भारत में महिला सशक्तिकरण की आवश्यकता और वास्तविकता : महिला सशक्तिकरण” की सर्वाधिक सामान्य व्याख्या है किसी भी महिला द्वारा अपने कार्यों पर पूर्ण नियंत्रण रखने की क्षमता। भारत में महिला साशक्तिकरण की नीति की विचारधारा और परम्परा में विद्यमान विसंगति ही अविछिन्न सामाजिक, आर्थिक और सामाजिक पिछड़ेपन के लिए उत्तरदायी हैं। यदि महिलाएं शिक्षित, बेहतर जानकार होंगी और तर्कसंगत निर्णय लेंगी तो सशक्तिकरण और प्रासंगिक हो जाएगा। यह महिलाओं के प्रति पुरुषजाति को जागरूक बनाने के लिए भी आवश्यक है। जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में महिलाओं की भूमिका के संबंध में सामाजिक मनोदशा और अवबोधन में परिवर्तन लाना जरूरी है। कार्यों के पारंपरिक लिंग विशिष्ट निष्पादन के क्षेत्र में समायोजन किया जाना चाहिए।
भारत में महिला सशक्तिकरण की आवश्यकता और वास्तविकता : निबंध
भारत सरकार ने नई सहस्राब्दि का शुभारंभ वर्ष 2001 को महिला सशक्तिकरण के वर्ष के रूप में घोषित करके किया ताकि एक ऐसे दृष्टिपटल पर ध्यान संकेन्द्रित किया जा सके ‘जब महिलाओं को पुरुषों के समान ही अधिकार मिलें।’ मानव संसाधन विकास मंत्री ने यह घोषणा की (महात्मा गांधी के विचार का समर्थन करते हुए): “जब तक भारत की महिलाएं आम जन जीवन में भाग नहीं लेंगी तब तक इस देश का उद्धार नहीं हो सकता।”
“महिला सशक्तिकरण” की सर्वाधिक सामान्य व्याख्या है किसी भी महिला द्वारा अपने कार्यों पर पूर्ण नियंत्रण रखने की क्षमता। विगत पांच दशक हमारे समाज में महिलाओं की स्थिति और भूमिका में हुए कुछ आधारभूत परिवर्तनों के साक्षी रहे हैं। नीतिगत दृष्टिकोण जिसने स्तर के दशकों में कल्याण की संकल्पना और अस्सी के दशकों में विकास की संकल्पना पर बल दिया अब नब्बे के दशकों में सशक्तिकरण की ओर अभिमुख हो गई है। सशक्तिकरण की इस प्रक्रिया में तब और तेजी आई जब महिलाओं के कुछ वर्गों में पारिवारिक और आम जनजीवन के कई क्षेत्रों में उसके साथ होने वाले भेदभाव के प्रति उनमें अधिकाधिक जागरूकता पैदा हुई। वे ऐसे मुद्दों पर भी स्वयं को एकजुट करने में समर्थ है जो उनकी समग्र स्थितिको प्रभावित कर सकते हैं।
इन सभी उपायों के बावजूद यह सपष्ट है कि विगत दशकों में महिलाओं की स्थिति और दयनीय हुई है। ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी ये सब निंदा के अधिकारी तुलसी का यह दोहा, जो रामायण में उल्लिखित है, ऐसे भेदभाव और गहरे लैंगिक पक्षपात को उजागर करता है जो अब भी जाति, समुदाय, धार्मिक मान्यतओं और वर्ग के आधार पर सभी क्षेत्रों में विद्यमान है। भारत का संविधान महिलाओं को जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में समानता का अधिकार प्रदान करता है। फिर भी महिलाएं बड़ी संख्या में या तो इस अधिकार से वंचित हैं अथवा ऐसी स्थिति में नही हैं कि वे अपनी परंपरागत असंतोषजनक सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों से स्वयं को निकल सकें। वे गरीब, अशिक्षित होती हैं और अभावों में पली होती हैं। वे प्राय: परिवार को भौतिक तथा भावनात्मक रूप से कायम रखने के संघर्ष से ही संलिप्त रहती हैं और जैसे कि नियम है उनकी गृह कार्य के अतिरिक्त अन्य मामलों में रुचि लेने के लिए हिम्मत नहीं बढ़ाई जाती है।
