नए राज्यों की मांग की प्रासंगिकता पर निबंध: भारत, विविधताओं का देश है। यहां की भौगोलिक, सांस्कृतिक और भाषाई विभिन्नता इसे एक अद्भुत राष्ट्र बनाती है।
नए राज्यों की मांग की प्रासंगिकता पर निबंध - Naye Rajyon ki Mang ki Prasangikta par Nibandh
नए राज्यों की मांग की प्रासंगिकता पर निबंध: भारत, विविधताओं का देश है। यहां की भौगोलिक, सांस्कृतिक और भाषाई विभिन्नता इसे एक अद्भुत राष्ट्र बनाती है। किंतु इस विविधता के साथ-साथ क्षेत्रीय असंतोष भी पनपता रहा है, जिससे समय-समय पर नए राज्यों के गठन की मांग उठती रही है। 2 जून 2014 को आंध्र प्रदेश से तेलंगाना का गठन हुआ, जिससे यह प्रश्न फिर से प्रासंगिक हो गया कि क्या विकास और सुशासन के लिए बड़े राज्यों का विभाजन आवश्यक है? क्या नए राज्यों के निर्माण से प्रशासनिक व्यवस्था बेहतर होती है, या यह सिर्फ राजनीतिक स्वार्थों की उपज है?
नए राज्यों की मांग का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत में राज्यों का पुनर्गठन एक महत्वपूर्ण विषय रहा। 1953 में पोट्टी श्रीरामलू की भूख हड़ताल और उनकी मृत्यु के बाद आंध्र प्रदेश को एक स्वतंत्र तेलुगू भाषी राज्य के रूप में गठित किया गया। इसके पश्चात 1956 में राज्य पुनर्गठन आयोग का गठन हुआ, जिसने भाषा को आधार मानते हुए राज्यों का पुनर्गठन किया। इसी के परिणामस्वरूप महाराष्ट्र, गुजरात, तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक, पंजाब आदि राज्यों का गठन हुआ।
बाद में, जब प्रशासनिक असुविधाएं और क्षेत्रीय असंतोष बढ़ा, तो नए राज्यों की मांग फिर से उठी। वर्ष 2000 में उत्तर प्रदेश से उत्तराखंड, मध्य प्रदेश से छत्तीसगढ़ और बिहार से झारखंड का गठन किया गया। इन राज्यों के गठन का तर्क यह था कि छोटे राज्यों का प्रशासनिक संचालन अधिक सुगम होगा, और वहां का विकास तेजी से होगा।
क्या नए राज्यों का गठन विकास के लिए आवश्यक है?
नए राज्यों के गठन का मुख्य तर्क यह दिया जाता है कि छोटे राज्यों में प्रशासनिक दक्षता बढ़ती है और संसाधनों का समान वितरण होता है। उदाहरण के लिए, छत्तीसगढ़ अपने गठन के बाद से कोयला और लौह अयस्क जैसे खनिज संसाधनों का अधिकतम उपयोग कर पाया, जिससे उसकी आर्थिक स्थिति मजबूत हुई। उत्तराखंड में पर्यटन उद्योग को नई ऊंचाइयां मिलीं, जिससे राज्य की अर्थव्यवस्था में सुधार हुआ।
हालांकि, नए राज्यों के गठन का दूसरा पक्ष भी है। झारखंड में राजनीतिक अस्थिरता ने विकास की गति को धीमा कर दिया। छत्तीसगढ़ में नक्सली गतिविधियों ने कानून-व्यवस्था की स्थिति को कमजोर किया। ऐसे में यह प्रश्न उठता है कि क्या सिर्फ राज्य विभाजन ही विकास का समाधान है, या फिर प्रशासनिक इच्छाशक्ति और नीतियों में सुधार अधिक प्रभावी उपाय हो सकते हैं?
