भारत में खाद्य सुरक्षा बिल एवं संरक्षण पर निबंध
भूखे भजन न होय गोपाला ।
पहले अपनी कण्ठीमाला ।।
किसी ने ठीक ही कहा है भूखे पेट तो ईश्वर का
भजन भी नहीं होता, फिर विकास, उन्नति व तकनीकी की बात करना या सोचना स्वयं को अंधेरे में रखने जैसा
है। वर्तमान में स्थितियां ठीक ऐसी ही हैं क्योंकि आज भी विश्व के लगभग 87 करोड़
लोग भूखे रहने को मजबूर हैं। भारत सहित अन्य विकसितशील देशों की स्थिति बेहद
चिंताजनक है। इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए भारत सरकार ने देश की दो-तिहाई
जनसंख्या को ‘खाद्य सुरक्षा’ सुनिश्चित
की है। ‘सुरक्षा’से तात्पर्य है- खतरे
या चिंता से मुक्ति। अत: खाद्य सुरक्षा हमारी खाद्य और पोषण की सुरक्षा की
आशावादी स्थिति मुहैया करती है। सभी लोगों को सदैव भोजन की उपलब्धता, पहुंच और उसे प्राप्त करने की क्षमता ही खाद्य सुरक्षा है।
भोजन मानव की मूलभूत आवश्यकताओं में से एक है
और इसी कारण भोजन के मानव अधिकार को संयुक्त राष्ट्र के अंतर्राष्ट्रीय कानून
(1999) के विभिन्न अभिकरणों में मान्यता दी गई है। वैश्विक स्तर पर भी खाद्य
सुरक्षा किसी न किसी रूप में विद्यमान की गयी है। इसका एक अच्छा उदाहरण है
ब्राजील द्वारा चलाया गया ‘फोम जीरो’
या ‘जीरो हंगर प्रोग्राम’ जो विश्व
में खाद्य सुरक्षा कायम करने के प्रयासों के रूप में काफी सराहा गया। ब्राजील विश्व
में ऐसा पहला सदेश है, जिसने भोजन के अधिकार को कानूनी जामा
पहनाया।
ज्ञातव्य हो कि भारत की दो-तिहाई जनसंख्या आज
भी गरीब है। संयुक्त राष्ट्र संघ के विकास सूचकांक में 186 देशों में भारत
136वें स्थान पर है। वहीं भूख सूचकांकके मामले में भारत 119 देशों में 94वें स्थान
पर आता है। इसके साथ-साथ वर्ष 2012 की ‘वैश्विक भूख सूचकांक
रिपोर्ट’ ने प्रत्यक्ष चेतावनी दी कि भारत मजबूत आर्थिक
विकास के बावजूद ग्रामीण भारत के लिए, अपने वैश्विक भूख
सूचकांक में सुधार लाने में पीछे रह गया है। अत: स्पष्ट है कि भारत में खाद्य
सुरक्षा सुनिश्चित करना आवश्यक है और इस ओर एक मजबूत कदम है ‘राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून-2013’। इस कानून को
लागू करके भारत अपने लोगों को भोजन का अधिकार देने वाला विश्व का पहला देश बन
चुका है। निश्चय ही एशिया के ज्योतिपुंज में विश्व को साथ दिखाने की क्षमता
रखता है, यह इससे सिद्ध होता है।
भारत में खाद्य सुरक्षा की अवधारणा नई नहीं है।
भारत में खाद्य सुरक्षा कानून का इतिहास पुराना है। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान
खाद्यान्नों की कमी को देखते हुए 1942 में सार्वजनिक वितरण प्रणाली के जरिए
प्रमुख शहरों और खाद्यान्न की कमी वाले कुछ एक क्षेत्र में खाद्यान्न वितरण शुरू
किया था। स्वतंत्रता के बाद भारतीय संविधान द्वारा भी भारतीय नागरिकों राज्य के
नीति-निर्देशक तत्व में अनंच्छेद-47 के तहत उच्च पोषाहार स्तर प्रदान करने तथा
अनुच्छेद-37 में सभी को जीविका के पर्याप्त साधन प्रदान करने जैसे निर्देशराज्य
को दिये गये। अनुच्छेद-21 के तहत जीने योग्य जीवन के पर्याप्त साधन प्रदान करने
जैसे निर्देश राज्यको दिये गये। अनुच्छेद-21 के तहत जीवने योग्य जीवन की स्वतंत्रता
में ‘कोई भूखा न रहे’ , ‘पोषण का निश्चित स्केल’ जैसे अधिकार शामिल हैं।
सातवीं पंचवर्षीय योजना में सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के तहत इस दायरे में