महिलाओं पर होने वाले अत्याचार और निर्दयता आज भी जोरों पर है। भारत के अनेक भागों में आज भी सामाजिक व्यवस्था में पितृसत्ता गहराई हुई है, जो अधिकांश महिलाओं को अपने इच्छानुसार जीवन जीने की चाह से वंचित करती है। किसी भी पितृ सत्तात्मक व्यवस्था में समुदाय का अभिभावी महत्व यह सुनिश्चित करता है कि सामुदायिक मुद्दों में स्त्रियों को विरले ही स्वतंत्र रूप से अधिकार प्राप्त हो। कन्या भ्रूण हत्या आज भी आम बात है। सांख्यिकीय आंकड़े दर्शाते हैं कि उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, पंजाब इत्यादि जैसे राज्यों में आज भी लड़के जन्म को उच्च प्राथमिकता दी जाती है। इन राज्यों में पुरुष-महिला अनुपात अत्यधिक उच्च है। घरेलू हिंसा भी व्यापक रूप से फैली हुई है और यह दहेज के साथ भी संबद्ध है। भारतीय महिलाएं आज भी सामाजिक न्याय की गुहार लगा रही हैं।
महिला सशक्तिकरण हेतु सरकार द्वारा स्वयंसिद्ध, स्त्रीशक्ति, बालिका समृद्धि योजना जैसे चलाए गए विभिन्न कार्यक्रमों और अन्य दो हजार परियोजनाओं की समीक्षा से यह व्यक्त होता है कि इन कार्यक्रमों में बहुत कम कार्य किया गया है और बहुत कम ही उपलब्धि हासिल की गई है। इसके अतिरिक्त सरकार की वैश्वीकरण की नीतियां महिलाओं को गरीबी रेखा से नीचे धकेल रही हैं। भारत में महिला साशक्तिकरण की नीति की विचारधारा और परम्परा में विद्यमान विसंगति ही अविछिन्न सामाजिक, आर्थिक और सामाजिक पिछड़ेपन के लिए उत्तरदायी हैं। हमारे देश की जनसंख्या में 52 प्रतिशत महिलाएं हैं अत: तब तक कोई भी प्रगति नहीं हो सकती जब तक कि उनकी आवश्यकताओं और हितों के सर्वथा पूर्ति नहीं होगी। सशक्तिकरण का तब तक कोई अर्थ नहीं होगा जब तक कि समाज में उनकी समान स्थिति के प्रति उन्हें समर्थ, सतर्क और जागरूक नहीं बनाया जाता। नीतियों को इस प्रकार बनाना चाहिए जिससे कि वे उनको (महिलाओं) समाज की मुख्य धारा में लाने में सहायक सिद्ध हो सकें। महिलाओं को शिक्षित करना महत्वपूर्ण है। पुरुष साक्षरता दर, जोकि 63.8 प्रतिशत है, की तुलना में महिला साक्षरता दर जो कि 39.42 प्रतिशत है अत्यधिक कम है। महिला साक्षरता में सुधार करना ही समय की मांग है क्योंकि शिक्षा ही विकास में सहायक होती है।
