Hindi Essay on Samrath ko Nahi Dosh Gosain समरथ को नहीं दोष गोसाईं हिंदी निबंध "गोस्वामी तुलसीदास ने अपनी रचना 'रामचरितमानस' के किसी पात्र के मुख से कहलवाया है: -समरथ को नहीं दोष गोसाईं अर्थात् समर्थ व्यक्ति उचित-अनुचित जो कुछ भी करता है,वही नियम और परम्परा बन जाया करता है । कोई भी उसमें दोष नहीं निकाल सकता और उसके कार्यों के आगे प्रश्न-चिह्न भी नहीं लगा सकता। एक कहावत अक्सर आम लोग बोलते या कहा करते हैं दुनिया झुकती है, झुकाने वाला चाहिए। झुकाने का अर्थ अपने अधीन बनाना, वश में या काबू करना है। यह सब वही कर सकता है, जिसमें सामर्थ्य अर्थात् शक्ति हो। जीवन और समाज में यदि कोई शासन करता है, तो समर्थ या शक्तिशाली ही किया करता है।"
Hindi Essay on “Samrath ko Nahi Dosh Gosain”, “समरथ को नहिं दोष गोसाईं हिंदी निबंध”
सारांश : गोस्वामी तुलसीदास ने अपनी रचना 'रामचरितमानस' के किसी पात्र के मुख से कहलवाया है: -समरथ को नहिं दोष गोसाईं अर्थात् समर्थ व्यक्ति उचित-अनुचित जो कुछ भी करता है,वही नियम और परम्परा बन जाया करता है । कोई भी उसमें दोष नहीं निकाल सकता और उसके कार्यों के आगे प्रश्न-चिह्न भी नहीं लगा सकता।
निबंध
एक कहावत अक्सर आम लोग बोलते या कहा करते हैं दुनिया झुकती है, झुकाने वाला चाहिए। झुकाने का अर्थ अपने अधीन बनाना, वश में या काबू करना है। यह सब वही कर सकता है, जिसमें सामर्थ्य अर्थात् शक्ति हो। जीवन और समाज में यदि कोई शासन करता है, तो समर्थ या शक्तिशाली ही किया करता है। प्रकृति का नियम भी यही है कि जो दुर्बल और असमर्थ होता है, वह बच नहीं पाता। प्रकृति स्वयं ही उसे नष्ट हो जाने दिया करती है। मानव-समाज में भी ठीक यही नियम चलता आ रहा है। यहाँ भी दुर्बल और असमर्थ किसी क्षेत्र में टिक नहीं पाता। हालात उसे क्षीण करके नष्ट हो जानेके लिए मजबूर कर दिया करते हैं। इसी कारण शक्तिशाली और समर्थ बनने की बात कही जाती हैं।
शक्ति या सामर्थ्य दो प्रकार की होती है। एक शरीर की शक्ति और दूसरी मन तथा आत्मा की शक्ति । इनमें से एक शक्ति का होना ही उचित या लाभदायक नहीं माना जाता। दोनों का रहना आवश्यक कहा गया है। केवल शरीर की शक्ति ही अनर्थ और बुराइयों का कारण बन जाया करती है, जबकि केवल मन और आत्मा की शक्ति व्यवहार के स्तर पर व्यर्थ होकर रह जाया करती है। यह ठीक है कि मन और आत्मा की शक्ति का महत्त्व अधिक होता है, पर इनका जोर या प्रभाव हमेशा नहीं चल पाया करता । जो हो, जो शक्तिशाली और समर्थ है, दुनिया उसी के आगे झकती है, उसी का कहना माना करती है। वास्तव में कुछ कर भी वही सकता है, जिसके पास सामर्थ्य हो । वह किसी का हक दिला भी सकता है. लोगों को कष्ट दे भी सकता है, दूर भी कर सकता है। वह यदि कुछ अनुचित भी करता है, तब भी कोई उसे कुछ नहीं कह सकता। उसका कोई कुछ बिगाड़ भी नहीं सकता। इस बिगाड़ पाने की असमर्थता का ध्यान करते हुए ही शायद गोस्वामी तुलसीदास ने अपनी रचना 'रामचरितमानस' के किसी पात्र के मुख से कहलवाया है: -समरथ को नहीं दोष गोसाईं अर्थात् समर्थ व्यक्ति उचित-अनुचित जो कुछ भी करता है,वही नियम और परम्परा बन जाया करता है । कोई भी उसमें दोष नहीं निकाल सकता और उसके कार्यों के आगे प्रश्न-चिह्न भी नहीं लगा सकता।
