काका कालेलकर का जीवन परिचय Kaka Kalelkar ka Jeevan Parichay in Hindi
काका कालेलकर भारत के स्वाधीनता संग्राम के निर्भीक सेनानी, संत पुरुष तथा गाँधी जी के अनुयायी थे। हिंदी के मूक साधक काका कालेलकर का एक साहित्यिक संत के रूप में और दक्षिण भारत में हिंदी के प्रचार-प्रसार की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है।
जीवन परिचय— काका कालेलकर का जन्म 1 दिसंबर सन् 1885को महाराष्ट्र के सतारा जिले में हुआ था। इनके पिता का नाम बालकृष्ण कालेलकर था। इन्होंने बी०ए० की उपाधि मुंबई विश्वविद्यालय से प्राप्त की तथा बड़ौदा के गंगानाथ भारतीय सार्वजनिक विद्यालय में आचार्य पद को सुशोभित किया। काका कालेलकर के नाम से विख्यात दत्तात्रेय बालकृष्ण कालेलकर भारत के प्रसिद्व शिक्षाशास्त्री, पत्रकार और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे। उनका परिवार मूल रूप से कर्नाटक के करवार जिले का रहने वाला था और उनकी मातृभाषा कोंकणी थी। लेकिन सालों से गुजरात में बस जाने के कारण गुजराती भाषा पर उनका बहुत अच्छा अधिकार था और वे गुजराती के प्रख्यात लेखक समझे जाते थे। काका कालेलकर साबरमती आश्रम में प्रधानाध्यापक के पद पर सुशोभित थे और अहमदाबाद में गुजरात विद्यापीठ की स्थापना में उन्होंने महत्वपूर्ण योगदान दिया। गाँधी जी के निकटतम सहयोगी होने के कारण ही वे काका के नाम से जाने गए। वे ‘सर्वोदय पत्रिका’ के संपादक भी रहे। 1930 में पूना की यरवदा जेल में गाँधी जी के साथ उन्होंने महत्वपूर्ण समय बिताया।
कार्यक्षेत्र— काका कालेलकर सच्चे बुद्विजीवी व्यक्ति थे। लिखना सदा से उनका व्यसन रहा। सार्वजनिक कार्य की अनिश्चितता और व्यस्तताओं के बावजूद यदि उन्होंने बीस से ऊपर ग्रंथों की रचना कर डाली तो इस पर किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। इनमें से कम-से-कम 5-6 ग्रंथ उन्होंने मूल रूप से हिंदी में लिखे। यहाँ इस बात का उल्लेख भी अनुपयुक्त न होगा कि दो-चार को छोड़ बाकी ग्रंथों का अनुवाद स्वयं काका साहब ने किया, अत: मौलिक ग्रंथ हो या अनूदित, वह काका साहब की ही भाषा-शैली का परिचायक है। आचार्य काका साहब कालेलकर जी का नाम हिंदी भाषा के विकास और प्रचार के साथ जुड़ा हुआ है। 1938 में दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के अधिवेशन में भाषण देते हुए उन्होंने कहा था, ‘राष्ट्रभाषा प्रचार हमारा राष्ट्रीय कार्यक्रम है।’ अपने इसी वक्तव्य पर दृढ़ रहते हुए उन्होंने हिंदी के प्रचार को राष्ट्रीय कार्यक्रम का दर्जा दिया। उन्होंने पहले स्वयं हिंदी सीखी और फिर कई वर्ष तक दक्षिण में सम्मेलन की ओर से प्रचार-कार्य किया। अपनी सूझबूझ, विलक्षणता और व्यापक अध्ययन के कारण उनकी गणना प्रमुख अध्यापकों और व्यवस्थापकों में होने लगी। हिंदीप्रचार के कार्य में जहाँ कहीं कोई दोष दिखाई देते अथवा किन्हीं कारणों से उसकी प्रगति रुक जाती, गाँधी जी काका कालेलकर को जाँच के लिए वहीं भेजते। इस प्रकार के नाजुक काम काका कालेलकर ने सदा सफलता से किए। साहित्य अकादमी में काका साहब गुजराती भाषा के प्रतिनिधि रहे। गुजरात में हिंदी-प्रचार को जो सफलता मिली, उसका मुख्य श्रेय काका साहब को है। निरंतर हिंदी साहित्य की सेवा करते हुए 21 अगस्त 1981 को इनकी मृत्यु हो गई।