यदि महिलाएं शिक्षित, बेहतर जानकार होंगी और तर्कसंगत निर्णय लेंगी तो सशक्तिकरण और प्रासंगिक हो जाएगा। यह महिलाओं के प्रति पुरुषजाति को जागरूक बनाने के लिए भी आवश्यक है। जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में महिलाओं की भूमिका के संबंध में सामाजिक मनोदशा और अवबोधन में परिवर्तन लाना जरूरी है। कार्यों के पारंपरिक लिंग विशिष्ट निष्पादन के क्षेत्र में समायोजन किया जाना चाहिए। एक महिला का शारीरिक रूप से स्वस्थ्य होना आवश्यक होता है ताकि वह समानता की चुनौतियां का मुकाबला कर सके। लेकिन इसका बहुसंख्यक महिलाओं, मुख्यता ग्रामीण क्षेत्रों की महिलाओं, में अत्यधिक अभाव है। उनकी आधारभूत स्वास्थ्य संसाधनों तक असमान पहुंच है और उन्हें समुचित परामर्श नहीं मिलता है।
इसका परिणाम अवांछित और समय पूर्व गर्भधारण एचआईवी संक्रमण और अन्य यौन संचारित रोगों के अत्यधिक खतरे के रूप में निकलता है। सबसे बड़ी चुनौती उन अड़चनों को पहचानने की है जो उनके अच्छे स्वास्थ्य के अधिकार के मार्ग में खड़ी हैं। परिवार, समुदाय तथा समान के प्रति उपयोगी सिद्ध होने के लिए महिलाओं को स्वास्थ्य परिचर्या सुविधाएं आवश्यक मुहैया कराई जानी चाहिए।
अनेक महिलाएं कृषि क्षेत्र में घरेलू फार्मों पर कामगारों अथवा वेतन भोगी कामगारों के रूप में कार्य करती है। आज भी कृषि में स्पष्टत: जीविका की है जो हाल के वर्षों में क्षणिक तथा असुरक्षित हो गई है और इसलिए महिला कृषकों पर इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ा है। गरीबी उन्मूलन करने के लिए चलाई गई सरकारी नीतियां किसी भी तरह के वांछनीय परिणाम प्राप्त करने में असफल रही हैं क्योंकि महिलाओं को अपने श्रम का उचित वेतन नहीं मिलता है। घरेलू कामकाज में भी महिलाओं से अत्यधिक बेगार अथवा गैर-विक्रयार्थ श्रम लिया जाता है। शहरों क्षेत्रों में वेतन में लैंगिक असमानता अत्यधिक दृष्टिगोचर है क्योंकि यह विभिन्न और कम वेतन वाले कार्यकलापों में महिलाओं के रोजगार में सहायक है। उन्हें पुरुषों के समान ही उपयुक्त वेतन और कार्य दिया जाना चाहिए ताकि समाज में उनकी स्थिति में उत्थान हो सके। हाल के वर्षों में राजनीतिक भागीदारी में महिलाओं की संख्या बढ़ाने के लिए स्पष्ट कदम उठाए गए हैं। तथापि, महिला आरक्षण नीतिगत विधेयक की बहुत ही खेदजनक कहानी है क्योंकि इसे संसद में बारंबार पेश किया जा रहा है। तथापि पंचायती राज व्यवस्था में महिलाओं को राजनीतिक सशक्तिकरण के एक प्रतीक के रूप में प्रतिनिधित्व दिया गया है। ग्राम परिषद स्तर पर अनेक निर्वाचित महिला प्रतिनिधियां हैं। तथापि उनकी शक्तियां सीमित कर दी जाती हैं क्योंकि सारी शक्तियां पुरुषों के पास ही होती हैं। प्राय: उनके निर्णय सरकारी तंत्र द्वारा अस्वीकृत कर दिए जाते हैं। इन महिला नेताओं को प्रशिक्षित करना और वास्तविक शक्तियां प्रदान करना अति महत्वपूर्ण है ताकि वे अपने गांवों में महिलाओं से संबंधित परिवर्तनों को उत्प्रेरित कर सके। ये सभी बातें ये दर्शाती हैं कि लैंगिक समानता और महिला सशक्तिकरण की प्रक्रिया सभी को अभी लंबा सफर तय करना है और यह भी हो सकता है कि हाल के वर्षों में इसमें और अधिक कठिनाई आए।
