बंटी की उलझन कहानी : बंटी की उलझन महान साहित्यकार मन्नू भण्डारी के उपन्यास आपका बंटी से ली गयी है। आज शिक्षित पति-पत्नी अपने दाम्प...
बंटी की उलझन कहानी : बंटी की उलझन महान साहित्यकार मन्नू भण्डारी के उपन्यास आपका बंटी से ली गयी है। आज शिक्षित पति-पत्नी अपने दाम्पत्यजीवन की समस्याओं का हल तलाक में देखते हैं, परंतु इसमें सबसे ज्यादा पीड़ा भोगते हैं, उनके निर्दोष बच्चे। शकुन और अजय पढ़े-लिखे हैं। साथ नहीं रह पाये। परंतु उनके बेटे बंटी को दोनों चाहिए। माँ और पिता के बीच झूलते बंटी की वेदना जहाँ हमें छू जाती है, वहाँ हमें तलाक के बारे में नये सिरे से सोचने को बाध्य भी करती है।
बंटी की उलझन कहानी : आपका बंटी - मन्नू भण्डारी
आज पापा आनेवाला है। दस बजे बंटी को सरकिट हाउस पहुँच जाने को लिखा है। मम्मी है कि पता नहीं कैसा मुँह लिए घूम रही है। न हँसती है, न बोलती है। बस गुमसुम। इस बार वकील चाचा के जाने के बाद से ही मम्मी ऐसी हो गई है। वकील चाचा भी एक ही हैं बस। खुद तो बोल-बोलकर ढेर कर देंगे और मम्मी बेचारी की बोलती बंद कर जाएँगे। पता नहीं क्या हो गया है मम्मी को ? उसे देखना शुरू करेंगी तो देखती ही रहेंगी, ऐसे मानो उसके भीतर कुछ ढूँढ़ रही हों। रात को कहानी भी नहीं सुनाती। ज्यादा कहो तो कह देती है, 'सो जा, कल सुनाऊँगी।' वह तो सो ही जाता है पर मम्मी को ऐसा करना चाहिए ?
उस दिन रात में पता नहीं, कब बंटी की नींद खुल गई। देखा, दूर पेड़ के नीचे कोई खड़ा है। डर के मारे उससे तो चीखा तक नहीं गया था, बस साँस जैसे घुटकर रह गई थी। और वे मम्मी निकली। उसके बाद कितनी देर तक मम्मी उसे थपकाती रही, दिलासा देती रही, पर भीतर दहशत जैसे जमकर बैठ गई थी। आधी रात को ऐसे कहीं घूमा जाता होगा ? चाचा जो कह गये थे गड़बड़ होने की बात। वह बिलकुल ठीक है। जरूर कुछ गड़बड़ हुआ है। मम्मी पहले तो ऐसी नहीं थी। पर वह क्या करे ? मम्मी जब चुप-चुप हो जाती है तो उसका मन बिलकुल नहीं लगता।
परसों ही तो पापा की चिट्ठी आई थी। लिफाफे पर मम्मी का नाम लिखा था। पिछली बार तो लिफाफे पर भी उसका नाम था। अंदर भी दो कागज निकले, एक मम्मी खुद पढ़ने लगी, दूसरा उसे पकड़ा दिया। तो क्या मम्मी के पास भी पापा की चिट्ठी आई है ? मम्मी-पापा क्या दोस्ती करनेवाले हैं ? उसने अपनी चिट्ठी पढ़ ली और फिर मम्मी की ओर ध्यान से देखने लगा। मम्मी क्या खुश नजर आ रही है ? कहीं कुछ नहीं, बस वैसे ही चुप