भारत में लोकतंत्र का भविष्‍य तथा चुनौतियां पर निबंध

भारत में लोकतंत्र का भविष्‍य तथा चुनौतियां पर निबंध : स्‍वतंत्रता प्राप्‍ति के बाद भी भारत में लोकतांत्रिक शासन व्‍यवस्‍था को अपनाया गया और यह सफलतापूर्वक अपनी 71वीं वर्षगांठ मना चुका है। इसके बावजूद यह चिंतीनय है कि वे कौन सी चुनौतियां हैं जिन्‍होंनं भारत में लोकतंत्र के भविष्‍य पर प्रश्‍नचिह्न लगा दिए हैं? किसी भी देश में लोकतांत्रिक शासन पद्धति के कुछ मूलभूत आधार होते हैं जैसे संविधानवाद, स्‍वतंत्रता, सहिष्‍णुता, समानता एवं सहभागिता। यदि ये पांचों तत्‍व उस देश के शासन संचालन में मौजूद हों तभी वह देश लाकतंत्रिक कहलाएगा। भारत में सिद्धांतत: शासन की शक्‍ति संविधान में निहित है तथा संविधान को यह शक्‍ति जनता ने दी है। लेकिन व्‍यवहार में हम देखते हैं कि आम जनता तो क्‍या बहुसंख्‍य नेताओं को भी संविधान के मायने नहीं पता।

भारत में लोकतंत्र का भविष्‍य तथा चुनौतियां पर निबंध

bharat me loktantra ka bhavishya par nibandh
भारत में लोकतंत्र की जड़ें ईसा से तीन हजार वर्ष पूर्व वैदिक काल में दिखाई देती हैं। प्रतिनिधिक संस्‍थाओं और सिद्धांतों का प्रथम निरूपण ऋग्‍वेद व अथर्ववेद में मिलता है। बाद में महाभारत, शुक्राचार्य के नीतिसार, बौद्ध साहित्‍य व कौटिल्‍य के अर्थशास्‍त्र में भी लोकतंत्र की झलक मिलती है। यूनान के प्रथम लोकंत्रात्‍मक नगर राज्‍यों से सदियों पूर्व ही भारत में गणराज्‍यों का जाल बिछा था। कह सकते हैं कि भारत ही लोकतंत्र का पालना रहा है।

स्‍वतंत्रता प्राप्‍ति के बाद भी भारत में लोकतांत्रिक शासन व्‍यवस्‍था को अपनाया गया और यह सफलतापूर्वक अपनी 71वीं वर्षगांठ मना चुका है। इसके बावजूद यह चिंतीनय है कि वे कौन सी चुनौतियां हैं जिन्‍होंनं भारत में लोकतंत्र के भविष्‍य पर प्रश्‍नचिह्न लगा दिए हैं?

किसी भी देश में लोकतांत्रिक शासन पद्धति के कुछ मूलभूत आधार होते हैं जैसे संविधानवाद, स्‍वतंत्रता, सहिष्‍णुता, समानता एवं सहभागिता। यदि ये पांचों तत्‍व उस देश के शासन संचालन में मौजूद हों तभी वह देश लाकतंत्रिक कहलाएगा।

संविधानवाद: संविधानवाद का तात्‍पर्य है सत्ता, व्‍यक्‍ति अथवा संस्‍था के द्वारा नहीं वरन संविधान द्वारा स्‍थापित विधियों के द्वारा चलायी जाएगी। भारत में सिद्धांतत: शासन की शक्‍ति संविधान में निहित है तथा संविधान को यह शक्‍ति जनता ने दी है। लेकिन व्‍यवहार में हम देखते हैं कि आम जनता तो क्‍या बहुसंख्‍य नेताओं को भी संविधान के मायने नहीं पता।

स्‍वतंत्रता: इसी प्रकार स्‍वतंत्रता के दो रूप हैं, प्रथम तो यह व्‍यक्‍ति के गरिमापूर्ण जीवन जीने के लिए एवं उसके व्‍यक्‍तित्‍व के विकास के लिए आवश्‍यक है तथा दूसरे यह स्‍वतंत्रता निर्बाध नहीं वरन् युक्‍तियुक्‍त होनी चाहिए। भारतीय शासन ने व्‍यक्‍ति को मूल अधिकार प्रदान किए हैं। मूल अधिकारों की प्राप्‍ति से प्रत्‍येक व्‍यक्‍ति को विधि के समक्ष समानता, किसी भी कार्य को करने तथा‍ अपने विचार व्‍यक्‍त करने एवं धार्मिक स्‍वतंत्रता जैसे अधिकार प्राप्‍त होते हैं।

