत ठीक ही प्रतीत होता है कि . "खिलाफत आन्दोलन की बुनियाद ही गलत थी। भारतीय मुसलमानों का विचार था कि वे तुर्की के मुसलमानों के हित में ऐसा कर रहें हैं, जबकि तुर्की के मुसलमान इसका उपहास करते हुए मध्ययुगीन भौंडापन कहते थे।"
उपर्युक्त मतों के विपरीत गाँधी जी की दृष्टि में हिन्दू-मुस्लिम एकता के बिना स्वराज्य प्राप्त करना असम्भव था। गाँधी जी ने स्वये कहा भी था कि - "मैं जिन्ना के विचार से सहमत हैं कि हिन्दू-मुसलमान एकता का अर्थ स्वराज्य है।" अतः इस विषय में नीतियों पर भी ध्यान देना आवश्यक है। ब्रिटिशों की नीति निरन्तर यही थी कि हिन्दू-मुस्लिम एकता कभी भी कायम न हो सके। ब्रिटिश सरकार द्वारा किए अनेक कार्य जैसे-बंगाल विभाजन, 1909 ई. का अधिनियम इत्यादि इस बात की पुष्टि करते हैं। इस प्रकार यह भी स्पष्ट है कि ब्रिटिश सरकार भी यह मानती थी कि यदि हिन्दू-मुसलमान एक हो गए तो उनका शासन भारत में अस्थिर हो जाएगा। खिलाफत के प्रश्न ने महात्मा गाँधी को हिन्दु-मस्लिम एकता स्थापित करने का सुअवसर प्रदान कर दिया। ऐसी स्थिति में यदि महात्मा गाँधी ने इस अवसर से लाभ उठाते हए अपने राजनीतिक उद्देश्य को प्राप्त करने का प्रयास किया तो यह उचित ही था। इसी कारण महात्मा गाँधी ने कांग्रेस तथा हिन्दुओं से मुसलमानों का साथ देने को कहा था। स्वयं जिन्ना का भी ऐसा ही मानना था कि, 'स्वराज्य प्राप्त करने की एक आवश्यक शर्त है हिन्दू-मस्लिम राजनीतिक एकता। मैं कह सकता हू कि जिस दिन भारत में हिन्दू-मुसलमान एकता हो जाएगी, उसी दिन उसे उत्तरदायी सरकार सहित डोमिनियन स्टेटस मिल जाएगा।"
अतः खिलाफत के मुद्दे पर गाँधी जी की आलोचना करना तर्कसंगत और उचित प्रतीत नहीं होता। खिलाफत आन्दोलन को असहयोग आन्दोलन में सम्मिलित किये जाने का पर्याप्त औचित्य दिखाई पड़ता है। कुछ मुद्दों पर आप्रासंगिक होते हुए भी यह कृत्य पूर्णतया आप्रासंगिक या औचित्यहीन नहीं था।
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