बैठी है, मानो पापा की कोई चिट्ठी ही नहीं आई हो। एक बार उसकी चिट्ठी पढ़ने तक के लिए नहीं माँगी। पिछली बार तो केवल उसी के पास चिट्ठी आई थी और उसे पढ़कर ही मम्मी कितनी प्रसन्न हुई थीं। पापा के पास भेजने से पहले उसे अपनी बाँहों में भरकर इतना प्यार किया था, इतना प्यार किया था मानो वह कहीं भागा जा रहा हो। और जब वह लौटकर आया था तो मम्मी उससे सवाल पर सवाल पूछे जा रही थीं.... और क्या कहा और क्या कहा'....के मारे परेशान कर दिया था।
मम्मी से छिपकर उसने मम्मीवाला पत्र उठाकर देखा, घसीटी हुई अंग्रेजी की चार-छः लाइनें थीं, वह कुछ भी समझ नहीं सका। उसका पत्र हिन्दी में था और बड़े-बड़े साफ अक्षरों में।
परसों रात को जब वह सोया तो बराबर उम्मीद कर रहा था कि मम्मी जरूर पहले की तरह प्यार करेंगी, कुछ कहेंगी। पर उन्होंने कुछ नहीं कहा, सिर्फ पूछा, 'तू जाएगा पापा के पास ?' यह भी कोई पूछने की बात थी भला। पापा आ रहे हैं और वह जाएगा नहीं ? उसके बाद मम्मी बोली नहीं।
इस समय मम्मी उदास बिलकुल नहीं हैं। मम्मी की उदासी वह खूब पहचानता है। बिना आँसू के भी आँखें कैसी भीगी-भीगी हो जाती हैं।
अच्छा है, बैठी रहें ऐसी ही। वह तब पापा के पास जाकर खूब घूमेगा, चीजें खरीदेगा, हाँ, नहीं तो।।
वह जल्दी-जल्दी तैयार हो रहा है और मन ही मन कहीं उन चीजों की लिस्ट तैर रही है जो उसे माँगनी है। कैरम बोर्ड जरूर लेगा, एक व्यू मास्टर भी।।
'दूध-दलिया खा लो।' फूफी अलग ही अपना मुँह फुलाये घूम रही हैं। पिछली बार भी पापा आये थे तो यह ऐसे ही भन्ना रही थी, जैसे इसकी भी पापा से लड़ाई हो।
'मैं नहीं खाता दुध-दलिया। बस रोज सड़ा-सा दुध-दलिया बनाकर रख देती है।'।
'बंटी, क्या बात है ?' कैसी सख्त आवाज़ में बोल रही है मम्मी। बंटी भीतर ही भीतर सहम गया। धीरे से बोला, 'हमें अच्छा नहीं लगता दूध-दलिया।'
'क्यों, दूध-दलिया तो तुझे खूब पसंद है। एक दिन भी न बने तो शोर मचा देता है। आज ही क्या बात हो गई ?' 'पसंद है तो रोज-रोज वही खाओ, एक ही चीज बस। मैं नहीं खाता।'
'देख रही हूँ जैसे-जैसे तू बड़ा होता जा रहा है, वैसे ही वैसे जिद्दी और ढीठ होता जा रहा है। अच्छा है, भद्द उड़वा सबके बीच मेरी।'
कैसे बोल रही है मम्मी। इसमें भद्द उड़वाने की क्या बात हो गई। वह नहीं खाएगा दूध-दलिया, बिना नाश्ता किये ही चला जाएगा।
वह मेज से उठ गया तो मम्मी ने एक बार भी नहीं कहा कि कुछ और बना दो। न कहें, उसका क्या जाता है ?
