इस लेख में पढ़े "भारत में समाजवाद पर निबंध", "समाजवाद और भारत पर निबंध", "Essay on Socialism in Hindi"
इस लेख में पढ़े "भारत में समाजवाद पर निबंध", "समाजवाद और भारत पर निबंध", "Essay on Socialism in Hindi"
Hindi Essay on "Socialism", "भारत में समाजवाद पर निबंध", "समाजवादी विचारधारा पर निबंध"
समाजवाद किसे कहते हैं?
समाजवाद' शब्द 'समाज'+'वाद' से मिलकर बना है। यह अंग्रेजी शब्द 'सोसिलिज्म' का हिन्दी पर्याय है। समाजवाद एक राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक व्यवस्था है, जिसमें उत्पादन और विनिमय के सिद्धान्तों पर समाज का नियन्त्रण होता है । यह एक राजनैतिक और आर्थिक व्यवस्था हैं जिसके द्वारा गरीब और अमीर के भेद को मिटाकर गरीबों को सम्मानपूर्वक जीवन व्यतीत करने के लिए सुविधाएँ प्रदान की जाती हैं।
समाजवाद की विशेषताएँ
समाजवाद का सूत्रपात अठारहवीं और उन्नीसर्व शताब्दी में हुआ। बीसवीं और विशेषकर १६१७ की रूसी क्रान्ति के बाद उसक महत्व संसार में प्रतिष्ठित हो गया । क्रान्ति के द्वारा यह सिद्ध हो गया कि संसार में ऐसी व्यवस्था की भी स्थापना की जा सकती है, जिसके द्वारा गरीब और अमीर के भेद को मिटाकर सभी लोगों को व्यक्तित्व के विकास और जीवन निर्वाह की समान सुविधाओं को दिलाया जा सकता है।
रूसी क्रान्ति के पश्चात् अन्तर्राष्ट्रीय जगत को विविध राजनैतिक विचार'धाराओं में समाजवाद को एक सम्मानजनक और प्रतिष्ठाजनक स्थान उपलब्ध हो गया । इस विचारधारा को अपना लक्ष्य मानकर अनेक विचारकों ने एक ऐसे राज्य और समाज की परिकल्पना की जिसमें सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक विविधताओं को मिटाकर समानता और स्वतन्त्रता के आधार पर एक वर्गविहीन समाज की स्थापना सम्भव हो सकती थी।
कुछ लोग समाजवाद और साम्यवाद को पर्याय मानते हैं किन्तु मूलरूप से इसमें अन्तर है । साम्यवाद के आदि जनक कार्लमार्क्स ने समाजवाद को साम्यवाद की पहली सीढ़ी माना है। उनका विचार है कि जब साम्यवाद की स्थापना स्वतः हो जाती है तो राज्य जैसे तत्व के लिये कोई स्थान नहीं रह जाता। समाज समृद्ध सम्पन्न बन जाता है । फलस्वरूप लोग स्वयं अपने ऊपर शासन करना सीख जाते हैं। इसीलिए उनके ऊपर किसी राजनैतिक नियन्त्रण की आवश्यकता नहीं होती। उसके पहले की व्यवस्था समाजवादी व्यवस्था कहलाती है जिसमें देश के उत्पादन और वितरण के साधनों पर समाज का नियन्त्रण हो जाता है और राज्य सर्वहारा वर्ग के हित में सारे साधनों का उपयोग करता है। इस प्रकार साम्यवाद की पहली सीढ़ी समाजवाद है।
सामाजिक समाजवाद की परिकल्पना की जाती है, उसमें ऐसा समझा जाता है कि उसकी स्थापना जनतांत्रिक पद्धति से भी हो सकती है। इसका सर्वोत्कृष्ट उदाहरण योरोप के स्केन्डिनेवियन देश हैं। वैसे इसके पहले जर्मनी में भी इस दिशा में प्रयास किया गया किन्तु वह बहुत हद तक सफल नहीं हो सका। स्केन्डिनेवियन देश के अतिरिक्त नार्वे, स्वीडन, डेनमार्क में जनतांत्रिक ढंग ने समाजवाद की स्थापना की गई। वहाँ के लोगों का जीवनयापन स्तर संसार के सर्वाधिकार सम्पन्न देशों के नागरिकों से भी ऊँचा है।
भारत में समाजवाद
