Hindi Essay on "Reservation", "Aarakshan ek Abhishap", "आरक्षण एक समस्या पर हिंदी निबंध" for Students

आरक्षण एक समस्या पर हिंदी निबंध: इस लेख में हम पढ़ेंगे   आरक्षण से लाभ और हानि पर हिंदी निबंध जिसमें हम जानेंगे  आर्थिक आधार पर आरक्षण , &qu...

आरक्षण एक समस्या पर हिंदी निबंध: इस लेख में हम पढ़ेंगे आरक्षण से लाभ और हानि पर हिंदी निबंध जिसमें हम जानेंगे आर्थिक आधार पर आरक्षण, "आरक्षण के दुष्परिणाम", "आरक्षण के प्रकार" आदि।Hindi Essay on "Reservation", "Aarakshan ek Abhishap".

Hindi Essay on "Reservation", "Aarakshan ek Abhishap", "आरक्षण एक समस्या पर हिंदी निबंध" for Students

आरक्षण-अर्थात् स्थान सुरक्षित रखना, समाज के पिछड़े वर्गों को, निम्न जातियों के लोगों को सामाजिक सुरक्षा देने का प्रयास करना। उन्हें संविधान के स्तर पर आश्वासन देना कि तरह-तरह की रियायतें प्रदान करके सरकारी नौकरियों में उन्हें निश्चित संख्या में जगह दी जायेगी। सामान्य तौर पर आरक्षण या स्थान सुरक्षित रखने की इस बात को बुरा नहीं कहा जा सकता। समाज में जो लोग सामाजिक, आर्थिक या किसी भी दृष्टि से पिछडे हुए हैं, स्वतंत्र राष्ट्र में भी किसी प्रकार से अपने-आप को असुरक्षित मानते हैं, उनकी रक्षा होनी ही चाहिए। दूसरे वर्गों के लोगों को इस बात के लिए यदि कुछ नुकसान भी होता है, तो प्रसन्नता से उसे सहने के लिए तैयार रहना चाहिए। सरकारी तौर पर आर्थिक सुरक्षा और नौकरी आदि की गारण्टी स्वयं सरकार ही दे सकती है, इसलिए संविधान में कुछ संशोधन कर या अन्य प्रकार से स्थानों की सुरक्षा करती है, तो कुछ अनुचित नहीं। मानवता के नाते पिछड़े हुए वर्गों के मानवों का जिस तरह भी भला हो सके, होना ही चाहिए! आजकल सुरक्षा का वास्तविक अर्थ आर्थिक सुरक्षा ही है, अतः आर्थिक विकास कर प्रयास करना आरक्षण-व्यवस्था का मानवीय दृष्टि से अत्यन्त उज्ज्वल पक्ष कहा जा सकता है। इस दृष्टि से कहा जा सकता है कि आरक्षण आर्थिक पिछड़ेपन और सामाजिक विषमता से लड़ने का अच्छा तरीका है। यह होना ही चाहिए।

आरक्षण का यह उजला पक्ष मैला तब हो जाता है. जब इसे देने का आधार केवल आर्थिक पिछड़ापन न रहने देकर उसके साथ किसी या किन्हीं विशेष जातियों को भी जोड़ दिया जाता है। इस प्रकार की जाति-आधारित आरक्षण-नीति अपनाने या उसकी घोषणा करने का सबसे दुखद परिणाम यह निकला है कि स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद के इतने वर्षों में जाति-प्रथा का जो भूत अपने-आप ही बोतल में बन्द होता जा रहा था, उसे फिर से कूद या उछल कर बाहर आ जाने का अवसर दे दिया गया। यह एक यथार्थ है कि लोगों में उच्च-निम्न आदि वर्गों का कोई प्रत्यक्ष आधार, प्रत्यक्ष अहसास नहीं रह गया था। लोगबिना जाति पूछे आपस में मिलने, खाने-पीने लगे थे। लेकिन कुछ वोट की फसल काटने के इच्छुक तथाकथित जन-नेताओं ने जैसे ही कुछ विशेष जातियों के आर्थिक ऊँचे-नीच को सोचे या उनमें भी अगड़े-पिछड़े का भेद किये बिना, उनके लिए आरक्षण-नीति की घोषणा कर दी, तो लोग फिर से एक-दूसरे की जाति जानने की कोशिश करने लगे। जाति केआधार पर अपने व्यवहार और सोच बनाने लगे। यानि भूला-बिसरा जाति-पाँति और छुआछूतवाद फिर से याद आने लगा। फिर से जागकर लोगों में भेद-भाव की दीवारें खडी करने लगा। इस दृष्टि से जातिवादी चेतना का दुबारा जाग उठना आरक्षण-नीति का सबसे मैला या सबसे घृणित पक्ष कहा-माना जाता है। इसका समर्थन और घोषणा करने वालोंका यह सबसे बड़ा घटियापन भी स्वीकारा जाता है।