कृतियाँ— काका कालेलकर जी की भारतीय संस्कृति के प्रति अटूट आस्था थी। इनकी रचनाओं में भी भारतीय संस्कृति के विभिन्न आयामों की झलक दिखाई देती है। इनकी रचनाएँ निम्नलिखित हैं–
(अ) निबंध संग्रह— जीवन-साहित्य एवं जीवन-काव्य
(ब) यात्रावृत— हिमालय प्रवास, यात्रा, लोकमाता, उस पार के पड़ोसी
(स) संस्मरण— बापू की झाँकियाँ
(द) आत्मचरित— सर्वोदय, जीवन लीला
भाषा-शैली का मूल्यांकन— काका कालेलकर की भाषा शुद्ध परिष्कृत खड़ीबोली है। उसमें प्रवाह, ओज तथा अकृत्रिमता है। काका जी अनेक भाषाओं को जानते थे, जिसके कारण उनके पास शब्दों का विशाल भंडार था। तत्सम, तद्भव आदि इनकी भाषा में एक साथ देखे जा सकते हैं। इनकी रचनाओं में गुजराती व मराठी शब्दों का प्रयोग व मुहावरे और कहावतों का प्रयोग देखने को मिलता है। यद्यपि काका जी अहिंदी भाषी थे, फिर भी हिंदी के प्रति उनके समर्पण ने उनकी भाषा को सशक्त एवं प्रौढ़ बना दिया है। इन्होंने भाव, विषय एवं प्रसंग के अनुसार विभिन्न शैलियाँ अपनाई हैं।
(अ) परिचयात्मक शैली— किसी व्यक्ति, वस्तु या घटना का परिचय देते समय इन्होंने इस शैली को अपनाया है। इस शैली पर आधारित इनकी भाषा सरल, सुबोध तथा प्रवाहमयी है। प्रसाद गुण इस शैली की मुख्य विशेषता है।
(ब) विवेचनात्मक शैली— जहाँ भी गंभीर विषयों की विवेचना करनी पड़ी है, वहाँ काका साहब ने इस शैली का प्रयोग किया है। इस शैली के प्रयोग से भाषा गंभीर तथा संस्कृतनिष्ठ हो गई है। विचार-तत्व प्रधान हो गया है। तार्किकता इस शैली की मुख्य विशेषता है।
(स) आत्मकथात्मक शैली— काका कालेलकर ने अपने संस्करणात्मक निबंधों और आत्मरचित में इस शैली का प्रयोग किया है।
(द) विवरणात्मक शैली— इस शैली का प्रयोग इनके यात्रावृत्तों में हुआ है। इनके द्वारा प्रस्तुत यथार्थ विवरणों में चित्रोपमता और सजीवता विद्यमान है।
(य) हास्य-व्यंग्यात्मक शैली— सामयिक समस्याओं पर लिखते समय इस संत की शैली में कहीं-कहीं पर बहुत ही शिष्ट हास्य और चुभता हुआ व्यंग्य भी उभरकर आता है। इस शैली की भाषा चुलबुली तथा मुहावरेदार हो गई है।
हिंदी साहित्य में स्थान— काका साहब मँजे हुए लेखक थे। किसी भी सुंदर दृश्य का वर्णन अथवा पेचीदा समस्या का सुगम विश्लेषण उनके लिए आनंद का विषय रहे। उन्होंने देश, विदेशों का भ्रमण कर वहाँ के भूगोल का ही ज्ञान नहीं कराया, अपितु उन प्रदेशों और देशों की समस्याओं, उनके समाज और उनके रहन-सहन, उनकी विशेषताओं इत्यादि का स्थान-स्थान पर अपनी पुस्तकों में बड़ा सजीव वर्णन किया है। वे जीवन-दर्शन के जैसे उत्सुक विद्यार्थी थे, देश-दर्शन के भी वैसे ही शौकीन रहे। हिंदी के मूक साधक काका कालेलकर का एक साहित्यिक संत के रूप में और दक्षिण भारत में हिंदी के प्रचार-प्रसार की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। वे भारतीय संस्कृति के अनन्य उपासक और सदैव अध्ययनरत रहने वाले साहित्यकार थे। इनकी रचनाओं में प्राचीन भारत की झलक देखने को मिलती है। किसी भी घटना का सजीव चित्र उपस्थित करने में ये बहुत कुशल थे। काका साहब महान देशभक्त, उच्चकोटि के विद्वान, विचारक थे। हिंदी जगत उनकी नि:स्वार्थ सेवाओं के लिए सदैव उनका कृतज्ञ रहेगा।
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