लेकिन वास्‍तविक स्‍थिति इससे भिन्‍न है। आज भी जाति के आधार पर, धर्म के आधार पर व्‍यक्‍ति को न तो व्‍यवसाय की स्‍वतंत्रता प्राप्‍त है, न ही मंदिरों में प्रवेश की। रोजाना ही यह घटनाएं सामने आती हैं कि मंदिर में प्रवेश करने पर या धर्म परिवर्तन करने पर अमुक लोगों पर हमला किया गया। कुछ दिनों पूर्व प्रवेश परीक्षाओं को लेकर बिहार व असम में जो हिंसात्‍मक घटनाएं हुईं, उनसे सिद्ध हो गया कि अधिकारों एवं उनकी प्राप्‍ति की वास्‍तविकता में अंतर है।

समानता: लोकतंत्र के अगले आधार स्‍तंभ समानता का तात्‍पर्य है कि कृत्रिम आधार पर किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जाएगा। लेकिन आज भी भारत में धर्म, जाति, संप्रदाय, क्षेत्र व लिंग के आधार पर भेदभाव जारी है। उदाहरण के लिए आजादी के इतने वर्षों के बाद भी भारत में समान नागरिक संहिता का निर्माण संभव नहीं हो पाया है। इस कानून के अभाव में संप्रदाय विशेष की महिलाएँ मूलभूत मानवाधिकारों से वंचित हो जाती हैं। साथ ही समय-समय पर हमारे राजनेता आरक्षण रूपी अस्‍त्र का सहारा लेकर सामाजिक सौहार्द्र को नष्‍ट करने का कार्य करते हैं तथा जातिगत भेदभाव को बढ़ावा देते हैं। सच्‍चर समिति की हाल की सिफारिशों के आधार पर अब तो धार्मिक आधार पर आरक्षण की जमीन भी तैयार हो गई है।

सहिष्‍णुता: लोकतंत्र में सहिष्‍णुता का महत्‍वपूर्ण स्‍थान है। जिसके अनुसार मानव को केवल मानव होने के नाते गरिमा का पात्र समझना चाहिए तथा सभी नागरिकों के मध्‍य आतंरिक बंधुता का भाव होना चाहिए। लेकिन भारत में मानव मानव रहकर वोट बैंक में परिणत हो गया है तथा कौन-सा समुदाय, धर्म या जाति विशेष राजनीतिक दृष्टिकोण से अधिक महत्‍वपूर्ण है यही शासन व जनता के मध्‍य संबंधों के संचालन का आधार बन गया है। जनता भी हिंदू-मुसलमान, सिक्‍ख-ईसाई, अगड़ी-पिछड़ी जातियों, उत्तर-दक्षिण, ग्रामीण-शहरी, हिंदी-अहिंदी भाषियों तथा अल्‍पसंख्‍यक बहुसंख्‍यक में विभक्‍त हो चुकी है और देश में भारतीय नामक जीव अल्‍पसंख्‍यक बन चुका है। सहिष्‍णुता का जैसा पतन गोधरा कांड के बाद देखने को मिला उससे लोकतंत्र की प्रासंगिकता पर प्रश्‍नचिन्‍ह लग जाता है।