हीरालाल को कल ही कह दिया था कि ठीक नौ बजे आ जाना। साढ़े नौ बज रहे हैं पर उसका पता नहीं। बंटी बेचैनी से इधर-उधर घूम रहा है। थोड़ी-थोड़ी देर में घड़ी देख लेता है। मम्मी किताब लेकर ऐसे बैठ गई है, जैसे समय का उन्हें कुछ होश ही नहीं हो। वह बताये कि साढ़े नौ बज गये। पर क्या फायदा, कह देंगी, 'अभी आता होगा।'
वह सब समझता है। अब उतना बुद्ध नहीं है। मम्मी को शायद अच्छा नहीं लग रहा है कि बंटी पापा के पास जा रहा है। पर क्यों नहीं लग रहा है ? उसकी तो पापा से लड़ाई नहीं है। पर ऐसा होता है शायद।
एक बार क्लास में विभु से उसकी लड़ाई हो गई थी तो उसने अपने सब दोस्तों की विभु से कुट्टी नहीं करवा दी थी ? शायद मम्मी भी चाहती हैं कि वह भी पापा से कुट्टी कर ले। तो मम्मी उससे कहतीं। अच्छा मान लो मम्मी उससे कहतीं तो वह कुट्टी कर लेता? और उसके मन में न जाने कितनी चीजें तैर गईं - कैरम बोर्ड, व्यू मास्टर, मैकेनो, ग्लोब...
तभी हीरालाल की छोटी लड़की आई, 'बापू को ताव चढ़ा है, वे नहीं आ सकेंगे।'
'क्या हो गया ?' मम्मी की आवाज में जरा भी परेशानी नहीं है। हाँ, उनका क्या बिगड़ता है। वे तो चाहती ही है कि मैं नहीं जाऊँ। मैं जरूर जाऊँगा, चाहे कुछ भी हो जाये।
'भोत जोर का ताप चढ़ा है, सीत देकर। वे तो गूदड़े ओढ़कर पड़े हैं, मुझे इत्तिला देने को भेजा है।' और वह चली गई।
'अब ?' बंटी रोने-रोने को हो आया।
मम्मी एक क्षण चुप रहीं। फिर फूफी को बुलाकर कहा तो फूफी अलग मिजाज दिखाने लगी, 'बहूजी, मैं नहीं जाऊँगी वहाँ।'
'क्यों ? बस तुम ही मुझे छोड़कर आओगी।' बंटी फूफी का हाथ पकड़कर झूल आया, 'जल्दी चलो, अभी चलो।'
'छोड़ आओ फूफी, वरना कौन ले जाएगा ?' कैसी ठण्डी-ठण्डी आवाज में बोल रही हैं। जैसे कहना है इसलिए कह रही है बस। ले जाये, न ले जाये, कोई फरक नहीं पड़ेगा।
फूफी एकदम बिफ़र पड़ी, 'कोई नहीं है ले जानेवाला तो नहीं जाएगा। मिलने की ऐसी ही बेकली है तो खुद आकर ले जाएँगे। इस घर में आ जाने से तो कोई धरम नहीं बिगड़ जाएगा। आप जो चाहे सजा दे लो बहूजी, मैं वहाँ नहीं जाऊँगी। मुझसे तो आप जानो...'
और बड़बड़ाती हुई फूफी चली गई। मम्मी ने कुछ भी नहीं कहा। मम्मी का अपना काम होता तो कैसे बिगड़ती। अब फूफी को कहो न कि बिगड़ती जा रही है, ढीठ होती जा रही है। बस डाँटने के लिए मैं ही हूँ। ठीक है कोई मत ले जाओ मुझे। और बंटी एकदम वहीं पसरकर रोने लगा।।
'रो क्यों रहा है ? यह भी कोई रोने की बात है भला ? ठहर जा, कालेज के माली को बुलवाती हूँ।'।
मम्मी माली को समझा रही है, 'देखो, कह देना कि आठ बजे तुम लेने आओगे, इसलिए जहाँ कहीं भी हों, आठ बजे तक सरकिट हाउस पहुँच जायें। तू भी कह देना रे। आठ से देर नहीं करें, समझे !' कैसी सख्त-सख्त आवाज में बोल रही हैं, एकदम प्रिंसिपल की तरह।
रास्ते भर बंटी सोचता गया कि बहुत सारी बातें हैं जो वह पापा से पूछेगा। मम्मी से पूछी नहीं जाती। कभी शुरू भी करता है तो या तो मम्मी उदास हो जाती हैं या सख्त। उदास मम्मी बंटी को दुःखी करती हैं और सख्त मम्मी उसे डराती हैं। और इधर तो मम्मी को पता नहीं क्या कुछ होता जा रहा है। पास लेटी मम्मी भी उसे बहुत दूर लगती है। उसके और मम्मी के बीच में जरूर कोई रहता है। शायद वकील चाचा की कही हुई कोई बात, शायद कोई गड़बड़ी। उसे कोई कुछ नहीं बताता, वह अपने-आप समझे भी क्या ? मम्मी की बात तो पापा से भी नहीं पूछी जा सकती है।
पर एक बात वह जरूर पूछेगा कि क्या तलाकवाली कुट्टी में कभी अब्बा नहीं हो सकती ? अगर पापा भी साथ रहने लगें तो कितना मजा आये। पर ऐसी बात पूछने पर पापा ने डाँट दिया तो ?
