भारत में दलितों की स्थिति : भारत की एक बहुत बड़ी जनसंख्या को सदियों से मानवीय मानकों से नीचे की जिंदगी जीनी पड़ी थी। उनको बढ़वा और विकास के अवसरों से वंचित रखा गया। अनुसूचित जातियों ने और उनसे कुछ कम पिछड़ी जातियों ने निर्धनता¸ दरिद्रता एवं सामाजिक शोषण की अवर्णनीय यातनाएं सही थीं। उनकी हैसियत ‘लकड़ी चीरने वाले’ और ‘पानी भरने वालों’ से बेहतर नहीं थी। स्वतंत्र भारत में उन्हें त्रुटिपूर्ण विकास एवं शोषण से मुक्ति दिलाने की शपथ ली। इन लोगों की दशा सुधारने हेतु स्वयं संविधान में प्रावधान किए गए। अनुसूचित जातियों के लिए विधानसभा¸ लोकसभा और सेवाओं में आरक्षण किए जाने के फलस्वरुप उन्नति और विकास करने के अवसर प्राप्त किए।
भारत में दलितों की स्थिति
सदियों की दास्ता के पश्चात भारत ने 15 अगस्त 1947 को स्वतंत्रता प्राप्त की। यह क्षितिज पर नया सवेरा था। इतिहास के एक नए चरण की शुरुआत थी तथा आशा और उम्मीद प्राप्त करने के अवसरों का प्रारंभ था किंतु बुनियादी तौर से उपलब्ध की गई है यह स्वतंत्रता केवल राजनीतिक थी। सामाजिक और आर्थिक स्वतंत्रता को अभी आना था। भारत की एक बहुत बड़ी जनसंख्या को सदियों से मानवीय मानकों से नीचे की जिंदगी जीनी पड़ी थी। उनको बढ़वा और विकास के अवसरों से वंचित रखा गया। अनुसूचित जातियों ने और उनसे कुछ कम पिछड़ी जातियों ने निर्धनता¸ दरिद्रता एवं सामाजिक शोषण की अवर्णनीय यातनाएं सही थीं। उनकी हैसियत ‘लकड़ी चीरने वाले’ और ‘पानी भरने वालों’ से बेहतर नहीं थी। स्वतंत्र भारत में उन्हें त्रुटिपूर्ण विकास एवं शोषण से मुक्ति दिलाने की शपथ ली। इन लोगों की दशा सुधारने हेतु स्वयं संविधान में प्रावधान किए गए। अनुसूचित जातियों के लिए विधानसभा¸ लोकसभा और सेवाओं में आरक्षण किए जाने के फलस्वरुप उन्नति और विकास करने के अवसर प्राप्त किए।
विगत शताब्दी के आठवें दशक ने समाज के इस अभागे वर्ग को राजनीतिक एवं सामाजिक उत्थान का बड़ा अवसर प्रदान किया। राजनीतिक धरातल पर कांशीराम और मायावती के नेतृत्व में बहुजन समाज पार्टी उभरी जिसने शोषित और दलित वर्ग के हितों को अपनाया। उसके साथ ही उदय हुआ राजनीति गरम दल जिसने समय-समय पर अपने भिन्न-भिन्न नाम रखे जिसने पिछड़ों के हितों को अपनाया। राजनीतिक क्षितिज पर हुए इस परिस्थिति कारक ने अनुसूचित जाति-जनजाति और पिछड़ों की आशा और आकांक्षाओं को नया आयाम प्रदान किया। धीरे-धीरे उनकी राजनीति शक्ति बढ़ी और उन्होंने 1993 में उत्तर प्रदेश में सरकार भी बना ली। बाद के चुनावों में भी उन्होंने बहुत अच्छा प्रदर्शन किया। मायावती एक हरिजन नेता का मुख्यमंत्री के रूप में प्रतिष्ठित किया जाना अत्यन्त महत्व की घटना इससे भी अधिक महत्व की घटना यह है कि श्री आर के नारायण जो कि एक हरिजन नेता हैं भारत के राष्ट्रपति के रूप में पदस्थ किए गए।