सहभगिता: जनता शासन में किस प्रकार से सहभोगी है यह तत्‍व भी लोकतंत्र के स्‍वरूप को निर्धारित करता है। जनता की सहभगिता सार्वभौमिक मताधिकार, व्‍यक्‍तियों को निर्वाचित होने व चुनने की स्‍वतंत्रता, स्‍वतंत्र एवं निष्‍पक्ष चुनाव प्रणाली, नियतकालिक चुनावों तथा सत्ता के लिए दो या दो से अधिक राजनीतिक दलों में स्‍वस्‍थ्‍य प्रतिस्‍पर्धा द्वारा सुनिश्‍चित होती है परंतु वर्तमान में व्‍यवस्‍था में एक ओर तो अपराध का रानीतिकरण व राजनीति का अपरधीकारण हो चुका है तो दुसरी और हमारी चुनाव प्रणाली धनबल व बाहुबल की गिरफ्त में आ चुकी है। चुनावी अनियमितताओं से ऊबरकर बुद्धिजीवी वर्ग का अपने मताधिकार के प्रति रुझान ही समाप्‍त हो चुका है तथा यह वर्ग वर्तमान राजनीतिक व्‍यवस्‍था के प्रति पूर्णत: उदासीन हो चुका है। साथ ही गठबंधन सरकारों में दलील हितों के टकराव के परिणामस्‍वरूप सरकारें अपना निर्धारित कार्यकाल पूरा नहीं कर पा रही है और बार-बार होने वाले मध्‍यावधि चुनावों के परिणामस्‍वरूप देश आर्थिक संकट तथा नीतियों की दिशाहीनता की समस्‍या से जूझ रहा है।

इन सबके अलावा भारत में विगत 70 वर्षों के विकास कार्यक्रमों एवं पंचवर्षीय योजनाओं के बादजूद लगभग 30 करोड़ जनसंख्‍या गरीबी रेखा से नीचे कुपोषण, बीमारी व बेरोजगारी जैसी समस्‍या से जूझ रही है। परिणामस्‍वरूप आर्थिक विकास में असमानता असंतुलित मानव संसाधन विकास को बढ़ावा देती है।

कुछ अंतर्राष्‍ट्रीय स्‍थितियां भी भारत में लोकतंत्र के भविष्‍य पर प्रश्‍न चिन्‍ह लगाती हैं। यथा विश्‍व बैंक, विश्‍व व्‍यापार संगठन, विश्‍व मानवाधिकार आयोग, विश्‍व श्रम संगठन, संयुक्‍त राष्‍ट्र संघ जैसी अंतर्राष्‍ट्रीय संस्‍थाओं पर विकसित देशों का प्रभाव है तथा ये किसी न किसी बहाने भारत की नीतियों को प्रभावित करते हैं। 1991 में इन शक्‍तियों के दबाव के कारण ही भारत को उदारीकृत अर्थव्‍यवस्‍था स्‍वीकार करनी पड़ी। इसी संदर्भ में सिएटल एवं दोहा में हुई विश्‍व व्‍यापार संगठन की बैठक में अगड़े-पिछड़े राष्‍ट्रों का विवाद प्रासंगिक है। अत: प्रश्‍न उठना स्‍वाभाविक है कि बाह्य सत्ता द्वारा प्रभावित होने पर भारत में लोकतंत्र का स्‍वरूप क्‍या होगा?

इनके अलावा भारतीय उप-महाद्वीप में भारत के पड़ोसी देशों में शासन व्‍यवस्‍था की चरमराती स्‍थिति भी भारतीय लोकतंत्र की स्‍थ‍िति पर कई सवाल खड़े करती है; यथा पकिस्‍तान में सैनिक शासन, नेपाल में माओवादी संघर्ष, श्रीलंका में तमिल लड़ाकों का बढ़ता प्रभुत्‍व, बांग्‍लादेश में कट्टरपंथी तत्‍वोंका प्रभुत्‍व तथा तिब्‍बत में साम्‍यवादी चीन का हस्‍तक्षेप, प्रश्‍न उठाते हैं कि आखिर भारत में लोकतंत्र कब तक कायम रह सकेगा?

किंतु इन सारी समस्‍याओं, अराजकताओं तथा अंतर्राष्‍ट्रीय दबावों के बावजूद भारतीय लोकतंत्र न केवल निरंतर विद्यमान है वरन यह और भी अधिक मजबूत होकर उभर रहा है तथा आज भारत विश्‍व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है।