पापा बाहर ही मिल गये। बंटी देखते ही दौड़ गया और पापा ने उठाकर छाती से लगा लिया, 'बंटी बेटा !' और दोनों गालों पर ढेर सारे किस्सू दे दिये।
शाम को तांगे में बिठाकर पापा ने उसे घुमाया। आइसक्रीम खिलाई, चाट खिलाई। गन्ने का रस पिलाया। बंटी सोच रहा था कि पापा शायद कुछ चीजें और दिलवायेंगे। लेकिन उन्होंने कुछ नहीं दिलवाया तो बंटी को थोड़ीसी निराशा हुई। पर फिर भी उससे माँगा नहीं गया। खा-पीकर, घूम-फिरकर शाम को वे लोग वापस आ गये। तांगे से उतरकर बंटी भीतर जाने लगा कि एकदम पापा की चिल्लाहट सुनाई दी। मुड़कर देखा। पापा तांगेवाले को डाँट रहे थे। पता नहीं तांगेवाले ने क्या कहा कि पापा और जोर से चिल्लाये, 'झूठ बोलते हो ? घड़ी देखकर तांगा किया था। मैं एक पैसा भी ज्यादा नहीं दूंगा।'।
बंटी सहमकर जहाँ का तहाँ खड़ा हो गया।
तांगेवाले ने कुछ कहा और कूदकर तांगे से नीचे उतर आया। पापा एकदम चीख पड़े, 'यू शट अप ! जबान संभालकर बात करो। जितना रहम खाओ उतना ही सिर पर चढ़े जा रहे हैं, जूते की नोक पर ही ठीक रहते हैं ये लोग...' पापा का चेहरा एकदम सुर्ख हो रहा था और आँखों से जैसे आग बरस रही थी। बंटी की साँस जहाँ की तहाँ रुक गई। चपरासी और दरबान ने बीच-बचाव करके तांगे को रवाना किया।
पापा अभी भी जैसे हाँफ रहे थे और बंटी सहमा हुआ था। उसने पापा को कभी गुस्सा होते हुए तो देखा ही नहीं। एकाएक खयाल आया, कभी इसी तरह उस पर गुस्सा हों तो ? वह भीतर तक काँप गया। एकाएक उसे बड़ी जोर से मम्मी की याद आने लगी। अब वह एकदम मम्मी के पास जाएगा। माली आया या नहीं ?
तभी चपरासी ने कहा, 'बाबा को लेने के लिए आदमी आया था। आधा घंटे तक बैठा भी रहा, अभी-अभी गया है, बस आपके आने के पाँच मिनट पहले ही।'।
बंटी की आँखों में आँसू आ गये। किसी तरह उन्हें आँखों में ही पीता हुआ वह बड़ी असहाय सी नज़रों से पापा की ओर देखने लगा। मन में समाया हुआ एक अनजान डर जैसे फैलता ही जा रहा था।
पापा ने एक बार घड़ी की तरफ नज़र डाली, 'चपरासी चला गया तो ? यह भी अच्छा तमाशा है, घड़ी देखकर घर में घुसो। जो समय उधर से दिया गया है उसी में घूमो-फिरो और लौट आओ। नोंनसेंस !'