इन दलों और व्यक्तियों की अभूतपूर्व सफलता सत्ता¸ समाज और देश की अर्थव्यवस्था में अपना उचित स्थान का दावा करने हेतु दलितों के उत्थान का प्रतीक है। इस घटना का स्वागत किया जाना चाहिए क्योंकि इससे उन लोगों के लिए समाज में सम्मानजनक स्थान पाने का मार्ग प्रशस्त होता है जिन्होंने शताब्दियों का अत्याचार¸ आर्थिक तंगी और राजनीतिक शून्यता सही है। पिछले 50 वर्षों के दौरान विश्व भर में प्रजातंत्र की हवा जोरों से बही है जिसने तानाशाह शक्तियों को ध्वस्त कर के रख दिया है किंतु इसने दलितों को कोई भी राहत नहीं पहुंचाई। लोकतंत्र तो समाज के उच्च वर्ग के लिए था उनके लिए जो ठाट-बाट की जिंदगी व्यतीत करते थे और जिनके हाथ में आर्थिक शक्ति केंद्रित थी। लोकतंत्र जनता का¸ जनता के लिए¸ जनता द्वारा शासन था किंतु दलितों को जनता की श्रेणी से अलग रखा गया। दलित तो मात्र चुनाव के दिनों में महत्वपूर्ण होता था। प्रभावशाली राजनीतिज्ञ ही विजय हासिल करते थे जो कि दलितों को जिनकी कि जनसंख्या बहुत बड़ी थी मूर्ख बनाकर ऐसा करते थे। अन्य मामलों में दलित अभी भी ‘लकड़ी चीरने वाले’ और ‘पानी भरने वाले’ की स्थिति से बेहतर नहीं थे।
साम्यवाद ने भी दलितों के उद्धार की दिशा में कोई सफलता प्राप्त नहीं की। वास्तव में साम्यवाद तो साम्यवादी दल की तानाशाही मात्र बनकर रह गया। सर्वहारा वर्ग की तानाशाही धारणा सर्वहारा वर्ग की आंखों में धूल झोंकने की एक चाल थी जिससे वे साम्यवादी नेताओं को सत्ता में ला सकते। साम्यवादी सोवियत यूनियन के विघटन के साथ साम्यवाद के पतन ने पूंजीवादी शक्तियों के लिए मार्ग प्रशस्त कर दिया किंतु कहीं भी किसी चरण में दलितों के उत्थान की बात शासकों के लिखे-जोखे या नियोजन में नहीं रही। इसे तो वही जीवन बिताना पड़ा जो शताब्दियों से बिताता रहा था जिसको कोई सामाजिक मान्यता नहीं¸ कोई आर्थिक आजादी नहीं¸ हुई सांस्कृतिक उत्थान नहीं¸ एवं कोई नैतिक या आध्यात्मिक व्यक्तित्व नहीं।
पिछड़े दलित और अनुसूचित जाति जातियों के गठबंधन की हाल ही में हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में विशेष रूप से और भारत के अन्य भागों में सामान्य रूप से लगातार विजय और उनके द्वारा सरकार का निर्माण निश्चित रूप से एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटना है। जैसा कि पहले कहा जा चुका है यह दलित के उदय¸ उसकी चेतना के उदय का प्रतीक है। इस विजय से उनकी अन्य राज्यों में¸ जहां पर जब भी चुनाव हो विजय की आशा बंधी है। इन परिगणितों की सफलता के बहुत से कारण हो सकते हैं विशेषकर ऐतिहासिक कारण किंतु तात्कालिक रुप से मुलायम सिंह यादव और कांशीराम के करिश्माई नेतृत्व इसके लिए बहुत कुछ जिम्मेवार हैं। इन दोनों महारथियों ने चुनाव में अपनी ऊर्जा और शक्ति को झोंक दिया। साथ में था उनका जीतने का संयुक्त