संस्कार और भावना एकांकी की कथा वस्तु / सारांश: संस्कार और भावना एकांकी एक भारतीय हिन्दू परिवार की पुराने संस्कारों में जकड़ी हुई मां तथा आधुनिक समाज क
संस्कार और भावना एकांकी की कथा वस्तु / सारांश (Sanskar aur Bhavna Ekanki ka Saransh)
संस्कार और भावना एकांकी एक भारतीय हिन्दू परिवार की पुराने संस्कारों में जकड़ी हुई मां तथा आधुनिक समाज के साथ बदलते हुए बेटों और बहुओं के बीच संघर्ष की चेतना पूर्ण कहानी है। इस हिन्दू परिवार की मुखिया वृद्ध मां है जो कि पुराने संस्कारों में पली जाति-पाति, छूआ-छूत, ऊँच-नीच आदि के संस्कारों पर अन्ध-विश्वास करती है। इस वृद्ध मां के अविनाश और अतुल दो बेटे हैं। दूसरे बेटे अविनाश ने अपनी शादी एक बंगाली लड़की से कर ली है जिसे कि विजातीय (दूसरी जाति की) होने के कारण मां अपनी बहू के रूप में स्वीकार नहीं करती। पहले लड़के अतुल की शादी हिन्दू-धर्म की परम्पराओं और मर्यादाओं के अर्न्तगत ही होती है । किन्तु अतुल और उसकी पत्नी उमा दोनों ही आधुनिक वातावरण में पले होने के कारण दोनों ही पुराने संस्कारों से मुक्त हैं।
पुराने संस्कारों में आस्था रखने वाली मां की इच्छा के अनुकूल शादी न होने के कारण रूढ़िवादी मां अपने बेटे अविनाश और उसकी विजातीय पत्नी को बहू के रूप में स्वीकार नहीं करती और उन्हें घर से निकाल देती है। अतुल और उसकी पत्नी उमा को मां की यह रूढ़िवादिता पसन्द नहीं है। अत: उनके हृदय में अविनाश और उसकी पत्नी के प्रति आदर भाव और सहानुभूति यथावत् बने रहते हैं और उनका एक दूसरे से मिलना-जुलना भी बना रहता है।
एक दिन उमा ने एक पुस्तक में पढ़ा- 'जिन बातों का हम प्राण देकर भी विरोध करने को तैयार रहते हैं, एक समय आता है, वे ही बातें हम चुपचाप स्वीकार कर लेते हैं।' पुस्तक के इस वाक्य ने उमा को गम्भीर विचारों में डाल दिया। वह इस वाक्य की गम्भीरता की विचार धारा में ऐसी डूब गई कि उसे अपने शरीर की भी होश न रही। इसी समय उसकी सास वृद्ध मां हृदय में वेदना, आंखों में पीड़ा और शरीर में थकान लिये वहां पहुंची। उसने उमा को बताया कि अविनाश बहुत सख्त बीमार रहा है और उसकी पत्नी ने अपने जीवन की परवाह न कर उसकी सेवा-श्रूषा कर उसे बचाया है। इसके पश्चात् अब वह स्वयं भी बीमार हो गई है। उसने तो अविनाश को जी-जान से सेवा कर बचा लिया। परन्तु अविनाश में ऐसी क्षमता नहीं है कि वह अपनी पत्नी को बचा सके। इस घटना को सुनकर मां के हृदय में आत्मीयता जागती है और वह पुराने संस्कारों की दीवार तोड़कर उसके (बहू) पास जाना चाहती है।
उमा से मां को इस बात का भी पता चलता है कि वह अविनाश की पत्नी से मिल चुकी है तो उसकी बहू और बेटे के विषय में जानकारी प्राप्त करने की आतुरता और भी बढ़ जाती है। उमा द्वारा अविनाश की पत्नी के रूप, गुण और स्वभाव की प्रशंसा उसके हृदय को और भी अधिक मिलने के लिये व्याकुल कर देती है। अपने पुत्र अतुल के द्वारा भाई के व्यवहार, दृढ़ संकल्प और निःस्वार्थ सेवाभाव के विषय में जानकर माँ पश्चाताप करती हुई प्राचीन रुढ़िवादी संस्कारों को छोड़कर अपनी बहू और बेटे अविनाश को मिलने के लिये अधीर हो जाती है।
बहू की बीमारी की बात सुनकर वह मानती है कि उसे बचाने की शक्ति केवल उसी के अन्दर है। मां को यह पक्का विश्वास है कि यदि वह बहू के पास चली जायेगी तो वह अवश्य बच जायेगी। इसलिये वह अपने बेटे अविनाश और उसकी विजातीय बहू को स्वीकार करने का निश्चय करते हुए कहती है- अतुल इसीलिये कहती हूँ, तू एक बार मुझे उसके पास ले चल। वह निर्मम है, पर मैं तो मां हूं। मुझे निर्मम नहीं होना चाहिए। मैं उसके पास चलूंगी।
अन्त में उमा, अतुल और मां तीनों तांगे में बैठ कर अविनाश और उसकी विजातीय पत्नी को मिलने जाते हैं और प्राचीन संस्कारों की दीवार टूट जाती है।
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