समूचे जनसंख्या को लाया गया और 1997 में खाद्यान्न के लिए एक लक्षित सार्वजनिक
वितरण प्रणाली (टी पी डी एस) लागू की गयी, जिसके अधीन गरीबी
रेखा नीचे (बी पी एल) और गरीबी रेखा से ऊपर (एपीएल) के घरों को भिन्न मूल्योंपर
अलग-अलग मात्रा में खाद्यान्न उपलब्ध कराये जा रहे हैं। खाद्य सुरक्षा के
परिप्रेक्ष्य में ही पीडीएस के साथ-साथ अंत्योदय अन्न योजना (2002), अन्नपूर्णा योजना, काम के बदले अनाज कार्यक्रम (अब
मनरेगा में विलीन), मिड-डे मील
कार्यक्रम, ग्रामीण अनाज बैंक स्कीम (2004) आदि योजनाएं देश
में चलायी जा रही हैं। वर्ष 2007 में राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन भी चलाया गया।
इसी क्रम में खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए वर्ष 2013 में राष्ट्रीय
खाद्य सुरक्षा अधिनियम पारित किया गया है।
इस कानून के तहत देश की कुल मिलाकर 67% आबादी को खाद्य सुरक्षा का
वैधानिक अधिकार दिया गया है। लाभार्थियों को प्राथमिक समूह (46%) तथा सामान्य समूह में विभाजित किया गया है। जिसमें प्राथमिकता वाले
परिवारों को प्रतिमाह 5 किग्रा. अनाज और अंत्योदय परिवारों को 35 किग्रा. अनाज, चावल, गेहूं और मोटे अनाज क्रमश: 3 रुपये, 2 रुपये और एक रुपया प्रति किग्रा. की दर से देने का प्रावधान है। जबकि
सामान्य समूह के लाभार्थियों को ‘न्यूनतम समर्थन मूल्य’ के 50% कीमत पर ये अनाज प्राप्त होंगे। इस
कार्यक्रम के लाभार्थियों में 75% ग्रामीण और 50% तक शहरी आबादी हो सकती है।
राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम द्वारा भारत
में अब कोई सूखा नहीं रहेगा। भारत बच्चों के कुपोषण के मामले में सबसे ऊंचे
पायदान पर है और स्वास्थ्य सूचकांक की स्थिति भी चिंताजनक है, परिस्थितियों से यह अधिनियम मील
का पत्थर साबित होगा। राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा के कुछ अंश जैसे मध्याह्न भोजन, मातृत्व लाभ (पोषणपूकर तथा नकद) का सीधा लक्ष्य पोषण है। सस्ती दरों
पर खाद्य उपलब्धता द्वारा लोगों को अधिक कैलोरी मिलेगी। जब भूख तृप्त होगी तो
लोग कलात्मकता व आर्थिक विकास की ओर ध्यान देंगे। लोग अपनी अतिरिक्त आय का इस्तेमाल
चिकित्सा और स्वास्थ्य व शिक्षा पर कर सकते हैं वहीं कर्ज तले दबा किसान अपनी
अतिरिक्त आय को कृषि कार्यों पर खर्च कर सकता है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि
खाद्य सुरक्षा अधिनियम होने के उपरांत भारत की सामाजिक,
आर्थिक, राजनीतिक व तकनीकी उन्नति होगी।
राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के जहां इतने
लाभ हैं वहीं इसके समक्ष अनेक समस्यायें उजागर हो रही हैं:
- पर्याप्त अनाज की उपलब्धता की समस्या क्योंकि भारत पहले ही अनाज का आयात करता है।
- खाद्य संकट से उभरने के लिए जेनेटिक खाद्य को
बढ़ावा देने से, होने वाले घातक रोगों की आशंका।
- बेहद जरूरतमंदों के आंकड़ों की विश्वसनीयता, जिनकी वजह से पूर्ववर्ती योजनाएं अत्यधिक खर्च करने के बावजूद भी सफल
नहीं हुई।
- कारपोरेट जगत का कहना है कि इससे सरकारी खजाने पर बोझ बढ़ेगा।
- जब खाद्य सुरक्षा सरकार उपलब्ध करायेगी तो हो सकता है कि छोटे कृषकों का नजरिया कृषि कार्यों के प्रति बदले और वे अकृति कार्यों में जुट जाये।
उपरोक्त समस्याओं के बावजूद भी खाद्य सुरक्षा
