Hindi Essay on “Bura Jo Dekhan Main Chala Bura na Milya Koi”, “बुरा जो देखन मैं चला बुरा न मिलिया कोय हिंदी निबंध”, for Class 6, 7, 8, 9, and 10, B.A Students and Competitive Examinations.
बुरा जो देखन मैं चला बुरा न मिलिया कोय हिंदी निबंध
"बुरा जो देखन में चला" यह भारत के मध्यकालीन निर्गुणवादी और ज्ञानमार्गी परम सन्त कबीर की उक्ति है। उनके जीवन-अनुभवों का सारतत्त्व है। वास्तव में बुराई क्या है और उसका वास कहाँ रहता है, इसी तथ्य को उन्होंने अपने अनुभव के आधार पर इस उक्ति में प्रगट किया है।
किंवदंती प्रसिद्ध है कि एक बार कबीर जी तीर्थ यात्रा को जा रहे थे। मार्ग में एक स्थान पर लोगों की भीड़ लगी हुई थी और वे लोग हो-हल्ला कर रहे थे। कबीर जी हो-हल्ला का कारण जानना चाहा। पास जाकर वे देखते क्या हैं कि लोगों ने एक साधारण नागरिक को घेर रखा है और उसे बुरी तरह पीट रहे हैं। कबीर जी ने एक से पूछा-"भाई, बात क्या है ?" उत्तर में बीसियों आवाजें गरज उठीं। एक ने कहा-"महात्मा जी, यह चोर है।" दूसरे ने कहा-"यह विश्वासघाती है, इसने अपने स्वामी के घर में चोरी की है।" तीसरे ने कहा-"जिस थाली में खाता है, उसी में छेद करता है।" चौथे ने कहा-"महा अन्धेर है, कलियुग आ गया है।" पाँचवें ने कहा-“देखते क्या हो, जूतों की मार से इसकी खोपड़ी गंजी कर दो।” बस, फिर क्या था वे सभी उस बेचारे नागरिक पर टूट पड़े। चूंसों और लातों की वर्षा करने लगे। वह चीखने-चिल्लाने लगा।
यह सब देख-सुन अनुभवी कबीर जी बोले-"ठहरो । यह सत्य है कि इस व्यक्ति ने चोरी की है, अतः इसे दण्ड मिलना चाहिए। किन्तु एक शर्त है । इसे दण्ड देने का अधिकार केवल उसी व्यक्ति को है, जिसने स्वयं कभी चोरी न की है ।" यह सुनते ही गाँव वालों को काठ मार गया। एक-एक करके सब चुपके से अपने-अपने घर को चलते बने। केवल एक दर्शक शेष रह गया। उसने कबीर जी से प्रार्थना की-"महात्मन आपने तो अपने जीवन में कभी चोरी नहीं की. अतः आप ही इसे दण्ड दीजिए।" कबीर जी बोले-"अरे, मैं भी सभी की तरह चोर हूँ।” फिर कबीर जी यह गुनगुनाते हुए एक ओर चल दिये-
“बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न दीखा कोय।
जो मन देखा आपना, मुझसे बुरा न कोय।”
अपने व्यवहार और कथन से कबीर जी वस्तुतः जीवन का एक बहुत बड़ा सत्य प्रगट कर गये। सन्त जन ऐसे ही सत्य का, अच्छाई का प्रतिपादन किया करते हैं। 'छाज तो बोले सो बोले, पर छलनी क्या बोले जिसमें नौ सौ छेद।' दूसरों को बुरा वह कहे जो स्वयं भला है। जो स्वयं भला है. वह क्यों लगा किसी को बरा कहने। भला बुराई खोजने से भलाई थोड़े ही हाथ लगेगी। बल्कि आत्मा में पाप का उदय होगा, हृदय में ईर्ष्या जगेगी. मन में अभिमान उठेगा। दूसरों को नीचा दिखाकर स्वयं श्रेष्ठ बनने की दुर्भावना उत्पन्न होगी. वह निन्दा करेगा. चगली खायेगा। इधर तो उसकी जिह्वा अपवित्र होगी, उधर सूनने वालों की दष्टि में भी वह गिर जायेगा। कोई कहेगा-“आज यह उसकी निन्दा कर रहा है, कल हमारी करेगा-दीया तले अँधेरा है।" ऐसी स्थिति में किसी को यह अधिकार नहीं मिल जाता कि वह दसरों को बुरा कहे। वस्तुतः पहले अपने मन को शुद्ध करने की जरूरत हुआ करती है। मन भला तो जग भला।
