लालच बुरी बला है पर निबंध। Hindi Essay on Lalach Buri Bala hai : धन-लोलुपता या लालच ऐसी बुरी चीज है कि उसके फेर में पड़कर मानव कई बार मानवता तक को ताक पर रख देता है। सत्तालिप्सा धनलोलुपता पदलोलुपता के चलते व्यक्ति किसी भी सीमा तक गिर जाता है। चंगेज खाँ नादिरशाह तैमूर लंग और मुहम्मद गौरी भी हमारी ही तरह इंसान थे पर इतिहास गवाह है कि धन-संपत्ति के लोभ में उन्होंने हैवानियत का ऐसा नंगा नाच दिखाया कि इंसानियत कराह उठी तथा व्याकुल जनता त्राहि-त्राहि कर उठी।
लालच बुरी बला है पर निबंध। Hindi Essay on Lalach Buri Bala hai
धन-लोलुपता या लालच ऐसी बुरी चीज है
कि उसके फेर में पड़कर मानव कई बार मानवता तक को ताक पर रख देता है। सत्तालिप्सा
धनलोलुपता पदलोलुपता के चलते व्यक्ति किसी भी सीमा तक गिर जाता है। चंगेज खाँ
नादिरशाह तैमूर लंग और मुहम्मद गौरी भी हमारी ही तरह इंसान थे पर इतिहास गवाह है
कि धन-संपत्ति के लोभ में उन्होंने हैवानियत का ऐसा नंगा नाच दिखाया कि इंसानियत
कराह उठी तथा व्याकुल जनता त्राहि-त्राहि कर उठी।
मीरजाफर ने देशभक्ति की जगह गद्दारी का
रास्ता कोयों अख्तियार किया क्योंकि वह लोभी और लालची था। लोकोक्ति है- रूखी-सूखी
खाय के ठंडा पानी पीव देख पराई चूपड़ी मत ललचावै जीभ। यदि इस लोकोक्ति के अनुसार
उपरोक्त खलनायकों ने संतोषपूर्वक अपना जीवन बिताया होता तो आज मर जाने के बाद भी
लोग उनके नाम पर थूकते नहीं।
अफसोस कि आज भी जीवन के हर क्षेत्र में
हमें इन लोलुप तथा असंतुष्ट नायकों के आधुनिक संस्करण ढँढंने के लिए कुछ ज्यादा
परिश्रम करने की आवश्यकता नहीं है। ऐसे लोगों के लिए पैसा ही ईश्वर है खुदा है
धर्म है ईमान है पीर है पैगंबर है और अगर नहीं भी है तो इन सब में से किसी से कम
नहीं है। मानवता की ऐसी-तैसी और रही देशभक्ति और जम्हूरियत तो वह गई तेल लेने।
समर जिस शाख पर देखा उचक कर उस पे जा बैठे।
सियासी जिंदगी है आजकल लंगूर हो जाना।
चिरंतन सत्य है कि ये कि करनी का फल भोगना ही पड़ता है पर फिर भी यदि लोग रजाफर बनते हैं तो मात्र इसलिए कि उन्हें जो और जितना प्राप्त है उससे उन्हें संतोष नहीं होता। मनी,यों ने संतोष को मान का सबसे बड़ा धन बताया है। जो स्वबाव से ही लालची और असंतोषी है उसे तो कुबेर का कोष भी संतुष्ट नहीं कर सकता। धन का अर्थ केवल रूपया-पैसा या डॉलर या पाउंड नहीं अपितु हाथी घोड़ा गाय-बछड़ा या फिर हीरा मोती माणिक्य आदि भी धन की श्रेणी में आते हैं। पर एक सुक्ति है कि जब आवै संतोष धन सब धन धूरि समान अर्थात जब किसी को संतोषरूपी धन प्राप्त हो जाता है तो उसके लिए बाकी के सारे धन धूल के समान तुच्छ हो जाते हैं।
मानव-जीवन में कामनाओं लालसाओं का एक
अटूट सिलसिला चलता ही रहता है। सबकुछ प्राप्त होने के बावजूद कुछ और भी प्राप्त
करने की इस मायाजाल से मनुष्य मृत्युपर्यंत मुक्त नहीं हो पाता। अधिकांश को धन की