कानून के फायदे (लाभ) हानि की तुलना में कहीं अधिक है, इसलिए सरकार का यह कदम स्वागत योग्य और सराहनीय है। परंतु इसके सही
क्रियान्वयन व सफलता के लिए कुछ सावधानियों को ध्यान में रखना आवश्यक है :-
- खाद्य असुरक्षा में बड़ा बदलाव कायम करने के लिए वित्तीय संसाधनों से युक्त मजबूत राजनीतिक इच्छा शक्ति की आवश्यकता है।
- अत्यधिक मुद्रा कमाने की होड़ में बढ़ती जा रही
कैश क्राप्स के नाम पर अखाद्य कृषि के बढ़ते चलने को रोकने हुए, कृषकों खाद्यान्न उत्पादन के लिए प्रोत्साहन करना।
- इस कानून के दायरे में आने वाले लाभार्थियों को सर्वोचित रूप से प्रथमत: चिन्हित किए ताकि पहले अत्यधिक जरूरतमंदों की अवाश्यकता पूर्ण है।
- जैविक खेती को क्रमबद्ध विकास से खाद्य संकट को कम करने में मदद मिलेगी। इसके साथ ही तकनीकी कृषि को भी बढ़ावा दिया जाए ताकि कम भूमि में अधिक अनाज उगे।
- भारत में बहुत-सी भूमि बंजर, कल्लर तथा बैटलैंड के रूप में पड़ी है। अत: भूमि सुधार अधिक से अधिक
करके पर्याप्त भूमि उपलब्ध कराने की आवश्कता है।
- पर्याप्त खाद्यान्न उपलब्धता ने होने के लिए
जहाँ कम उत्पादन और खाद्य कुप्रबंधन जैसे अनेक कारणों को जिम्मेदार ठहराया जाता
है, वही एक और प्रमुख कारण पर अपेक्षाकृत कम ध्यान दिया जाता है, वह है खाद्य अपव्यय अर्थात खाद्यान्नों की बर्बादी। अत: लोगों को
शादियों, उत्सवों या त्यौहारों या घरों में ही खाना न
बरबाद करने के लिए जागरूक किया जाये। इस परिप्रेक्ष्य में सैम पित्रोदा द्वारा
गठित संस्था ‘इंडिया फूड नेटवर्क’
द्वारा खाद्य अपव्यय रोकने के लिए ‘एस एम एस अलर्ट’ कार्यक्रम सराहनीय है, जिसमें समारोह स्थलों पर
बचे खाने को इकट्ठा करके जरूरतमंदों में बांट दिया जाता। लोगो को ऐसे कार्यक्रमों
से जोड़ने के प्रोत्साहन की आवश्यकता है।
- खाद्य सुरक्षा कानून की सफलता, इस कार्यक्रम में पारदर्शिता के सहारे टिकी है,
ताकि भ्रष्टाचार व अनियमिता न हो।
- इस अधिनियम क प्राक्कथन जहां पोषण की सुरक्षा
का वायदा करता है, वहीं यह आवश्यक हो जाता है कि
इसमें दालों, सब्जियों व खाने के तेल का प्रावधान हो क्योंकि
सिर्फ अनाज द्वारा पोषण नहीं मिलता।
- खाद्य सुरक्षा अधिनियम का 14वां अध्याय
संवेदनशील समूह जैसे जनजातीय लोग और जनजातियों के क्षेत्र को इंगित करता है। अत:
इसमें इन लोगों द्वारा पारंपरिक तरीके से भोजन के रूप में लगभग 400 प्रजातियों
(जैसे-आरबी, मशरूम, चैलाई, कंद, जीव, मछलियां और छोटे
शिकार) को शामिल किये जाने की अवाश्यकता क्योंकि ये उनके आस-पास आसनी से उपलब्ध
होते हैं।
दरसअल खाद्य संकट स्थानीय या राष्ट्रीय स्तर
पर ही नहीं है, बल्कि इसका वैश्विक है। ऐसे भी भारत सरकार
ने खाद्य सुरक्षा को एक अधिकार के रूप में मान्यता देकर यह साबित कर दिया है कि
वह भूखमरी, कुपोषण और खाद्य असुरक्षा की स्थिति में देश के
प्रति जवाबदेह है। सरकार की इसी महत्वाकांक्षी योजना का सकारात्मक परिमाण देखने
के लिए भविष्य प्रतिक्षित है। यदि इस कानून का एक सुनिश्चित मॉनीटरिंग प्रणाली
के तहत उचित क्रियान्वयन हुआ तो वह दिन दूर नहीं जब भारत का प्रत्येक भूख के
चंगुल से मुक्त होगा। यह भारत सरकार द्वारा सामाजिक और आर्थिक उन्नयन का ऐसा कदम
होगा जिसमें अन्त्योदय का उत्थान होगा और एक सशक्त भारतीय जनमानस का निर्माण
होगा।
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