क्षमा सन्तों की रीति है. किन्तु असन्तों की रीति इससे सर्वथा विपरीत हुआ करती है। बुरा जो देखन चले' उनकी दुनिया में कमी नहीं। सास बहू की बुराई देखती है, तो बहू सास की। चोर साह को बरा कहता है, साहू चोर को। मज़दूर के लिए मालिक बुरा है, मालिक के लिए नौकर। मकान मालिक से पूछो तो कहेगा, किरायेदार सबसे बुरा है। किरायेदार की सुनो तो कहता है, मकान-मालिक से बुरा और कोई है ही नहीं। इस प्रकार बुराई का अन्त नहीं। अपनी बुराई न देख, सभी उसे दूसरों पर थोप कर सुर्खरू हो जाना चाहते हैं। बस, मूल समस्या यही है।
स्त्रियों का तो प्राय: मनोरंजन ही है दूसरों के मीन-मेख निकालना। चूल्हे-चौके से निपटीं नहीं कि आँगन में मुँह जोड़कर जा बैठेंगी। दृष्टि उनकी बहुत पैनी होती है, पड़ोसिन के तिल-बराबर दोष भी देख लेंगी, पर अपने ताड़-बराबर दोष भी उन्हें दिखाई न देंगे। दृष्टि पैनी और जबान गज़ भर से भी लम्बी। मुँह पर तो प्रशंसा के इतने पुल बाँधेगी कि उनका शब्द-कोष भी समाप्त हो जायेगा। पीठ-पीछे उसकी बुराई करेंगी, तो मुँह के सामने इसकी चुगली खायेंगी-"अमुक महिला तुम्हारे विषय में यों कहती थी।" उधर की बराई इधर और इधर की बुराई उधर करके भी स्वयं वे दूध की धुली देवी के समान बचकर साफ-साफ निकल जाने का प्रयास करेंगी। स्त्रियाँ मन्दिर में हों, कथा-सत्संग में बैठी हों, अर्थी के साथ चल रही हों या पनघट से पानी भरकर ला रही हों, उनके मनोरंजन के विषय होंगे-लांछन, ताने, शिकायतें, सास और बहू की नोंक-झोंक, किसी न किसी की चुगली और निन्दा। यह विडम्बना ही है कि उनका यह स्वभाव प्रकृति की देन माना जाता है।
पुरुषों द्वारा परछिद्रान्वेषण अर्थात् दूसरों के दोष देखने-निकालने का केन्द्र होता है उनका कार्यालय ! जहाँ भी दफ्तर के दो-चार बाबू मिल बैठे, तो साहब की आलोचना करेंगे। चाय के समय उनकी दोष-बुद्धि विशेष रूप से उग्र हो जाती है। चपरासियों से लेकर अपने सेक्शन अफसर, निदेशक, मंत्री, यहाँ तक कि सरकार और विदेशी राष्ट्रों के शासन भी उनके कटु आक्षेपों से नहीं बच सकते । परन्तु अपना अन्तर झाँककर देखने का कष्ट उनमें से कोई कभी नहीं उठाता। पराई निन्दा-चुगली करते रहना व्यक्ति की हीनता की परिचायक बहुत बड़ी बुराई है।
कभी अफसरों की कानाफूसी छिपकर सुन देखियेगा। कानों में यही शब्द गूंजने लगेग-"ये क्लर्क तो मुफ्त की खाते हैं. मानो सरकार के दामाद हों ! सुबह पहुँचे। तो लेट, काम करने को दिया तो जेब में हाथ डाले बैठे रहते हैं। निठल्ले बैठे रहेंगे पर आवश्यक काम को छुयेंगे भी नहीं। निठल्लेपन की हद हो गयी । कामचोरी करते हुए इन्हें लाज भी नहीं आती। कुछ लिखते नज़र आएंगे। पास जाकर देखो तो व्यक्तिगत पत्र लिख रहे होंगे। इधर मझे देखो. प्रातः घर से जल्दी आता हूँ, दिन-भर आप लोग देखते ही हैं कि काम के कारण सिर खुजलाने का भी फर्सत नहीं मिलती। फिर सायंकाल भी देर तक बैठा काम करता रहता हूँ ! बस, विभाग का काम चल रहा है, तो केवल मेरे सिर पर । शेष सब, ऊपर से लेकर नीचे तक कामचोर इकट्ठे हो गये हैं। इस प्रकार परनिन्दा ही सभी का पेशा बनकर रह गया है। मज़ाल है कि छोटा-बड़ा कभी भी कोई अपने मन में भी झाँककर देखे ! कभी अपनी बुराइयाँ भी गिने!
