मूल्यवृद्धि अथवा महँगाई की समस्या पर निबंध
प्रत्येक स्थिति और अवस्था के दो पक्ष होते हैं, पहला–आन्तरिक और दूसरा बाह्य। बाह्य स्थिति को तो मनुष्य कृत्रिमता से सुधार भी सकता है, परन्तु आन्तरिक स्थिति के बिगड़ने पर मनुष्य का सर्वनाश ही हो जाता है। देश की आन्तरिक स्थिति धन-धान्य और अन्न-वस्त्र पर निर्भर करती है। आज मानव-जीवन के दैनिक उपयोग में आने वाली वस्तुओं की मूल्यवृद्धि (बढ़ी हुई कीमतें) देश के सामने सबसे बड़ी समस्या है। समस्त देश का जीवन अस्त-व्यस्त हुआ जा रहा है। उत्तरोत्तर वस्तुओं के मूल्य बढ़ते जा रहे हैं, अत: जीवन-निर्वाह भी आज के मनुष्य के समक्ष एक समस्या बनी हुई है। रुपये की कोई कीमत ही नहीं रही, भाव कई गुना बढ़ गये हैं, गरीब और मध्यम श्रेणी के व्यक्तियों के लिये जीवनयापन दूभर हो गया है। यही कारण है कि अभाव और असंतुष्ट जीवन की अपेक्षा मानव मृत्यु का वरण करना अधिक श्रेयस्कर समझता है।
अर्थशास्त्रियों के अनुसार, जब उत्पादन बढ़ता है, तब वस्तु का मूल्य कम हो जाता है। सरकार कहती है कि हमारा उत्पादन बढ़ा है, सरकारी आँकड़े भी यह बताते हैं कि उत्पादन बढ़ रहा है, परन्तु वस्तु के मूल्य आठ गुने और दस गुने हो गये, यह बड़ी आश्चर्यजनक बात लगती है। आज का एक रुपया सन् 1940 के पाँच पैसे और सन् 1947 के दस पैसे के बराबर है। निश्चय ही कपड़ा, सीमेंट, लोहा, इस्पात, कागज आदि अन्य वस्तुओं का उत्पादन कई गुना बढ़ा है, हमारी 10 पंचवर्षीय योजनाओं के द्वारा देश की उत्पादन-क्षमता हर क्षेत्र में बढ़ी है, फिर भी यदि आप इनमें से कोई वस्तु खरीदने जायें तो पहले तो मिलेगी ही नहीं और यदि मिल भी गई तो उन भावों पर, जिन पर आपको खरीदने के लिये कई बार सोचना पड़ेगा। अर्थशास्त्र के विद्वानों के अनुसार, देश में इस समय खाद्यान्न उत्पादन में 60% की वृद्धि हुई तथा भूमि का मूल्य भी बहुत बढ़ा है। जीवन की अन्य आवश्यक वस्तुओं के मूल्यों में भी कल्पनातीत वृद्धि हुई है, रुपया अवश्य ऐसा है, जिसके मूल्य में वृद्धि के स्थान पर ह्रास हुआ है । माचिस पहले एक पैसे की आती थी, अब 20 पैसे की और कहीं-कहीं तीर्थ स्थानों में 50 पैसे की भी कठिनाई से मिलती है। जो साबुन पहिले बारह पैसे का आता था अब आठ रुपये का आता है, जो जूता तीन, चार रुपये का आता था अब वह 700 और 1000 रुपये की आता है। जो कपड़ा पचास और साठ पैसे प्रति मीटर आता था वही 20 और 30 रुपये मीटर आता है। जो घी 1 रु० में एक सेर आता था आज 180 रुपये किलो है। सोना जो 1945 में 20 रुपये प्रति तोला था आज 10,000 प्रति 10 ग्राम है। कहने का तात्पर्य है कि कोई भी वस्तु ऐसी नहीं, जो सस्ते मूल्य पर बाजार में मिल सके।