समर्थों का दोष न देने, उनका प्रतिकार न करने की भावना और प्रक्रिया ने ही इस प्रवृत्ति और कहावत को जन्म दिया होगा कि “बड़ी मछली छोटी मछली को निगल या खा जाती है। प्रकृति में तो ऐसा ही होता है, हम मनुष्यों के समाज में भी आरम्भ से ही यही नियम चला आ रहा है। यहाँ भी बड़ी मछली अर्थात् समर्थ और शक्तिशाली व्यक्ति छोटी मछलियों अर्थात् कमज़ोर और असमर्थ लोगों को निगलते या समाप्त करते आ रहे हैं। प्रकृति और समाज में शरू से ही यह नियम चला आ रहा है कि जिस को लाठीउसकी भैंस।' आज यही सब चल रहा है. इस पर भी लाठी के बल पर दूसरों की भैस हाँककर ले जाने वालों, अर्थात् समर्थों को कोई दोष नहीं दिया जाता। दोष देकर भी उनका कोई कुछ बिगाड़ नहीं पाता! आज भी सच्चाई पर कायम रहने वाला असमर्थ ही पिस रहा है। रिश्वत, काला-बाज़ार जैसे भ्रष्टाचार करने वाले छुट्टे घूम रहे हैं, जबकि महंगाई की मार से आम आदमी पिस रहा है। सरकारें ऐसे लोगों के सामने असमर्थ है। सभी प्रकार के नियम-कानून भी समर्थों के लिए कोई अर्थ या महत्त्व नहीं रखते! उनकी मार भी केवल असमर्थों और गरीबों को ही झेलनी पड़ती है। गुनहगार समर्थ हमेशा से बेगुनाह माने जाकर आदर पाते रहे हैं, आज भी पा रहे हैं।
‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’, ‘छोटी मछली बड़ी मछली से निगली जाती है’जैसीकहावतें तो 'समरथ को नहीं दोष गोसाई' कहावत का अर्थ प्रकट करती ही हैं, जीवन मेंइस बात की सार्थकता या व्यापकता की तरफ भी संकेत करती हैं। 'गरीब की जोरू सबकी भाभी' जैसी कहावतें भी इसी मानसिकता को प्रकट करने वाली हैं। गरीब असमर्थ होता है, इस कारण लोग उसकी जोरू अर्थात् इज्ज़त के साथ खेलने या उसका मज़ाक उड़ाने से बाज नहीं आया करते! यही बात है कि 'समरथ को नहीं दोष गोसाई' की कहावत निराशा के स्वर में कही गयी प्रतीत होती है। इसमें छिपा अर्थ और भाव भी असमर्थ और लाचार व्यक्तियों की निराशा को ही प्रकट करने वाला है। मध्ययुग की मानसिकता को उजागर करता है।
आज का प्रगतिवादी, वैज्ञानिक, अपने को आधुनिक कहने वाला समाज यद्यपि इस प्रकार की कहावतों, इनमें छिपी मानसिकता और प्रवृत्तियों पर विश्वास नहीं करता, वह मानव-अधिकारों की रक्षा की बात कहता और करता है, पर वह सब केवल कागज़ी रूप और स्तर पर ही है। वास्तव में आज भी मानव-जीवन और समाज में ‘समर्थ-असमर्थ’वाला जंगली कानून ही लागू है। जब तक हम प्रयत्न करके अपने आप को समर्थ मानने वालों की प्रवृत्ति और मानसिकता को नहीं बदल डालते. तब तक गरीब की जोरू को सबकी भाभी बनी रहना पड़ेगा, लाठी वाले दूसरों की भैंसें हाँककर ले जाते रहेंगे। सब-कुछदेख-सुनकर भी लाचारी के भाव से हम कहने को विवश रहेंगे कि-समरथ को नहीं दोष गोसाईं।
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