भारत में जहां जनता नेताओं को राजगद्दी प्रदान करती है वहीं उनके साबित होने पर उन्‍हें पदच्‍युत भी कर सकती है, यह बात लोकसभा एवं राज्‍य विधानसभा के कई चुनावों से स्‍पष्‍ट हो चुका है। शासन में जनसहभागिता बढ़ाने के 73वें एवं 74वें संविधान संशोधन के द्वारा ग्राम सभा एवं वार्ड सभा को संवैधानिक मान्‍यता दी गई है जिससे लोकतंत्र तृणमूल स्‍तर तक पहुंचा है। ग्रामीण एवं शहरी स्‍थानीय स्‍वशासन संस्‍थाओं के माध्‍यम से अनुसूचित जाति व जनजाति के लोगों व महिलाओं को शासन में सहभागिता देने से जनता की लोकतंत्र में आस्‍था और मजबूत हुई है।

इसके साथ ही जिला नियोजन एवं महानगरीय नियोजन समिति के माध्‍यम से, नागरिक समुदाय एवं गैर सरकारी संगठनों द्वारा भी जनता के अंतर्गत का शासन कार्यों का संचालन प्राप्‍त हुआ है।

सूचना का अधिकार प्रदान कर भारत ने स्‍पष्‍ट किया है कि वह शासन में पारदर्शिता लाने का कृतसंकल्‍प है। राज्‍यों तथा राष्‍ट्रीय स्‍तर पर कार्यरत मानवाधिकार आयोगों, लोकायुक्‍तों, उपभोक्‍ता अदालतों, केन्‍द्रीय सूचना आयोग, केन्‍द्रीय सतर्कता आयोग इत्‍यादि के द्वारा न केवल मानवाधिकारों की रक्षा सुनिश्‍चित की गई है वरन् भ्रष्‍टाचार पर रोक लगाने का भी प्रयास किया गया है।

साथ ही साथ न्‍यायिक सक्रियता एवं जनहित याचिकाओं के माध्‍यम से न केवल न्‍याय सुनिश्‍चित किया गया है वरन् विधायिका एवं कार्यपालिका की निरंकुशता से जनता की रक्षा का प्रावधान भी किया गया है।

चुनाव प्रणाली में व्‍याप्‍त कम‍जोरियों को दूर करने के लिए अभी हाल ही में जनप्रतिदिनिधित्‍व अधिनियम में संशोधन किया गया है। साथ ही चुनाव में होने वाली गड़बडि़यों को रोकने के लिए भारत में चुनाव आयोग जैसी सशक्‍त संस्‍था विद्यमान है जिसकी निष्‍पक्षता की प्रशंसा विदेशों में भी की जाती है। चाहे विदेशी पर्यवेक्षकों की उपस्थिति में कश्‍मीर में संपन्‍न चुनाव हो या सांप्रदायिक तनाव से जूझ रहे गुजरात में संपन्‍न चूनाव, दोनों ही जगह निष्‍पक्ष चुनाव कराकर चुनाव आयोग ने अंतर्राष्‍ट्रीय स्‍तर पर भारतीय लोकतंत्र की साख मजबूत की है।

लोकतंत्र की सफलता के लिए मतदाता का शिक्षित होना आवश्‍यक है ताकि वह अपने स्‍वविवेक से मताधिकार का प्रयोग कर सके। भारत में शिक्षा के प्रसारार्थ अनेक कार्यक्रम (यथा सर्वशिक्षा, जनशाला, प्रौढ़ शिक्षा आदि) चलाए जा रहे हैं। जिससे भारत का साक्षरता प्रतिशत 65.38% हो गया है। साथ ही, 86वें संविधान संशोधन के माध्‍यम से 6-14 वर्ष के बच्‍चों के लिए प्राथमिक शिक्षा अनिवार्य कर दी गई है। भारत के कई राज्‍य यथा केरल, मिजोरम, गोवा आदि पूर्ण साक्षरता की ओर कदम बढ़ा चुके हैं। इस बात का द्योतक है कि भारत में लोकतंत्र का भविष्‍य उज्‍जवल है क्‍योंकि लोग अपने विवेक से अधिक उत्तरदायी सरकार के चुनाव में सक्षम होंगे।

इसी प्रकार यद्यपि भारत में जाति, धर्म, संप्रदाय, क्षेत्र आदि के आधारपर असमानतायें अवश्‍य हैं लेकिन संकटकाल में उनमें मतैक्‍य हो जाता है तथा भारत में विभिन्‍नता में भी एकता के दर्शन होते हैं। इस बात  की प्रशंसा यूएनडीपी की विश्‍व मानव विकास रिपोर्ट-2005’ में भी की गई है।