प्रश्न उठता है कि इस अव्यवस्था का क्या कारण है? क्या देश में मूल्यों पर नियन्त्रण करने वाला कोई नहीं ? बिना नाविक की सी नाव, जिधर पानी के थपेड़े बहाये लिये जा रहे हैं। उधर ही वह सामाजिक अव्यवस्था की नौका बही चली जा रही है। आजकल समाज की कुछ ऐसी हालत है कि जिसके मन में जो आ रहा है, वही कर रहा है। अपने को पूर्ण स्वतन्त्र समझता है। किन्तु बात ऐसी नहीं है, दीर्घकालीन परतन्त्रता के बाद, हमें अपना देश बहुत ही जर्जर हालत में मिला है, हमें नये सिरे से सारी व्यवस्था करनी पड़ रही है, नई-नई योजनायें बनाकर अपने देश को संभालने में समय लगता ही है, कुछ लोग इस स्थिति का लाभ उठाने का प्रयत्न करते हैं, जिसके कारण सबको हानि उठानी पड़ती है। सरकार इस विषय में सतत् प्रयास कर रही है, काले धन की भी इस देश में कमी नहीं है, उस धन से चोर बाजारी से, लोग मनमानी मात्रा में वस्तु खरीद लेते हैं और फिर मनमाने भावों पर बेचते हैं, अतः निहित स्वार्थ वाले जमाखोरों, मुनाफाखोरों और चोरबाजारी करने वालों के एक विशेष वर्ग ने समाज को भ्रष्टाचार का अड्डा बना रखा है। उन्होंने सामाजिक जीवन को तो दूभर बना ही दिया, राष्ट्रीय और सामाजिक जीवन को भी दूषित कर दिया है। समूचे देश के इस नैतिक पतन ने ही आज मूल्य-वृद्धि की भयानक समस्या खड़ी कर दी है। मुनाफे के आगे, आज न परिचय रहा, न सम्बन्ध रहा और न रिश्तेदारी ही रही। यह तो रहा मूल्यवृद्धि का मुख्य कारण, इसके साथ-साथ अन्य कई कारण और भी हैं, जो उचित हैं—राष्ट्र की आय का साधन विभिन्न राष्ट्रीय उद्योग एवं व्यापार ही होते हैं। देश की उन्नति के लिये विगत सभी पंचवर्षीय योजनाओं में बहुत-सा धन लगा, कुछ हमने विदेशों से लिया और कुछ देश में से ही एकत्र किया, छोटे सरकारी कर्मचारियों के वेतन बढ़े, पड़ौसी शत्रुओं से देश की सीमाओं की रक्षा के लिए सुरक्षा पर अधिक व्यय करना पड़ा, दिसम्बर 1971 में पाकिस्तान से युद्ध करना पड़ा, बंगला देश के एक करोड शरणार्थियों पर करोड़ों रुपयों व्यय करना पड़ा, उसके बाद एक लाख युद्ध-बन्दियों पर 1973 के अन्त तक पूरे दो वर्ष करोड़ों रुपयों का व्यय और इन सबके ऊपर देश के विभिन्न भागों में सूखा और बाढों का प्राकृतिक प्रकोप आदि बहुत-सी बातें ऐसी हैं, जिन पर हमने अपनी शक्ति से अधिक धन लगाना पड़ा और लगा रहे हैं। सरकार के पास यह धन कर के रूप में जनता से ही आता है। इन सबके परिणामस्वरूप मूल्य बढे।
आज जनता में असंतोष बहुत बढ़ गया है। देश के एक कोने से दूसरे कोने तक मूल्य-वृद्धि से लोग परेशान हैं। सरकार के विरोधी दल इस स्थिति से लाभ उठा रहे हैं। कहीं वे मजदूरों को भड़काकर हड़ताल कराते हैं, तो कहीं मध्यम वर्ग को भड़काकर जुलूस और जलसे करते हैं, जो बात जितनी नहीं है वह उससे अधिक बढ़ा-चढ़ाकर कही जाती है, अधिकांश भोली जनता को उन बातों का विश्वास होता है। वर्तमान मूल्यवृद्धि की समस्या को रोकने का एकमात्र उपाय यही है कि जनता का नैतिक उत्थान किया जाये। उसको ऐसी नैतिक शिक्षा दी जाये, जिसका उसके हृदय पर प्रभाव हो। बिना हृदय परिवर्तन के वह समस्या सुलझने की नहीं, अपना-अपना स्वार्थ-साधन ही आज प्रायः प्रत्येक भारतीय का प्रमुख जीवन-लक्ष्य बना हुआ है। उसे न राष्ट्रीय भावना का ध्यान है और न देश-हित का। इसके लिये यह परमावश्यक है हो जाता है कि उसे उच्चकोटि की नैतिक शिक्षा दी जाए, जिससे उसका कलुषित हदय पवित्र हो और व्यक्तिगत स्वार्थ की अपेक्षा वह राष्ट्रहित और देश-हित को सर्वोच्च