लालसा होती है और यह लालसा भी कि वह जीवन को सुखपूर्वक भोगे। लेकिन सुख का निवास
मन है औ मन से ही व्यक्ति सुख का अनुभव करता है। संतोषी व्यक्ति क्योंकि मन से
संतुष्ट रहता है अतः वह सदा सुखी होता है।
मन के इस संतोष-असंतोष मेंही यह रहस्य
छिपा है कि क्यों एक कष्टोंसे जीवन व्यतीत करने वाला निर्धन वयक्ति भी अपनी लुटिया
कुटिया लिए अपने परिवार समेत संतुष्ट और सुखी रहता है तथा एक धनकुबेर सारे ऐश्वर्य
भोगता हुआ भी अंतःकरण में भयभीत असंतुष्ट और दुःखी रहता है। दरअसल निर्धन तो जो
कुछ उसे थोड़-बहुत प्राप्त होता है उसी को परमपिता परमात्मा का प्रसाद समझकर
संतुष्ट और सुखी हो जाता है किंतु वह धनवान्- जिसको संतोष-धन प्राप्त नहीं है।
अपना सरा जीवन धनलिप्सा में गुजार देता है। वह निरंतर यही सोचता रहता है कि से ये
भी मिल जाए और वो भी मिल जाए तथा वो भी... और....। ऐसे ही कामनाएँ करते-धरते उसका
जीवन तो बीत जाता है लेकिन वह कभी भी जीवन का अर्थ नहीं समझ पाता।
सभी सांसारिक गुणों का वास धन में है
ऐसा लोग मानते हैं। धन को पूजनीय मानने वालों की कमी नहीं है। पर आजतक कोई भी कभी
धन से तृप्त होता हुआ दिखाई नहीं दिया हाँ गौतम बुद्ध जैसे चंद ज्ञानी पुरूष धन से
विरक्त होते हुए अवश्य देखे गए हैं। अतृप्ति के अंधकार में मनुष्य की इंद्रियां
किसी बेलगाम घोड़े के समान भागती फिरती हैं और उसके ह्रदय को अशांत करती हैं।
अशांत ह्रदय में भला सुख कैसा और कैसी शांति। सुख के अभाव में जीवन नर्क हो जाता
है और सुख उपजता है सिर्फ संतोष से।
कोठी-बंगला-कार और बड़ी-बड़ी संपत्तियों
के मालिक स्वभाव से ही सदा निन्यानवे के फेर में पड़े रहते हैं। उन्हें लखपति से
करोड़पति और फिर अरबपति होने की चिंता सताती रहती है। अधिक से अधिक और फिर कुछ और
अधिक की मृग-मरीचिका में भटकता उनका मन उन्हें व्याकुल किए रहता है। इससे उनके स्वास्थय पर भी खराब असर पड़ता है। भूख
घटती जाती है। औषधियों के सहारे वे जीते हैं और उनके सहारे उनकी मृगतृष्णा भी जीवित
रहती है। कहावत भी है कि सच्चा सुख निरोगी काया अतः जीवन के सुख से कथित
धनलोलुप असंतोषी जीव सदा वंचित रहते हैं। इस संसार में सुखमय जीवन उन्हीं का है
जिनकी कामनाएँ मर्यादित हैं और जिन्हें संतोष-धन सुलभ है।
जीवन में सुख की चाह रखने वालों को
संतोषरूपी इस सबसे उत्कृष्ट धन को प्राप्त करने की चेष्टा करनी चाहिए। क्योंकि जिस
व्यक्ति को यह धन सुलभ है उसके लिए अन्य कुछ दुर्लभ हो तो किंतु सुख हमेशा सुलभ
है। उस संतुष्ट व्यक्ति की आँखों में चमक चेहरे पर तेज होता है। स्वास्थ्य की लाली
उसके कपोलों से फूटती है और अंग-अंग में स्फूर्ति की तरंगे उठती रहती हैं। वह
खिलखिलाता-मुस्कराता हँसता-हँसाता स्वयं में संतुष्ट संन्यासी के समान अपने
सांसारिक कर्तव्यों का निर्वहन करता हुआ सुखपूर्वक अपना जीवन व्यतीत करता है।
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