भारत में जिस समाजवाद की परिकल्पना की गई है वह इसी भूमि की देन है। उसके आदि जनक आचार्य नरेन्द्रदेव कहे जाते हैं। वैसे उसको वर्तमान स्वरूप देने में भारत के प्रधान मन्त्री स्व० पण्डित जवाहरलाल नेहरू, स्वर्गीय डा० सम्पूर्णानन्द, श्री जयप्रकाश नारायण, डा० राममनोहर लोहिया, अशोक मेहता, आदि का कम श्रेय नहीं हैं। भारत में समाजवाद की स्थापना के लिए १९३१ में ही कांग्रेस के अन्दर समाजवादी दल का निर्माण किया गया। इस दल का निर्माण पंडित नेहरू की प्रेरणा से हुआ था और कांग्रेस को समाजवाद के मार्ग पर ले जाने की दिशा में आचार्य नरेन्द्रदेव, जयप्रकाशनारायण, राममनोहर लोहिया, कमलादेवी चट्टोपाध्याय, आदि ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। इसके पश्चात् एक समय ऐसा आया कि सभी समाजवादियों को कांग्रेस से अलग होना पड़ा। इसका अर्थ यह नहीं था कि काँग्रेस से समाजवादी अलग हो गये । बहुत से समाजवादी काँग्रेस में रह गये किन्तु अधिकाँश उससे अलग हो गये । इसका प्रभाव काँग्रेस संगठन पर अच्छा नहीं पड़ा। समाजवादियों द्वारा खाली किए गए स्थानों को दसरे लोगों द्वारा परा करने का प्रयास किया गया और उन लोगों ने संगठन पर अपना अधिकार जमा लिया। इसी का 'परिणाम था कि काँग्रेस द्वारा अर्नाकुलम अधिवेशन में, नासिक अधिवेशन में स्पष्ट रूप से समाजवाद को अपना लक्ष्य घोषित करने के बाद भी उस दिशा में सक्रिय प्रयास नहीं किया गया।
भारत के संविधान में जिस भेदभावहीन समाज को स्थापना की परिकल्पना की गई है, वह समाजवादी समाज है, यद्यपि संविधान में शुद्ध प्रयोग नहीं किया गया। आज देश के अधिकांश राजनैतिक दल इस बात को मानकर चलते हैं कि देश में समाजवाद की स्थापना द्वारा ही गरीब और अमीर के भेद को दूर किया जा सकता है।
समाजवाद से लाभ
भारत के लिए समाजवाद के अतिरिक्त कोई दूसरा रास्ता ही नहीं है। हम लोग ऐसा मानकर चलते हैं कि भारतीय संस्कृति, भारतीय धर्म, और भारतीय मान्यताओं और समाजवाद में कुछ विरोध है । बात ऐसी नहीं है। भारत की धार्मिक मान्यताओं में भी ऐसी बातों का उल्लेख है, जिसके आधार पर सम्पत्ति का और राष्ट्रीय साधनों का बराबर बँटवारा सम्भव है । कहने का तात्पर्य यह है कि भारत के आदि ऋषियों और विचारकों ने समाजवाद में जिस बात की परिकल्पना की थी, भले ही अपने विचारों और अपने सिद्धान्तों को समाजवाद का नाम नहीं दे सके हों, लेकिन जिस समता और समानता और विश्वबन्धुत्व और दानशीलता की बात भारतीय संस्कृति में कही गई है, उसका मुख्य उद्देश्य है ऐसे समाज की संरचना करना, जिसमें किसी प्रकार का भेदभाव विद्यमान न हो।
भारतवर्ष में अधिकांश जनता गरीब है। गरीबी तभी मिटाई जा सकती है जब राष्ट्रीय साधनों पर समाज का नियन्त्रण हो । यदि उत्पादन और विनिमय के साधनों पर सम्पूर्ण समाज का नियन्त्रण नहीं होता और कुछ . व्यक्तियों को उसका स्वामित्व प्रदान कर दिया जाता है तो सहज परिणाम यह होता है कि कुछ लोग लखपती से करोड़पती हो जाते हैं और शेष लोग उनके आश्रित बन जाते हैं। व्यक्तिगत स्वामित्व सामान्यतः लाभ की प्रेरणा से ही कार्य करता है। वह समाज के हित की बात नहीं सोचता। यदि ऐसा हुआ होता तो अमेरिका तथा अन्य पूँजीवादी व्यवस्था वाले देश में धन का समान वितरण हो गया होता, किन्तु ऐसा नहीं हुआ। इस देश के लिए तो समाजवाद अनेक रोगों का उपचार है। यदि पूजी कुछ लोगों के हाथ में केन्द्रित हो जाती है तो सामाजिक मान्यताओं और धारणाओं के अनुरूप वह लोग राज्य के तन्त्र पर भी अपना अधिकार जमा लेते हैं। ऐसी स्थिति में यह आवश्यक है कि उत्पादन और विनिमय के साधनों पर व्यक्तियों के स्वामित्व को हटाकर समाज का स्वामित्व स्थापित किया जाय । आज हम देखते हैं कि जीवन की आवश्यकताएँ पूरा नहीं होतीं। सामग्री के उपलब्ध होने पर भी उनका विधिवत् बँटवारा नहीं हो पाता। यह इसलिए होता है कि उत्पादन और वितरण के साधनों पर कुछ व्यक्तियों का स्वामित्व है । यदि समाज का स्वामित्व उन पर हो जाय तो इस प्रकार की कोई कठिनाई जनता के समक्ष न आये।