यदि कोई जी-जान लगाकर काम करता है, तो वह भी साथियों के व्यंग्यबाणों का शिकार हुए बिना नहीं रहता-"हाँ, हाँ, तरक्की लेने की तैयारियां हो रही हैं। भई, बड़े अधिकारियों की चाटुकारिता करनी सीखनी हो तो महाशय 'क' से सीखिए ! काम खाक करता है। बस दिन-भर साहब के आगे-पीछे चक्कर लगाता रहेगा। भई, ऐसे सरकार के शुभचिन्तक दो-चार यहाँ आ गये, तो हमें तो जवाब मिल जायेगा नौकरी से!”
राजनीति में पर-दोष-दर्शन एक सफल कला मानी गयी है। उसका चमत्कार देखना हो तो देखिए चुनाव के दिनों में, जब राजनीतिक दल बढ़-बढ़ कर झूठ बोलते हैं, बढ़-चढ़कर एक-दूसरे पर कीचड़ उछालते हैं, पगड़ी उछालते हैं, अपमानित करते हैं। संसदों और विधान-सभाओं में भी अब यही कुछ होने लगा है। परिणामस्वरूप अनन्त वैज्ञानिक प्रगतियों के बावजूद भी बेचारी नैतिकता के लिए विश्व में कहीं कोई ठौर-ठिकाना नहीं, कि जहाँ वह बैठ सके!
इस प्रकार सारी दुनिया 'बुरा देखन चली' और उसे दुनिया में सब बुरे दिखायी दिये। यह कैसे सम्भव है कि भगवान् की सारी सृष्टि में दोष भरे हों और केवल निर्दोष बचे रहे तो पराये दोष देखने वाले ही! दोष को दोष कहते समय हमारा दृष्टिकोण मधुरात्मक होना चाहिए। यदि हम लोगों के दोष दूर करने के लिए ऐसा करते हैं, तो हमें दोषों के साथ उनके गुण भी देखने चाहिए। इसी का नाम आलोचना है। यदि किसी को उसके दोष सद्भावना से गिनायेंगे तो वह मान जायेगा और अपना सुधार करने का यल करेगा, अन्यथा वह चिढ़ेगा और लड़ेगा। और अधिक बरे कर्म करने लगेगा!
इस प्रकार ‘पर उपदेश चतुर बहुतेरे।' ऐसे लोग बहुत कम होते हैं, जो प्रतिदिन सोने से पहले अपनी दिनचर्या का विश्लेषण करते हैं कि आज मुझसे कौन-कौन-सी भूलें हुई। वे अनुभव करते हैं, कि 'जो मन खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय ।' वे अपनी भूलों को डायरी में लिखते हैं, उनका विश्लेषण और प्रायश्चित्त भी किया करते हैं। पुनः प्रात: उठकर वे सतर्क रहने का निश्चय करते हैं कि जो भूलें मुझसे कल हुई थीं, मैं आज नहीं करूंगा। इसे ही आत्मचिन्तन या आत्मविश्लेषण कहते है। इसके द्वारा मनुष्य दोषों से मुक्त होकर उस स्थिति में पहुँच जाता है कि 'बुरा जो देखन वे चले बुरा न दीखा कोय।' यदि सभी इस प्रकार आत्मालोचन करने लगें, तो निश्चय ही संसार से बुराई का अन्त हो सकता है। आज यों तो प्रत्येक व्यक्ति के लिए, पर राजनीतिज्ञों के लिए आत्मालोचन की विशेष आवश्यकता है। ऐसा करके ही वे लोग देश का सही नेतृत्व और विकास कर सकते हैं। अपनी बुराइयों से छुटकारा ही पूरे जीवन-समाज के अच्छे बनने की शर्त है।
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