एकाएक ही बंटी की छलछलाई आँखें बह गईं। पता नहीं माली के लौट जाने की बात सुनकर या कि पापा का गुस्सा देखकर या कि इस भय से कि पापा कहीं रात में यहीं रहने को न कह दें। दो दिन से पापा को लेकर जो उत्साह मन में समाया हुआ था, वह एकदम बुझ गया और सामने खड़े पापा उसे निहायत अजनबी और अपरिचित से लगने लगे।
'अरे तुम रो क्यों रहे हो ? रोने की बात क्या हो गई ?' 'माली चला गया, अब मैं घर कैसे जाऊँगा ?' सिसकते हुए बंटी ने कहा। 'पागल कहीं का। यहाँ क्या जंगल में बैठा है ? मैं नहीं हूँ तेरे पास ?' 'मम्मी के पास जाऊँगा।' रोते-रोते ही बंटी ने कहा।। 'हाँ-हाँ, तो मैंने कब कहा कि मम्मी के पास नहीं जाओगे।' 'पर माली तो चला गया ?' 'चला गया तो क्या ? मैं तुम्हें छोड़कर आऊँगा, बस।'
बंटी ने ऐसे देखा जैसे विश्वास नहीं कर रहा हो। कहीं उसे बहका तो नहीं रहे। अभी चुप करने के लिए कह दें और फिर कहने लगे कि सो जाओ।
पापा ने पास आकर उसका माथा सहलाया, गाल सहलाये, तो टूटा विश्वास जैसे फिर जुड़ने लगा। पापा फिर अपने लगने लगे।
'पागल कहीं का। इतना बड़ा होकर रोता है मम्मी के लिए।' तो अँसुवाई आँखों से ही बंटी हँस दिया। भीतर ही भीतर बड़ी शर्म भी महसूस हुई अपने ऊपर। सचमुच उसे इतनी जल्दी रोना नहीं चाहिए। बच्चे रोया करते हैं बात-बात पर वह तो अब बड़ा हो गया है। अब कभी नहीं रोएगा इस तरह।
बंटी पापा के साथ तांगे में बैठा तो मन एकदम हल्का होकर दूसरी ओर को दौड़ गया। पापा को देखकर मम्मी को कैसा लगेगा ? एकदम खुश हो जाएँगी। वह खींचकर पापा को अंदर ले जाएगा और मम्मी का हाथ, पापा का हाथ मिला देगा - चलो कुट्टी खत्म। फिर मम्मी और वह मिलकर पापा को जाने ही नहीं देंगे। सोते, घूमते-फिरते कितनी बार मन हुआ था कि मम्मी की बात करे। पापा से सब पूछे, जो मम्मी से नहीं पूछ पाता है। पर पापा का चेहरा देखता और बात भीतर ही घुमड़कर रह जाती। पर पापा को साथ लाकर और दोस्ती की बात सोच-सोचकर उसका मन थिरकने लगा।
जाने कैसे-कैसे चित्र आँखों के सामने उभरने लगे। पापा, मम्मी और वह घूमने जा रहे हैं। पापा उसके साथ खेल रहे हैं। वह पापा के साथ मिलकर मम्मी को चिढ़ा रहा है या कभी मम्मी के साथ मिलकर पापा को।
अजीब-सा उत्साह है जो मन में नहीं समा रहा है। कहानियों के न जाने कितने राजकुमार मन में तैर गये, जो अपनी अपनी माँ के लिए समुद्र तैर गये थे या पहाड़ लाँघ गये थे। वह भी किसी से कम नहीं है। माँ के लिए पापा को ले आया। अब दोस्ती भी करवा देगा। वरना कोई ला सकता था पापा को ? अब चिढ़ाये फूफी कि बंटी लड़की है। अब मम्मी कभी उदास नहीं होंगी। लेटे-लेटे छत या आसमान नहीं देखेंगी। टीटू की अम्मा यह नहीं पूछेगी, 'आते हैं तुम्हारे पापा यहाँ ?'