सामान्यतः समाजवाद के विरुद्ध यह तर्क दिया जाता है कि मनुष्य की प्रवत्तियाँ ही स्वार्थी हैं । वे व्यक्तिगत हित की बात अधिक सोचते हैं। ऐसी स्थिति में समाजवादी व्यवस्था में वह सामान्य जन की सोचेंगे। उनकी व्यक्तिगत प्रोत्साहन और प्रेरणा की भावना (Incentive) समाप्त हो जायगी और वे कुशलतापूर्वक कार्य न कर सकेंगे। हम मनुष्य को जिस रूप में बनाते हैं वह उसी प्रकार बनता है। यदि हम किसी व्यक्ति को स्वार्थी बनाते हैं तो वह बनता है । युगों से पूजीवादी व्यवस्था के अन्तर्गत रहने के कारण मनुष्य में यह प्रवृत्ति बन गई है कि वह अपने हित की बात अधिक सोचता है, समाज की कम । यदि समाजवादी व्यवस्था को मान्यताओं पर उसे शिक्षा दी जाय और उसके व्यक्तित्व का निर्माण उसकी मान्यताओं के अनुरूप किया जाय तो इसमें दो मत नहीं हो सकते कि वह उनको अपने जीवन का अंग बना लेंगे और इन्हीं के अनुरूप कार्य करने का प्रयास करेंगे । आवश्यकता केवल इस बात की है कि उन मान्यताओं के आधार पर सारे ढाँचे का निर्माण किया जाय।
समाजवाद की स्थापना से कुछ हानि का उल्लेख कुछ लोग करते हैं। कुछ. लोगों का विचार है कि यदि समाजवाद आ जायगा तो व्यक्ति की अपनी महत्ता समाप्त हो जायगी। इसके साथ ही साथ यह भी कहा जाता है कि व्यक्ति अपनी पूजी और अपने परिवार को खोकर बहुत अधिक समाज के हित में सभी कुछ अर्पित करने को तैयार नहीं होता। यह बात, सम्भव है, सही हो किन्तु इसके साथ ही साथ यह भी बात कही जाती है कि इस प्रकार की विचारधारा भी हमारी समाजवादी मनोवृत्ति की द्योतक है।
समाजवाद की स्थापना से होने वाली एक हानि की ओर संकेत करते हुए कुछ लोग कहते हैं कि भारत एक धर्मपरायण देश है और समाजवाद में धर्म के लिए. कोई स्थान नहीं है। उनकी आशंका यह भी है कि समाजवाद की स्थापना से धर्म समाप्त हो जायगा । लेकिन वास्तविकता यह नहीं है । धर्म और समाजवाद का कोई बैर नहीं है। धर्म एक व्यक्तिगत निष्ठा और आस्था की बात है। समाजवाद एक व्यापक सामाजिक हित की बात है । समाजवाद की स्थापना के बाद भी व्यक्ति को अपनी मान्यताओं, अपनी आस्थाओं और अपने विश्वासों को सरक्षित रखने का अधिकार होगा। विशेषकर भारत में जिस समाजवाद की स्थापना की बात कही जाती है, उसमें तो धर्म और व्यक्तिगत स्वतन्त्रता को पूरा-पूरा स्थान है। भारत में जनतांत्रिक ढंग से समाजवाद की स्थापना का प्रयास किया जा रहा । इतने बड़े देश में इस प्रकार का प्रयास निराला प्रयास है किन्तु अनेक दृष्टियों से बहुत ही महत्वपूर्ण भी है। जब लोगों की सहमति से किसी सिद्धान्त की स्थापना की जाती है तो वह सिद्धान्त स्थायी होकर प्रत्येक व्यक्ति के जीवन का अंग बन जाता है । जनतन्त्र द्वारा स्थापित समाजवाद, सम्भव है, विलम्ब से स्थापित हो किन्तु जब वह एक बार स्थापित हो जायगा तो वह स्थायो होकर आयेगा और प्रत्येक व्यक्ति के जीवन का एक अंग बन जायगा।
निष्कर्ष
समाजवाद आज का युग धर्म है। यदि वह जनतांत्रिक ढंग से स्थापित नहीं होता तो अन्ततोगत्वा किसी न किसी रूप से स्थापित अवश्य होगा। जनतांत्रिक प्रणाली के अभाव में, सम्भव है, उसकी स्थापना हिंसक ढंग से हो। वह इस देश के लिए और सम्पूर्ण संसार के लिए बड़ा ही दुखद और कष्टप्रद होगा। गरीब और अमीर का भेद मिटाना ही होगा। इस भेद को मिटाने का उपाय समाजवाद ही है । सम्भव है उसे कुछ लोग समाजवाद का नाम न देना चाहते हों। झगड़ा नाम का नहीं है, झगड़ा है जोवन प्रणाली और सामाजिक प्रणाली की स्थापना का। वे लोग जो देश और समाज में गरीब और अमीर का भेद मिटाकर एक ऐसी व्यवस्था की स्थापना करना चाहते हैं जिसमें सभी लोगों को समान सुविधाएँ उपलब्ध हों और सभी लोगों से यथाशक्ति कार्य लिया जायगा तो उन्हें किसी समाजवादी व्यवस्था की स्थापना की दिशा में सक्रिय प्रयास करना होगा।
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