सामान्य आदमी भी जान और सोच सकता है कि स्वर्गीय जगजीवनराम पिछड़ी जाति के होते हुए भी समृद्ध थे। इसी प्रकार आजके कई नेता पिछड़ी जाति से आये हुए होते हुए भी लाखों-करोड़ों अगड़ी जाति वालों से उन्नत और सम्पन्न जीवन जी रहे हैं। हज़ारों ऐसे सरकारी अफसर हैं, जो इस पिछडे वर्ग के तो हैं, पर आर्थिक दृष्टि से उन्नत हैं। अब यदि जाति के आधार पर आरक्षण दिया जाता है; तो इस प्रकार के सभी लोग ही वास्तव में लाभ उठा पायेंगे; जिन तक उसका लाभ पहँचना चाहिए, इस प्रकार के लोगों ने उन तक न आगे पहुँचने दिया है, न अब ही पहुँचने देंगे! सो आरक्षण का वास्तविक उद्देश्य व्यर्थ होकर रह गया है, रह जायेगा। हुआ यह है कि इस प्रकार आरक्षण पाने वाले लोग आर्थिक उच्चता पाने के बाद अपने ही जाति-वर्ग के लोगों से घृणा करने लगे हैं। इस प्रकार की वस्तु-स्थितियों को आरक्षण-नीति का उजला पक्ष कैसे स्वीकारा जा सकता है? वास्तव में आरक्षण पिछड़ों को हमेशा पिछडेपन के भाव से भरे रहने, अपने को दूसरों से हीन मानते रहने की एक तरह की बाध्यता है।पराधीनों को पराधीन और परावलम्बी बनाये रखने की एक तरह की साजिश है! हीनता-भावजगाये रखकर किसी को उन्नत और विकसित नहीं किया जा सकता! पिछड़े कहे-समझे जाने वाली जातियों या वर्गों के जिन लोगों ने अपने को सम्पन्न और उन्नत बनाया है, उनमें आरक्षण का सहारा लेने वालों का वास्तविक प्रतिशत न्यूनतम है। प्रतियोगिता की भावना से, प्रतियोगिता में भाग लेकर ही वे आगे बढ़ पाये हैं, आरक्षण पाकर नहीं! 

स्कूलों-कॉलेजों में आरक्षित सीटों पर प्रवेश लेने वालों की सही स्थिति बड़ी ही दयनीय हुआ करती है। पैंतीस-चालीस प्रतिशत अंक होने पर भी उन्हें कॉलेजों में प्रवेश तो मिल जाता है, फीस आदि की माफी की सुविधा भी मिल जाती है, पर वे अन्य छात्रों के साथ चल नहीं पाते! दब्बू और दुबके हुए बनकर रह जाते हैं ! धीरे-धीरे एकदम निल हो जाते हैं। ऐसे छात्रों के कारण पूरी कक्षा का पास-प्रतिशत गिर जाता है। क्या ही अच्छा हो, यदि इन्हें योग्यता बढ़ाने जैसे तरीकों के लिए आरक्षण दिया जाये। इन्हें स्वस्थ प्रतियोगिता के लिए तैयार किया जाये। प्रतियोगिता की भावना इनके आत्मविश्वास को जगाकर अपने-आप ही प्रगति के मार्ग खोल देगी ! प्रतिशत या जातीयता के आधार पर इनमें जो हीनता और कण्ठा आ जाती है, वह नहीं आयेगी। अतः हमारे विचार में आरक्षण यदि कहींकरना आवश्यक ही है, तो बिना जातिवादी आधार के समस्त पिछड़े लोगों में केवल उनकीप्रतिभा और आत्मविश्वास जगाने के लिए किया जाये। उन्हें प्रतियोगिता के स्तर पर लाकरसंसार-सागर में धक्का दे दिया जाये कि जाओ अपनी बाँहों से तैर कर किसी किनारे लगनेकी कोशिश करो। हमें विश्वास है, देर-सवेर इस ढंग से जब वे किनारे लगेंगे, तो उनकाहौसला और स्वाभिमान ऊँचा होगा। उनमें दब्बूपन कतई नहीं रह गया होगा। आरक्षण काउजला पहलू इसी प्रकार उजागर हो सकता है।

ऊपर कहे गये आरक्षण को छोड़कर अन्य किसी तरह का आरक्षण होना ही नहींचाहिए। यदि वोटों के शिकारी नेतागण उसको अनिवार्य मानते हैं और मानते हैं कि आरक्षणके बिना उनका अपना गुजारा नहीं हो सकता, तो इसका वर्तमान आधार एकदम बदल देना,चाहिए। यानि जातिवाद के भूत को तो बोतल में बन्द करके किसी गहरे कुएं में फेंक देनाचाहिए, केवल आर्थिक विपन्नता या पिछड़ेपन को आरक्षण का आधार बनाना चाहिए! 

आर्थिक दृष्टि से पिछड़ा हुआ व्यक्ति ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, हरिजन, जनजाति, अनुसूचित जनजाति किसी का भी क्यों न हो, उसे नौकरियों में तथा अन्य सभी सम्भव आवश्यक तरीकों से आरक्षण मिलना ही चाहिए। भारतीय संविधान के अनुसार बिना किसी भेद-भाव के इसी प्रकार से सभी का उत्थान संभव हो सकता है ! सभी जातियों-वर्गों में गरीबी की मान्य और उससे भी नीचे रहने वाले परिवारों, लोगों की कमी नहीं। समय स्तर पर उन सभी का उत्थान आवश्यक है। अतः आरक्षण को यदि उत्थान की एक प्रक्रिया बनाना है,तो उसका आधार विशुद्ध मानवीय होना चाहिए, जातिवादी नहीं। जातिवादी जीवन-दृष्टि और जीवन-मूल्यों के दिन तो कब के लद गये। आज का युग मानवतावादी है। आज राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय जातिवाद को बात करना हमारी राष्ट्रीय अस्मिता और बुद्धिवाद के बौनेपन का ही प्रतीक माना जायेगा!

मानव होने के नाते सभी एक समान है। हमारा संविधान भी यही कहता है और आजका मानवतावाद भी। अतः आरक्षण के वास्तविक उद्देश्य को पूरा करने, उसके उजले पक्ष को और उजला बनाने के लिए आवश्यक है कि ऊपर जिन मैले-अँधेरे पक्षों की चर्चा की गयी है, उन्हें जड़-मूल से मिटा दिया जाये!

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