अंतर्राष्‍ट्रीय संदर्भों में देखें तो भी भारत में लोकतंत्र के कारण ही उसे नई महाशक्‍ति का दर्जा प्राप्‍त हुआ है। इसका ज्‍वलंत प्रमाण हाल ही में संपन्‍न हुआ भारत-अमेरिका नागरिक नाभिकीय समझौता है। आज भारतीय पक्ष की अवहेलना करके कोई भी एकपक्षीय निर्णय न केवल भारत पर वरन् किसी भी विकासशील देश पर थोपा नहीं जा सकता, यह बात विश्‍व व्‍यापार संगठन के कानकुन सम्‍मेलन में स्‍पष्‍ट हो गई। भारत की लोकतंत्रिक शासन प्रणाली के अंतर्गत सभी धर्मों हिंदु, मुसलमान, पारसी, ईसाई, सिक्‍ख को समान महत्‍व दिए जाने के कारण विश्‍व के इस्‍लामिक रास्‍ट्रों का झुकाव भी भारत की ओर देखा जा सकता है। आज दक्षिण पूर्व एशिया में भारत एक महाशक्‍ति बनने की ओर अग्रसर है तो इसका कारण भारतीय लोकतंत्र शासन प्रणाली ही है। एक अमेरिकन रिपोर्ट (गोल्‍डसैश) में कहा गया है कि 2050 में अमेरिका व चीन के बाद भारत विश्‍व की तीसरी बड़ी महाशक्‍त‍ि होगा।

पड़ोसी देशों में व्‍याप्‍त अशांति व अस्थिरता, भारतीय लोकतंत्र को और मजबूत बनाती है। इन देशों में व्‍याप्‍त गरीबी, अशिक्षा, कुपोषण व भुखमरी जैसी घटनाएं सिद्ध करती हैं कि जनता का सर्वांगीण विकास एवं सभी के हितों का प्रतिनिधित्‍व केवल लोकतंत्र में ही संभव है।


स्‍पष्‍ट है कि भारत में लोकतंत्र के भविष्‍य को कोई खतरा नहीं है। यद्यपि यह अनेक अतंर्निहित कमजोरियों से ग्रसित है। लेकिन आवश्‍यकता लोकतंत्र के स्‍थान पर राजतंत्र या सैनिक शासन स्‍थापित करने की नहीं वरन इस समस्‍याओं को दूर करने की है। आवश्‍यकता है दृढ़ संकल्‍प, शिक्षा, विकास एवं सामाजिक समरसता की जिसके माध्‍यम से हम निषेधात्‍मक प्रवृत्तियों पर रोक लगा सकें और तब भारतीय लोकतांत्रिक शासन प्रणाली उगते सूरज के समान अपनी सुनहरी किरणों से राष्‍ट्रीय जीवन के कण-कण में उजाला भर देगी।

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भारत में लोकतंत्र का भविष्‍य तथा चुनौतियां पर निबंध
भारत में लोकतंत्र का भविष्‍य तथा चुनौतियां पर निबंध : स्‍वतंत्रता प्राप्‍ति के बाद भी भारत में लोकतांत्रिक शासन व्‍यवस्‍था को अपनाया गया और यह सफलतापूर्वक अपनी 71वीं वर्षगांठ मना चुका है। इसके बावजूद यह चिंतीनय है कि वे कौन सी चुनौतियां हैं जिन्‍होंनं भारत में लोकतंत्र के भविष्‍य पर प्रश्‍नचिह्न लगा दिए हैं? किसी भी देश में लोकतांत्रिक शासन पद्धति के कुछ मूलभूत आधार होते हैं जैसे संविधानवाद, स्‍वतंत्रता, सहिष्‍णुता, समानता एवं सहभागिता। यदि ये पांचों तत्‍व उस देश के शासन संचालन में मौजूद हों तभी वह देश लाकतंत्रिक कहलाएगा। भारत में सिद्धांतत: शासन की शक्‍ति संविधान में निहित है तथा संविधान को यह शक्‍ति जनता ने दी है। लेकिन व्‍यवहार में हम देखते हैं कि आम जनता तो क्‍या बहुसंख्‍य नेताओं को भी संविधान के मायने नहीं पता।
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