उसने बड़े थिरकते मन से पापा की ओर देखा। पापा एकदम चुप क्यों हैं ? अंधेरे में चेहरा ठीक से नहीं दिखाई दे रहा है। वह चाहता है पापा कुछ बोलते चलें, कलकत्ता चलने की बात ही कहें या कि उसे लड़कोंवाले खेल खेलने की बात ही कहें, पर कुछ तो कहें। बोलते हुए पापा उसे अपने बहुत पास लगने लगते हैं। चुप हो जाते हैं तो लगता है जैसे पापा कहीं दूर चले गये। जैसे उसके और पापा के बीच में कोई और आ गया।।
उसी निकटता को महसूस करने के लिए उसने अनायास ही पापा का हाथ पकड़ लिया।।
पर पापा हैं कि बिलकुल चुप। पापा की चुप्पी से बंटी के मन में अजीब तरह की बेचैनी घुलने लगी। कहीं दोस्ती की बात करते ही पापा चिल्लाने लगें आँखें लाल-लाल करके तो? पापा का वही चेहरा उभर आया। ऐसे चिल्लाते होंगे तभी शायद मम्मी ने कुट्टी कर ली होगी। बंटी ने फिर एक बार पापा की ओर देखा। अंधेरे में पापा का चेहरा दिखाई नहीं दे रहा।
'बस, बस यही घर है, बाईं तरफवाला।' कालेज के पास आते ही तांगा थम गया था। बंटी ने कहा तो तांगेवाले ने बाईं तरफ को लगा दिया।
बंटी ने हाथ और कसकर पकड़ लिया। हाथ पकड़े-पकड़े ही वह तांगे से नीचे उतरा और एक तरह से पापा को खींचता हुआ गेट की तरफ चला। उसे लग रहा था कि यदि उसकी पकड़ जरा भी ढीली हुई तो पापा छूटकर चल देंगे।
सड़क पर से वह चिल्लाया, 'मम्मी, पापा आये हैं !'
लोन में से एक छायाकृति तेज-तेज कदमों से फाटक की ओर आई। फाटक खुला और मम्मी सामने आ खड़ी हुई। मम्मी को देखते ही बंटी का हौसला बढ़ गया। लगा जैसे वह अपनी सुरक्षित सीमा में आ गया है। पापा के हाथ को पूरी तरह खींचता हुआ बोला, 'भीतर चलिए न पापा ? मैं अपना बगीचा दिखाऊँगा। मोगरा खूब फूला है।'
पर मम्मी और पापा जहाँ के तहाँ खड़े हुए हैं, चुप और जड़ बने हुए।
'मैंने आदमी भेजा था। आपको शायद लौटने में देर हो गई। सो वह राह देखकर चला आया। आपको तकलीफ करनी पड़ी।'
'कोई बात नहीं।' बंटी ने चौककर पापा की ओर देखा। यह पापा बोले थे ?
एकदम बदला हुआ स्वर। न प्यारवाला, न गुस्सेवाला। पता नहीं उस स्वर में ऐसा क्या था कि बंटी की पकड़ ढीली हो गई। फिर भी उसने कहा, 'पापा, एक बार भीतर चलिए न। मम्मी, तुम कहो न।' बंटी रुआँसा हो गया।
'कुछ देर बैठ लीजिए। बच्चे का मन रह जाएगा।' मम्मी कैसे बोल रही है ? किसी को ऐसे कहा जाता होगा ठहरने के लिए ?
'रात हो गई है, फिर लौटने में बहुत देर हो जाएगी।'
'इसी तांगे को रोक लीजिए, अभी कहाँ देर हुई है, चलिए न।' हाथ पर झूलते हुए बंटी ने पापा को भीतर खींच ही लिया। पापा भीतर आये। लॉन में ही मम्मी-पापा आमने-सामने कुर्सी पर बैठ गये। बंटी पुलकित। उसे समझ नहीं रही कि क्या करे और कैसे करे।
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