राजनीतिक और प्रशासनिक जटिलताएं
कई बार नए राज्यों की मांग राजनीतिक लाभ और सत्ता प्राप्ति के उद्देश्य से उठाई जाती है। कुछ नेता क्षेत्रीय असंतोष को बढ़ावा देकर नए राज्यों के गठन को अपनी राजनीति चमकाने का साधन बना लेते हैं। यह भी देखा गया है कि नए राज्यों के गठन के बाद संसाधनों और परिसंपत्तियों के बंटवारे को लेकर पुराने और नए राज्यों के बीच विवाद उत्पन्न होते हैं।
उदाहरण के लिए, झारखंड के गठन के बाद बिहार को खनिज संपदा के नुकसान का सामना करना पड़ा, जिससे उसकी आर्थिक स्थिति कमजोर हुई। तेलंगाना के गठन के बाद हैदराबाद को लेकर आंध्र प्रदेश और तेलंगाना के बीच विवाद उत्पन्न हुआ। इन विवादों के कारण कई बार विकास कार्य बाधित हो जाते हैं, जिससे नए राज्यों की वास्तविक प्रगति धीमी हो जाती है।
क्या बड़ा राज्य प्रशासन के लिए बाधा है?
यह तर्क दिया जाता है कि बड़े राज्यों में प्रशासनिक जटिलताएं अधिक होती हैं और दूर-दराज के क्षेत्रों तक विकास योजनाओं को पहुंचाना कठिन होता है। किंतु, इस तर्क को पूरी तरह से सही नहीं कहा जा सकता।
उदाहरण के लिए, महाराष्ट्र और तमिलनाडु जैसे बड़े राज्य औद्योगिक और बुनियादी ढांचे के मामले में देश के अग्रणी राज्यों में शामिल हैं। यदि सुशासन और कुशल प्रशासन हो, तो बड़े राज्य भी तेजी से विकास कर सकते हैं। आज के डिजिटल युग में ई-गवर्नेंस और प्रशासनिक सुधारों के माध्यम से सुशासन को किसी भी राज्य के कोने-कोने तक पहुंचाया जा सकता है।
विकास के लिए नए राज्यों की जरूरत या बेहतर प्रशासन?
यदि हम नए राज्यों के गठन के पीछे के मूल कारणों पर ध्यान दें, तो यह स्पष्ट होता है कि आमतौर पर यह मांग क्षेत्रीय असमानता और विकास की कमी के कारण उठती है। यदि सरकारें बड़े राज्यों में भी समान रूप से विकास कार्यों को बढ़ावा दें, प्रशासनिक पारदर्शिता लाएं और भ्रष्टाचार पर लगाम लगाएं, तो नए राज्यों के गठन की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी।
इसी प्रकार यदि सरकार रोजगार के अवसरों को बढ़ाए, शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं में सुधार करे, आधारभूत संरचनाओं का विकास करे और पंचायती राज प्रणाली को मजबूत बनाए, तो क्षेत्रीय असंतोष को कम किया जा सकता है। यदि प्रत्येक क्षेत्र को उचित संसाधन और अवसर दिए जाएं, तो किसी भी क्षेत्र को अलग राज्य की मांग करने की जरूरत नहीं होगी।
निष्कर्ष
नए राज्यों की मांग को पूर्णतः अनुचित नहीं ठहराया जा सकता, लेकिन इसे एकमात्र समाधान भी नहीं माना जा सकता। यदि नए राज्यों का गठन प्रशासनिक सुगमता और विकास के वास्तविक उद्देश्य से किया जाए, तो यह देश की प्रगति में सहायक हो सकता है। किंतु यदि यह केवल राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए किया जाता है, तो इससे न तो जनता को लाभ होगा और न ही देश को।
इसलिए, सरकार को चाहिए कि वह नए राज्यों की मांग को केवल राजनीतिक दृष्टिकोण से न देखकर, इसे एक गंभीर प्रशासनिक और विकास संबंधी मुद्दे के रूप में देखे। जब तक क्षेत्रीय असमानता और प्रशासनिक अक्षमता बनी रहेगी, तब तक नए राज्यों की मांग उठती रहेगी। किंतु यदि सरकार दूरदराज के क्षेत्रों तक विकास की किरण पहुंचाने में सफल होती है, तो शायद नए राज्यों के गठन की आवश्यकता ही न पड़े।
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