समझे। दूसरा उपाय है, शासन का कठोर नियन्त्रण। जो भी भ्रष्टाचार को मिलावट करे या ज्यादा भाव में सामान बेचे उसे कठोर दण्ड दिया जाये। जिस अधिकारी का आचरण भ्रष्ट पाया जाये, उसे नौकरी से हटा दिया जाये या फिर कठोर कारावास दिया जाये, इस प्रकार घुस-खोरी समाप्त हो सकती है। आप जानते हैं कि बिना टेढी उंगली किये तो घी भी नहीं निकलता, फिर यह तो 100 करोड़ जनता का शासन रहा। मूल्यवृद्धि के सम्बन्ध में जनसंख्या की वृद्धि या जीवन-स्तर आदि कारण भी महत्त्वपूर्ण है।
वर्तमान मूल्य वृद्धि पर हर स्थिति में नियन्त्रण लगाना होगा। इसके लिए सरकार भी चिन्तित है और बड़ी तत्परता से इसके रोकने का उपाय सोचे जा रहे हैं, परन्तु उन्हें कार्य रूप में परिणत करने का प्रयत्न ईमानदारी से नहीं किया जा रहा है। पिछले वर्षों में दिल्ली और बड़े-बड़े शहरों में कितने लाख मन छिपा हुआ अन्न गोदामों में बन्द पकड़ा गया जबकि देश में अन्न के लिये त्राहि-त्राहि मची हुयी थी। हमें ऐसी प्रवत्ति को रोकने में सरकार की भी मदद करनी है और स्वयं का भी आचरण शुद्ध करना चाहिये। वास्तविकता यह है कि यदि सरकार देश की स्थिति में सुधार और स्थायित्व लाना चाहती है, तो उसे अपनी नीतियों में कठोरता और स्थिरता लानी होगी तभी वर्तमान मूल्य-वृद्धि पर विजय पाना सम्भव है अन्यथा नहीं।
वर्तमान में भ्रष्टाचार और अनाचार भारतीय समाज का पर्याय बन गया है। आर्थिक विषमतायें दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही हैं। भ्रष्टाचार मुक्त क्षेत्र ढूंढ पाना लगभग असंभव हो गया है। उचित-अनुचित का विचार प्रायः लुप्त हो रहा है। धन की उपलब्धता सुगम हो रही है अतः मूल्यों पर अंकुश लगाना संभव नहीं हो पा रहा है। यदि मूल्यवृद्धि इसी गति से बढ़ती रही तो समाज में अराजकता फैलने में देर नहीं लगेगी। अतः आवश्यक है कि राष्ट्र के खेवनहार निःस्वार्थ ही नहीं निष्पक्ष होकर आर्थिक नीतियों का निर्माण करें और उनके कार्यान्वयन में किसी प्रकार की ढील न हो। भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाना सबसे बड़ी चुनौती है। योजनाओं का सफल कार्यान्वयन नितान्त आवश्यक है। आयात हतोत्साहित हो तथा निर्यात को प्रोत्साहन दिया जाये। शिक्षा प्रभावी हो तथा रोजगारपरक हो, जनसंख्या वृद्धि पर प्रभावी रोक लगे तथा बेरोजगारी दूर हो। ये सभी उपाय मूल्यवृद्धि को रोकने में किसी न किसी प्रकार कारगर सिद्ध होंगे।
इस दिशा में सरकारी प्रयत्नों को और गति देने की आवश्यकता है, जिससे शीघ्र ही जनता को सुख-सुविधायें मिल सकें। यदि देश में अन्न-उत्पादन इसी गति से होता रहा और जन-कल्याण के लिये शासन का अंकुश कठोर न रहा और जनता में जागरूकता न रही तो मूल्य वृद्धि को कोई रोक नहीं सकता और परिणाम यह होगा कि गरीब सब्जी से रोटी नहीं खा सकेगा क्योंकि 16 रुपये किलो जहाँ टमाटर होगा और 12 रुपये किलो आलू होगा, 40 रुपये किलो दालें होंगी और दैनिक वेतन होगा मात्र 100 रुपये और रोजगार मिलेगा वर्ष में 100 दिन तब उस देश का क्या होगा।
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