संकल्प जबकि अन्य दल अंदरूनी कलह से प्रभावित थे और तादात से अधिक आशान्वित थे जिसका आधार था प्रलोभन कारी वायदे जिनकी प्रासंगिकता समाप्त हो चुकी है। सवर्ण जातियों और उनके नेताओं को चाहिए कि इस नई स्थिति के प्रति सहनशीलता का दृष्टिकोण अपनाएं और अनुसूचित जाति जनजाति के सदस्यों को सहानुभूति पूर्ण समर्थन दें जो सत्ता में आ रहे हैं और राजनीतिक और सामाजिक व्यवस्था में उच्चतम पद प्राप्त कर रहे हैं। उन्हें पूर्ण ऊंचाई तक विकसित होने का अवसर दिया जाए चाहे उन्हें इसके लिए कुछ त्याग ही क्यों ना करना पड़े इसी से न्याय पूर्ण सामाजिक व्यवस्था के लिए मार्ग प्रशस्त होगा एक ऐसी व्यवस्था जिससे अत्याचार शोषण और दासता का अंत हो जाएगा और समाज के सभी वर्गों का सामंजस्यपूर्ण एवं शांतिमय सहअस्तित्व सुनिश्चित हो सकेगा क्योंकि वे समझते थे कि उनका मंदिर और मस्जिद का मुद्दा उन्हें सत्ता तक पहुंचाएगा। दलितों की इस विजय में चुनाव आयोग का भी योगदान है जिसने स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने के लिए अपने समस्त संसाधन जुटा दिए। यह पहला अवसर था जबकि दलित ने अपने लिए मतदान किया और क्योंकि उनकी संख्या बहुत बड़ी थी उनकी सफलता तो निश्चित थी ही। झूठे नारे की अपील का उन पर असर नहीं पड़ा अपितु अपने ही शासन की स्थापना की संभावना अन्य किसी भी प्रकार की अपील पर भारी पड़ी। उच्च वर्गों की उदासीनता और निष्क्रियता ने उनको विजय श्री दिलाने के कार्य को और अधिक आसान बना दिया।
जहां की पिछड़ों के उदय का स्वागत किया जाना चाहिए वहां कुछ अन्य परिणामों के प्रति सचेत रहना भी आवश्यक है। इससे वर्ग-संघर्ष या वर्ग शत्रुता जैसी चीजों पर नहीं होनी चाहिए। शासन स्तर पर निर्णय निष्पक्ष रुप से लिए जाने चाहिए। जातीय बिंदु विधि के शासन एवं सभी के लिए न्याय के सिद्धांत के अधीन रहना चाहिए। यदि तथाकथित पिछड़े एवं दलितों की विजय से अपने ही पक्ष में आक्रामक जातीय राजनीति का उदय होता है तो जनसंख्या के जातीय आधार पर वर्गीकरण की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। यदि किसी दिन यह वास्तविकता में परिवर्तित हो गया तो भारतीय लोकतंत्र और उन सिद्धांतों के लिए जिनके प्रति लोकतंत्र प्रतिबद्ध है सबसे अधिक दुख का दिन होगा। दलितों के अधिकारों के दावों की घटना से उत्कृष्टता के दमन का रास्ता नहीं खुलना चाहिए। इससे दलितों के सही विकास का मार्ग प्रशस्त होना चाहिए। सामाजिक और सांस्कृतिक विकास से रहित राजनीतिक सत्ता की प्राप्ति से निकृष्टतम प्रकार की तानाशाही को जन्म मिल सकता है। इसलिए यह आवश्यक है कि सत्ताधारी इन अपूर्ण कार्यों को पूरा करने की ओर ध्यान दें तभी दलितों के उत्थान अथवा अभ्युदय को एक स्थाई वास्तविकता बनाया जा सकता है।
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