देशभक्ति बनाम राष्ट्रवाद पर निबंध: देश और उसके प्रति प्रेम, सम्मान और समर्पण की भावना मानव स्वभाव की एक सहज अभिव्यक्ति है। परन्तु जब यह भावना राजनीतिक
देशभक्ति बनाम राष्ट्रवाद पर निबंध / Nationalism vs Patriotism in Essay Hindi
देशभक्ति बनाम राष्ट्रवाद पर निबंध: देश और उसके प्रति प्रेम, सम्मान और समर्पण की भावना मानव स्वभाव की एक सहज अभिव्यक्ति है। परन्तु जब यह भावना राजनीतिक विचारधाराओं और सांस्कृतिक वर्चस्व की आकांक्षा से जुड़ती है, तो इसका रूप बदल सकता है। यही वह बिंदु है जहाँ देशभक्ति (Patriotism) और राष्ट्रवाद (Nationalism) के बीच अंतर की रेखा खिंचती है। सतही दृष्टि से दोनों शब्द समान प्रतीत होते हैं, परंतु इनके अर्थ, उद्देश्य और प्रभाव एक-दूसरे से भिन्न हैं।
देशभक्ति एक भावनात्मक, नैतिक और नागरिक जिम्मेदारी का भाव है। यह किसी व्यक्ति की अपने देश के प्रति आत्मीय निष्ठा को दर्शाता है, जिसमें देश के कल्याण, संविधान और मूल्यों के प्रति सम्मान निहित होता है। एक देशभक्त अपने देश की आलोचना कर सकता है, पर उसका उद्देश्य सुधार होता है, अपमान नहीं। गांधीजी की देशभक्ति इसी श्रेणी में आती है — उन्होंने ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध संघर्ष किया, लेकिन बिना हिंसा और द्वेष के, बल्कि सत्य, अहिंसा और आत्मबल के माध्यम से। देशभक्ति व्यक्ति को जोड़ती है — वह सहिष्णु होती है, विविधता का सम्मान करती है, और जनहित को सर्वोपरि मानती है।
वहीं, राष्ट्रवाद एक राजनीतिक और वैचारिक अवधारणा है, जिसका केंद्र ‘राष्ट्र’ होता है, लेकिन यह राष्ट्र को कभी-कभी दूसरों के विरुद्ध परिभाषित करता है। राष्ट्रवाद में ‘हम बनाम वे’ जैसे भारत बनाम पकिस्तान या भारत बनाम चीन की प्रवृत्ति देखी जाती है। यह भावना अक्सर संस्कृति, धर्म, भाषा या जातीयता के आधार पर राष्ट्र की एकरूपता की कल्पना करती है। राष्ट्रवाद की भावना का उभार अकसर तब होता है जब देश को बाह्य या आंतरिक संकट का सामना करना पड़ता है। इसलिए किसी भी राष्ट्र के लोए राष्ट्रवाद की भावना आवश्यक होती है, परंतु वह एकता बहुधा बहिष्कार की कीमत पर आती है।
इतिहास में राष्ट्रवाद ने कई सकारात्मक परिवर्तन भी लाए हैं। स्वतंत्रता संग्रामों, उपनिवेशवाद के विरुद्ध लड़ाइयों और सामाजिक पुनर्जागरण में राष्ट्रवादी विचारधारा की भूमिका रही है। परंतु जब राष्ट्रवाद अंध भक्ति, उग्रता और आलोचना-विरोधी बन जाता है, तब वह खतरनाक हो सकता है। जर्मनी में नाज़ीवाद, इटली में फासिज़्म और आज भी विश्व के कई हिस्सों में कट्टर राष्ट्रवाद ने लोकतंत्र, मानवाधिकार और सामाजिक समरसता को चुनौती दी है।
भारत के संदर्भ में यह अंतर और भी महत्वपूर्ण हो जाता है, क्योंकि यहाँ की विविधता ही इसकी सबसे बड़ी ताक़त है। भारतीय संविधान ने राष्ट्र की परिकल्पना को ‘हम भारत के लोग’ से आरंभ किया है, जहाँ भाषा, धर्म, जाति और संस्कृति की बहुलता को सम्मानित किया गया है। देशभक्ति इस विविधता को आत्मसात करती है, जबकि उग्र राष्ट्रवाद कभी-कभी इसे संदेह की दृष्टि से देखता है। देशभक्ति संविधान के प्रति निष्ठा की मांग करती है; राष्ट्रवाद कभी-कभी संविधान से ऊपर राष्ट्र की एक परिभाषित अवधारणा को रखता है।
आज के वैश्विक और डिजिटल युग में जब सूचनाएँ सीमाओं को पार कर रही हैं, तब राष्ट्रवाद की सीमाएं और देशभक्ति की जिम्मेदारियाँ पुनर्परिभाषित हो रही हैं। सोशल मीडिया और राजनीति ने राष्ट्रवाद को एक उपकरण बना दिया है, जिसे कभी भावनात्मक उन्माद में बदला जाता है और कभी जन समर्थन जुटाने के हथियार की तरह इस्तेमाल किया जाता है। वहीं देशभक्ति अब केवल सैनिक सेवा या राष्ट्रगान तक सीमित नहीं रह गई, बल्कि कर चुकाने, ईमानदारी से काम करने, पर्यावरण की रक्षा करने, और सामाजिक समरसता बनाए रखने जैसे कर्तव्यों से भी जुड़ चुकी है।
निष्कर्षतः, देशभक्ति और राष्ट्रवाद के बीच सबसे बड़ा अंतर यह है कि देशभक्ति राष्ट्र से प्रेम करना सिखाती है — उसकी अच्छाइयों के साथ-साथ कमियों को भी स्वीकार कर सुधार की आकांक्षा रखती है। जबकि राष्ट्रवाद कभी-कभी आलोचना को देशद्रोह मान लेता है और राष्ट्र को एक आदर्श की तरह प्रस्तुत करता है, जहाँ असहमति के लिए स्थान नहीं होता। आज के भारत को ऐसे देशभक्तों की आवश्यकता है जो संविधान के मूल्यों, लोकतंत्र की आत्मा और विविधता की सुंदरता को समझते हों — जो राष्ट्र की आलोचना को उसकी बेहतरी का माध्यम मानें, न कि उसकी निंदा। क्योंकि जब देशभक्ति विवेक से जुड़ती है, तब राष्ट्रवाद की अंधता अपने आप मिट जाती है।
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