इस विरोधाभास का मुख्य कारण यह है कि लक्षित योजनाएं केवल तब सीमित प्रभाव ही डालती हुई प्रतीत होती हैं जब विकास का आधारभूत ध्यान-क्षेत्र औसत महिलाओं तक नहीं पहुचता है जिससे उसका जीवन और अधिक दुर्बल और अतिसंवेदनशील बन पाता है। कोई भी सकारात्मक परिवर्तन करने के लिए प्रत्येक गांव और शहर में मूलभूत अवसरंचना प्रदान की जानी चाहिए। सर्वप्रथम, सुरक्षित पेयजल जलापूर्ति आर बेहतर स्वच्छता प्रदान करने से न केवल महिलाओं के जनजीवन स्वास्थ्य में प्रत्यक्षत: सुधार होता है। अपितु ऐसी सुविधाएं प्रदान करने और सुनिश्चित करने के संदर्भ मे उनका कामकाज भी कम हो जाता है। एक वहनीय भोजन बनाने के ईंधन की सुलभता के ईंधन की लकड़ी की तलाश में कोसों दूर जाने की आवश्यकता कम हो जाती है। परिवहन के उन्नत साधन, जो गांवों को एक दूसरे स्थान पर लाने-लेजाने में लगने वाली बेगार श्रम अवधि में भी उन्नयन कर सकते हैं। इससे व्यापक वस्तुओं तथा सेवाओं तक पहुंच भी सुगम हो सकती है। साथ ही स्वास्थ्य सेवाओं तक बेहतर पहुंच को सुगम बनाया जा सकता है। खाद्य सब्सिडी संबंधी व्यय तथा सार्वजनिक वितरण सेवाओं हेतु बेहतर प्रावधान करने से उचित संपोषण के संदर्भ में महिलाओं तथा बालिकाओं को जीवन पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है। सरकार द्वारा संसाधन जुटाने संबंधी पैटर्नों का भी महिलाओं पर अर्थपूर्ण प्रभाव पड़ता है जिनकी प्राय: पहचान नहीं हो पाती है। जब कर हृासमान होते हैं और उपभोग वाली मदों पर विलोमानुपाती ढंग से आरोपित किए जाते हैं तो पुन: इनसे महिलाओं पर अत्यधिक प्रभाव पड़ता है। यह न केवल इसलिए होता है कि ऐसी मदों के उपभोग में कमी लाई जाती है बल्कि इस कारण भी होता है कि ऐसी मदों की व्यवस्था करना अक्सर घरेलू महिलाओं की जिम्मेवारी समझी जाती है। साथ ही बचत योजनाएं लघु उद्यमों हेतु क्रेडिट के प्रवाह में कमी लाती है जिससे महिलाओं के नियोजन संबंधी अवसरों में कमी आती है। महिला-अनुकूल आर्थिक नीतियां कार्यान्वित करने की आवश्यकता है ताकि महिलाओं की आर्थिक तथा सामाजिक स्थिति में उत्थान हो सके तथा अत्म-निर्भर बन सकें।
इस तथ्य में काई संदेह नहीं है कि आजादी के समय से ही नियोजन का संकेन्द्रण सर्वदा महिलाओं के विकास पर रहा है। सशक्तिकरण इस दिशा में एक प्रमुख कदम है किन्तु इसे संबंधात्मक परिप्रक्ष्य में देखा जाना है। महिलाओं के उत्थान के मार्ग की बाधाओं को हटाने के लिए सरकार तथा स्वयं महिलाओं के लिए एक स्पष्ट दृष्टिकोण की आवश्यकता है। प्रत्येक स्तर की भारतीय महिला के समग्र विकास के लिए महिालाओं को उनकी देय हिस्सेदारी प्रदान करके प्रयास किए जाने चाहिए।
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